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इस्लामिक मजहबी, कट्टरवाद छोड़ें और आत्मावलोकन करें  

कतिपय इस्लाम; धर्मीद्ध मजहबी बदलते समय की इबारत को न पढ़ना चाहते हैं, न उनके परिणामों को जानना चाहते हैं, जिस हिंसक रास्ते पर चलकर वे आगे बढ़ रहे हैं। यासीन मलिक जैसी अराजक मानसिकता और वैसी आतंकी राष्ट्रविरोधी ताकतों को संरक्षण और समर्थन दिये जाने का परिणाम, बँटवारे के परिणाम स्वरूप बना पाकिस्तान भुगत रहा हैए जो हालात सामने हैं वे अत्यधिक डरावने हैं। वही भारत देश लोकतांत्रिक, गरिमामय आदर्शों को लेकर विश्व के सामने ऊँचाई छूने तत्पर है। सत्ता की कुर्सी पा लेने की बढ़ती महत्वाकाँक्षाए इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये स्वार्थी और देश घाती चरित्र हथियार से ज्यादा क्षति पहुँचाते हैं। ऐसे तत्व सिवाय लोकतंत्र और राष्ट्र की नींव को खोखला करने के और करेंगे क्या? देश के भीतर कितने पाकिस्तान बसते हैं, उनकी सोच पाकिस्तान से क्यों मेल खाती है? ऐसी नासमझी इन्सानियत को गर्त में ही गिरायेगी देर-अबेर।

इतिहास साक्षी है, गत आठ सौ-नौ सौ वर्षों पूर्व मुगल आक्रमणकारियों ने हमलों, लूटपाट, मंदिरों का विध्वंश हिन्दुओं और उनकी महिलाओं के साथ अमानुषिक अत्याचार किये थे, वे सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है। सन् 1920 के मोपला, दंगों, सन् 1946 के जिन्ना के आव्हान पर डारेक्टर एकशनालान, सन् 1947 के भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय खेली गयी खून की होलियाँ, अमानुषिक अत्याचारों का लेखा-जोखा भी तो इतिहास में ही दर्ज है। सन् 1970 में कश्मीर से हिन्दु  ओं को भगाने के लिये चलाया गया गैर इन्सानियत भरा खूनी घिनौने इरादों से भरा अभियान मुसलमानों को किस स्तर पर ले जाकर खड़ा करता है? आज भी इस बदलते समय में उसी हिंसक मानसिकता को जिन्दा रखा जाता है तो इसका हश्र क्या होगा. इसे गम्भीरता से समझे जाने की जरूरत है या नहीं। अब सवाल यह भी है कि भारत के 21 करोड़ मुसलमान अपनी कट्टर मानसिकता को क्यों नहीं छोड़ना चाहते और वे जिस देश में रहते हैं, उसकी विकास यात्रा में शामिल होकर अपनी जीवन यात्रा को सुगम क्यों नहीं बनाना चाहते? उन्हें सारे अधिकार संविधान से प्राप्त हैं, सुविधायें भी बहुसंख्यक हिन्दू समाज से अधिक-इसके बावजूद मुसीबतों से झेलते पाकिस्तानी जनता की स्थितियों को क्यों अपना आदर्श बनाये रखने का सपना पालकर रखे हुये है?

इतिहास की रचना न तो हिन्दुओं द्वारा की गयी हैए न ही मुसलमानों के द्वारा। इतिहास की सच्चाई को झुठलाया भी नहीं जा सकता। हिंसक वारदातोंए जघन्य हत्याओं के बाद भी इस्लाम का कितना प्रचार कर पाये? इस प्रश्न पर भी तो सिंहावलोकन होना चाहिये और आगे कितनी सफलता प्राप्त की जा सकेगी?

पंथनिरपेक्षता अच्छा सिद्धान्त है, पर क्या इसके लिये किसी एक पक्ष की पहल की जरूरत हैए दोनों पक्षों को एक साथ इसके लिये प्रयास करना होगा। गंगा-जमुनी तहजीब को सूली पर किसने लटकाया? भारतीय संविधान की दुहाई देने वाले मुस्लिम नेता स्वयं आत्मनिरीक्षण क्यों नहीं करते? इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि इस्लाम बहुत बाद में आया। श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिव महादेव ईसा के जन्म के हजारों साल पहले अवतरित हुये थे, जिनका उल्लेख ऋगवैदिक कालीन ग्रंथों में है।

भारत सदियों से सहिष्णु हिन्दुओं का देश है। सेक्युरिज्म तो उनकी हर सांस में व्याप्त है, चींटियों को आटा-शक्कर, पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं का संरक्षण- पालन पोषण जीवन की दैनंदिन गतिविधियों में शामिल है। मानव-मानव में तो भेदभाव का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन जमीयत की भाषा डर जरूर पैदा करने की कोशिश करती है।

