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एकात्म मानववाद के प्रणेता व भारतीय पत्रकारिता के पुरोधा : पं. दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय राजनीतिक चिंतक, हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा, एक प्रबुद्ध विचारक, संपादक, पत्रकार, प्रखर वक्ता शिक्षाविद, राष्ट्र ऋषि व संगठनकर्ता पंडित दीनदयाल जी का जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा के नगला चंद्रभान गांव में ब्रज की पवित्र भूमि पर हुआ। बचपन में है उनके माता पिता का निधन हो गया और उनकी शिक्षा उनकी चाची और मामा के देखरेख में हुई।

राजस्थान से मैट्रिक कक्षा पास करने के बाद पिलानी के बिरला कॉलेज से उन्होंने इंटरमीडिएट किया और इसके पश्चात 1939 में कानपुर से बी.ए पास किया। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतक व संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जन संघ के अध्यक्ष भी रहे।

पं. दीनदयाल ने अपना सारा जीवन लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाने और आम जन की बातों को आगे रखने में लगा दिया। अपने कॉलेज के दिनों में वे कानपुर आरएसएस से जुड़े। 1946 में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नौकरी के लिए प्रयासरत नहीं हुए और ना ही विवाह किया बल्कि आरएसएस के 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने नागपुर चले गए।

लखनऊ में प्रकाशनग्रह ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना की और अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए मासिक पत्रिका ‘राष्ट्र धर्म’ का शुभारंभ किया। इसके बाद ऑर्गेनाइजर में ‘पॉलिटिकल डायरी’ और ‘पांचजन्य’ में ‘विचार विथी’ नाम से नियमित स्तंभों का लेखन किया। वह तमाम जिंदगी साहित्य से जुड़े रहे।

पं. दीनदयाल के हिंदी व अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। एक ही बैठक में उन्होंने चंद्रगुप्त नाटक लिख डाला जो साहित्य के प्रति उनके अनुराग को दर्शाता है। इसी के साथ उन्होंने राष्ट्र चिंतन, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, जगद्गुरु शंकराचार्य, एकात्म मानववाद,राष्ट्र जीवन की दिशा,अखण्ड भारत क्यो आदि पुस्तके लिखी। उनके मार्गदर्शन में अटल बिहारी वाजपेयी, देवेंद्र स्वरूप, राजीव लोचन अग्निहोत्री, भानु प्रताप शुक्ला जैसे पत्रकारों ने पत्रकारिता का ज्ञान प्राप्त किया। एक पत्रकार के तौर पर उनका उद्भव 1946 में माना जाता है।

गांधी जी ने इंडियन ओपिनियन में कहा था कि “कोई भी धर्म या देश मनुष्यता से बड़ा नहीं हो सकता”। इसी के समांतर उपाध्याय जी ने लोक कल्याण को पत्रकारिता का प्रमुख आधार माना। उनके पास समाचारों का न्यायवादी एवं साम्यवादी दृष्टिकोण था। उनके लेखों, नियमित स्तंभों में उचित शब्दों का प्रयोग, निष्पक्ष आलोचना व सत्यपरक खबरों को ही स्थान मिलता था। वे समय-समय पर समाचार का शीर्षक कैसे लगना चाहिए इत्यादि विषय पर भी सलाह मशवरा करते थे। वह शीर्षक में कटुता पूर्ण शब्दों के प्रयोग को नहीं स्वीकारते थे। वे हमेशा संपादकों से शालीनता में भाषा के प्रयोग करने की सलाह देते थे।

