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क्रान्तिकारी पत्रकार – गणेश शंकर विद्यार्थी

आजादी के आन्दोलन के प्रारम्भ में तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग प्रदर्शित किया लेकिन बाद में उनके स्वर बदलने लग गये थे। उनके बीच पाकिस्तान की माँग जोर पकड़ने लगी थी। 23 मार्च 1931 को भगतसिंह आदि को फाँसी के फन्दे पर झुला दिया गया। यह बड़ी दिल दहला देने वाली घटना थी। समाचार मिलते ही लोगों में भारी रोष फैलने लगा। दूसरे दिन कानपुर में लोगों ने विरोध स्वरूप जुलूस निकालने का निर्णय लिया। पर इस जुलूस के दौरान मुसलमान भड़क गये  और जगह जगह दंगा करने उतारू हो गये। इस समय विद्यार्थीजी ने अपने जीवनभर की तपस्या को भंग होते देख, दंगाईयों को रोकने उनके आगे खड़े हो गये। दंगाई तो मरने मारने पर उतारू थे ही। उन्होंने विद्यार्थीजी के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यहाँ तक कि उनकी लाश का कोई हिस्सा साबूत नहीं बचा। केवल एक बाँह मिली, जिस पर खुदे उनके नाम के कारण उनकी पहचान हो सकी। वह 25 मार्च 1931 का अत्यन्त वीभत्स एवं दुःखद दिन था। अब अंध मजहब वाद की बलिवेदी पर भारत माँ के सच्चे सपूत साहसी एवं मूर्धन्य पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान हो चुका था।

उनका जन्म 26 अक्टूबर सन् 1890 (आश्विन शुक्ल 14 रविवार संवत् 1947) को प्रयाग के अंतरसुईया मोहल्ले मं अपने नाना श्री सूरज प्रसाद श्रीवास्तव के आँगन में हुआ था। इनके पिता मुंशी जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिषी व्यवसाय अपना कर जिला गुना (मध्यप्रदेश) के गंगवली कस्बे में बस गये थे।

गणेश शंकर जी ने कानपुर हाई स्कूल में परीक्षा पास करने के बाद प्रयाग में इंटर मीडियेट में प्रवेश लिया। वहीं वे विवाह बंधन में बंध गये और पढ़ाई छूट गयी। इस दौरान उन्हें पत्रकारिता ने अपनी ओर खींच लिया था। जो उनके जीवन के अंत तक साथ रही। पारिवारिक आर्थिक कठिनाईयाँ झेलते वह पुनः अपने भाई के पास कानपुर आ गये थे। बाद में उनका यहाँ मन नहीं लगा और वे पुनः प्रयाग आ गये। यहाँ कर्मयोगी, सरस्वती एवं अभ्युदय नामक पत्रों में सम्पादकीय विभाग में काम करते रहे। बाद में इसी कार्य में ही खपा दिया। इस समाचार पत्र की निरन्तर लोकप्रियाता बढ़ने लगी थी-इससे ब्रिटिश शारवन बौखला गया था और उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया गया। भारी जुर्माना भी लगाया गया। इसके बावजूद उनके साहस में कभी नहीं आयी। उनका पत्रकारिता के क्रम में लेखों में लिखे गये शब्दों का स्वरूप प्रखरतम होता चला गया। वे क्रान्तिकारियों  के समर्थक थे। क्रान्तिवीर भगतसिंह कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ से भी छद्म नाम से जुड़े रहे। विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ के प्रवेशांक में (09.11.1913) को लिखा था, ‘‘समस्त मानवजाति का कल्याण हमारा पाथोद्देश्य है और इस ध्येय की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं। हम अपनी प्राचीन सभ्यता और जातीय गौरव की प्रशंसा करने में किसी से पीछे नहीं रहेंगे। और अपने पूज्यनीय पुरूषों के साहित्य, दर्शन विज्ञान और धर्मभाव का यश सदैव गायेंगे। अपनी जातीय निर्बलताओं और सामाजिक कुसंस्कारों तथा दोषों को प्रकट करने में हम कभी बनावटी जोश या मशहल-वक्त से काम न लेंगे, क्योंकि हमारा विश्वास है कि मिथ्याभिमान जातियों के सर्वनाश का कारण होता है।’’

वे युगबोध और सामाजिक सरोकारों से सिंचे हुये सम्पादकीय लिखा करते थे। जनपक्ष पत्रकारिता के कारण उन्हें मुसीबतों और कठिनाईयों का सामना करना पड़ा किन्तु वे विचलित नहीं हुये। उनका मानना था कि पत्रकार की समाज के प्रति जिम्मेदारी है। वह पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है। ‘प्रताप’ पत्रकारिता की पाठशाला भी रहा है।

अपने बलिदान दिवस तक अपने आदर्शों पर टिकी अडिग निष्ठा का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है? उन्होंने जो कुछ लिखा, नसीहतें, चेतावनियाँ दी, उन प्रेरणाओं को क्या आज की पत्रकारिता, आज का मीडिया उस पर क्या चिन्तन करेगा? क्या हम विद्यार्थी जी की परम्परा से अपने आपको जोड़ने के अधिकारी हैं?

विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व का एक और महत्वपूर्ण प़क्ष विचारणीय है, वह यह है कि भविष्य में झांकने की क्षमता। प्रख्यात लेखक-कवि विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक ‘‘पत्रकार कला’’ (1930) की भूमिका में उन्होंने लिखा है- ‘‘कुछ ही समय बाद यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जायेंगे और उनमें काम करने वाला पत्रकार केवल मशीनों का पुरजा। व्यक्तित्व न रहेगा सत्य और असत्य का अन्तर न रहेगा, अन्याय के विरूद्ध डट जाने और न्याय के लिये आफतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह जायेगा केवल लिखी हुयी लकीर पर चलना।’’

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के विचारों से उत्प्रेरित गणेश शंकर विद्यार्थी आजादी की लड़ाई के एक निष्ठावान सैनिक थे। कलम के माध्यम से उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम को जोड़ने का काम किया था। बेगुनाह लोगों को बचाने में उन्होंने अपना आत्मोत्सर्ग कर दिया। कानपुर के दंगों की त्रासदी इतनी विकट थी कि विद्यार्थी जी का निष्प्राण शरीर पड़ा रहा और चार दिन बाद उनकी अन्त्येष्ठि हो सकी। उनकी सहादत ने कानपुर के निवासियों और सभ्यजनों को तथा एक दूसरे की जान के प्यासे दंगाईयों को भी ग्लानिग्रस्त बना दिया था। उनका अंतिम संस्कार चार दिन बाद 29 मार्च को सम्पन्न किया जा सका।

डाॅ. किशन कछवाहा
9424744170