भारत लोकतांत्रिक देश है और यहाँ सारा कामकाज कानून से चलता है। लेकिन औबैसी से लेकर शफीक- उर-रहमान बर्कए माजिद मेनन सहित अनेकानेक ऐसे नाम हैं, जिन्होंने बोलने में संयम नहीं बरता और आग उगलते हुये माहौल को बिगाड़ा है। अपनी गर्हित भूमिका का गैरवाजिब तरीके से दुरूपयोग किया हैए जिससे यह पता चलता है कि मजहबीए बौद्धिक और राजनैतिक नेतृत्व की दिशा में किस ओर मोड़ा जा रहा है? ऐसा तो अबतक कोई संकेत नहीं है या यह शिकायत, कि मुसलमानों का सड़कों पर चलना कठिन हो गया है? इसके विपरीत मौलाना महमूद मदनी ने तो यह बात कहकर तो मामले को और मजेदार बना दिया। उन्होंने एक जलसे में तकरीर करते हुये यहाँ तक कह गये कि किसी को अगर हमारा मजहब बर्दास्त नहीं हैए तो वे मुल्क छोड़कर चले जायें। इस तकदीर में कही गयी बात का क्या मतलब लगाया जायेघ् यह मजहबी अतिवाद का उदाहरण है। बदले में यदि दूसरा पक्ष कहे कि इन्हें  पाकिस्तान चले जाना चाहिये। मदनी ने तो यह भी कहा था कि शरीयत में किसी तरह की दखलंदाजी बर्दास्त नहीं होगी। तात्पर्य यह कि मुस्लिम नेता इसी तरह की बयानबाजी  कर झूठ और सच का भ्रम फैलाते हुये साम्प्रदायिक नफरत का वातावरण निर्माण कर रहे हैं।

प्रश्न तो उठता है और उठना भी चाहिये कि इस देश में जहाँ लोकतांत्रिक पद्धति की व्यवस्था हैए मुसलमान जुमे के दिन मस्जिदों से निकलकर सड़कों पर प्रदर्शन करके क्या संदेश देना चाहते हैं? ऐसा तो कश्मीर में भी होता रहा है। क्या मुसलमान पत्थरबाज होने के ठप्पे वाली व्यवस्था का अंग बनना चाहता है? मुस्लिम समाज को स्वयं अपने आपसे सवाल करना चाहिये कि क्या वे सही रास्ते पर चल रहे हैं? उनके इस व्यवहार और रवैये पर देश उनका साथ क्यों दे? मजहब के नाम पर भावनायें भड़काना आसान है। इस्लामी देशों के नेता इस बात को अच्छी तरह से जानते भी हैं। अच्छा यह होगा कि वे मुगलों की परम्परा के समर्थक अपने आपको सिद्ध करने की कोशिश न करें। क्योंकि कुछ वर्षों पूर्व तक लिबरल रहा हिन्दू परिस्थितियों को भाँपकर अब करवट बदलने की स्थिति में आ गया है। देशवासी विभाजन की विभीषिका की टीस को अभी तक भुला नहीं पा रहे हैं। इसके पीछे है, देश के साथ छल करने वालों का इतिहास और सेकुलर छद्म ढाँचे की आड़ में समरसता को आग में झौंकने की षाडयांत्रिक चालें। भले ही ये आरोप लगाये जायें कि हिन्दू उग्र और असहिष्णु हो रहे हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही।

नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ रामलीला मैदान में आयोजित एक सभा में तथाकथित महारानी सोनिया गाँधी ने कहा था- आर-पार की लड़ाई है। इसका आशय क्या था? वे क्या करना चाहतीं थी, किसकी लाशें गिरानाा चाहती थीं? इसके बाद ही शाहीनबाग का धरना हुआ थाए फिर दिल्ली में दंगे भड़के थे। सेकुलर वादियों की मंशा को भी गम्भीरता से लेने की जरूरत है। बालाकोट सर्जिकल स्ट्राईक में भी सबूत माँगे गये थे। राजनीति के माध्यम से साम्प्रदायिक माडल का पोषण करने वालों की भी देश में कमी नहीं है।

इस तथ्य को समझने और गंभीरता से लेने की जरूरत है कि भारत विश्व के लियेए सम्पूर्ण मानवता की रक्षा के लिये कृत संकल्पित है। उसे यह क्षमता सनातन धर्म से निरन्तर मिलती रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डाॅ. भागवत ने मुस्लिम समाज के प्रमुखों से स्वयं प्रेरित होकर मुलाकात और चर्चा कर इस मामले में अपनी पहल को सार्वजनिक भी कर दिया हैए जिसके कारण किसी प्रकार के संदेह की गुंजाईश भी नहीं रह गयी है।

तथाकतित अल्पसंख्यकों में बिना किसी कारण एक भय का हौआ खड़ा किया जाता है कि संघ से अथवा संगठित हिन्दू से खतरा है। ऐसा न कभी हुआ है न होगा। न यह हिन्दू का, न ही संघ का स्वभाव या इतिहास रहा है। अन्याय अथवा आत्मरक्षा तो सभी का कर्तव्य बन जाता है। “न भय देत काहू को ना भय जानत आप।” ऐसा हिन्दू समाज खड़ा होए यह समय की आवश्यकता है। एक दूसरे के सुख-दुःख में परस्पर साथ बनेंए भारत को जानेंए भारत को मानें, भारत के बनेए यही एकात्म, समरस राष्ट्र की कल्पना संघ करता है।

डाॅकिशन कछवाहा
9424744170