हिंदुत्व, भारतीय राजनीति, सनातन संस्कृति, अर्थनीति विषय पर उनका गहरा अध्यन था। उनकी दृष्टि एकात्म दृष्टि थी। मानव जीवन के सभी आयामों को देखने, समझने और जीने की अद्भुत क्षमता उनके पास थी। उनका दर्शन एकात्म मानव दर्शन था। एकात्म मानव दर्शन का अर्थ है मानव जीवन तथा संपूर्ण प्रकृति के एकात्मक संबंधों का दर्शन। यह दर्शन व्यक्ति जीवन का, उसके सभी अंगो का ध्यान रखने का संकलित विचार करता है। एक व्यक्ति शरीर मन बुद्धि व आत्मा का संकलित रूप है इसलिए मनुष्य का सर्वांगीण विचार उसके मन, बुद्धि ,शरीर और आत्मा का संकलित विचार है। इन्हें चार पक्ष की संपूर्ण पूर्ति हेतु, मनुष्य के सर्वांगीण विकास हेतु भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ की अवधारणा सामने आई। यह चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक है। एकात्म मानववाद का आधार सहयोग, सहिष्णुता और सकारात्मकता है जो भारतीय दर्शन पर आधारित है। उनकी इसी एकात्म मानववादी दृष्टि से उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। वह खुद कभी संपादक या औपचारिक संवाददाता नहीं रहे। उन्होंने संपादक और संवाददाताओं को अपना सानिध्य व सहचर्य दिया। उनकी पत्रकारिता समकालीन ही नहीं अपितु सुदूर भविष्य तक उपयोगी रहने वाली पत्रकारिता थी। वे अपनी लेखनी द्वारा आत्मा की आवाज प्रस्फुटित करते थे। वे हर छोटी-बड़ी घटना में चिरन्तन मूल्यों को खोजते थे। उनकी लेखनी का मूल जनकल्याण व देशहित था।

एक पत्रकार, एक संपादक के रूप में उन्होंने राष्ट्रवादी दर्शन व भारतीय जीवन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों के अंतर्गत एकात्म मानववाद दर्शन को जन जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। भारत जैसा राष्ट्र जो सुसंपन्न था, जिसकी अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि थी और जिसने विश्व को अपने ज्ञान संपदा के बल पर, अपने सांस्कृतिक मूल्यों के बल पर मानवता का पाठ पढ़ाया; ऐसा राष्ट्र क्यो पराधीन हुआ इन कारणों पर राष्ट्रबोध के भाव से आपूरित उनकी लेखनी निर्बाध रूप से चलती रही।

पत्रकारिता में राष्ट्रवादी भाव को गति देने वाले पत्रकारों में आदरणीय उपाध्याय जी का नाम अग्र रूप से लिया जाता है। अपने राष्ट्रवादी विचारों को जनमानस तक संप्रेषित करने के लिए उन्होंने पत्रकारिता को माध्यम बनाया। पत्रकारिता कैसे जनमत निर्माण करने में सहायक होती है यह बात दीनदयालजी को बखूबी पता थी।

दीनदयाल जी का सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र को समर्पित रहा। उनका पत्रकारीय चिंतन राष्ट्रवाद एवं भारतीय जीवन मूल्यों से जुड़ा रहा। उन्होंने अपने चिंतन व लेखन के द्वारा राष्ट्रबोध व भारतीय अस्मिता को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। पत्रकारिता को वे समाज व राष्ट्र कल्याण के लिए एक शस्त्र मानते थे। उनका मानना था कि पत्रकारिता करते समय राष्ट्रहित सर्वोपरि मानना चाहिए।

भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हो इसलिए वह राष्ट्र के अतीत के गौरव व प्रभाव की चर्चा अपने लेखों के माध्यम से करते थे। उनके आलेखो, पत्रकारीय कर्म, उद्बोधन और लेखन में हमें राष्ट्रबोध के विभिन्न तत्वों के साक्षात दर्शन होते हैं। वर्तमान में जहां पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन और अब सेंसेशन, कमीशन में बदल गई है ऐसे में पंडित दीनदयाल जी के मूल्यों और दृष्टि का महत्व और भी बढ़ जाता है।

आज मीडिया में पेड न्यूज़ का बोलबाला है। मीडिया में तथ्यों, प्रामाणिकता की जगह सबसे आगे निकलने की होड़ मची है, विज्ञापन कमीशन का बाजार गर्म है ऐसे समय मे राष्ट्र हित और मूल्यपरक पत्रकारिता कर हम कैसे देश व समाज का हित कर सकते है इसकी प्रेरणा हम पंडित दीनदयाल जी से ले सकते है। भारतीय पत्रकारिता के लिए वे आज भी प्रेरणा पुंज है और उनकी पत्रकारिता रुपी दृष्टि आज भी हमें अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देती हैं ।

ऐसे राष्ट्र ऋषि को शत-शत नमन।

    लेखिका
प्रो. मनीषा शर्मा 
 9827060364