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“प्रथम विधवा विवाह अनुष्ठान : बेचे थाको विद्यासागर चिरंजीबी होए”

“बेचे था को विद्यासागर चिरंजीबी होए” [जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो (बंगाल के साड़ी बुनकर – साड़ियों में बुनते थे)] यह आधुनिक भारत में नारी सशक्तिकरण के पुरोगामी, महान् दार्शनिक, महान् शिक्षाविद्, निर्धनों और दलितों के अभिरक्षक, महान् समाज सुधारक, श्रीयुत ईश्वरचंद्र बंदोपाध्याय (ईश्वरचंद्र विद्यासागर) के सम्मान में किया जाता था – जिनका जन्म 26 सितंबर 1820 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीरसिंह गांव में हुआ था।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर का आकार (कृतित्व एवं व्यक्तिव) विस्तृत है इसलिए आज आपसे उनके एक सर्वश्रेष्ठ कृत्य को साझा कर रहा हूँ – आधुनिक भारत का प्रथम विधवा विवाह उन्होंने कि किस प्रकार करवाया? 7 दिसंबर 1856 के दिन पश्चिम बंगाल के कोलकाता में सुकास स्ट्रीट पर एक घर के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। यह घर प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर राज कृष्ण बंदोपाध्याय का था। इस दिन उनके घर में एक अभूतपूर्व विवाह हो रहा था और यह विवाह पूरे देश में चर्चा का विषय था।

घर के बाहर गलियों में इतना जन सैलाब उमड़ा था कि वधू की पालकी को मंडप तक पहुंचाना दुष्कर हो रहा था। उस समय के सभी जाने-माने व्यक्तिव यहाँ उपस्थित थे। इनमें शामिल थे, रामगोपाल घोष, हरचंद्र घोष, सम्भूनाथ पंडित, द्वारकानाथ मित्र जैंसे लोग प्रमुख थे। ये सभी पालकी को सुरक्षित कर जन समूह से निकालकर ला रहे थे। जन समूह इतना था कि नियंत्रण करने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। इस सब के चलते एक व्यक्ति मंडप के पास खड़ा होकर कुछ दिशा-निर्देश दे रहा था ताकि कोई अव्यवस्था न हो। ये व्यक्ति कोई और नहीं वरन् प्रसिद्ध समाज-सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी थे।

वही ईश्वर चंद्र विद्यासागर जिन्होंने हिन्दू विधवा पुनर्विवाह का कानून पारित करवाया था। यह एक्ट जुलाई 1856 में पारित हुआ और इसके मात्र चार महीने बाद वे यहाँ एक विधवा का विवाह करा रहे थे, जिसे देखने के लिए लगभग समूचा कलकत्ता उमड़ पड़ा था।यह विवाह 10 साल की उम्र में ही विधवा हो चुकी कालीमती का था। ईश्वरचंद्र विद्यासागर स्वयं पालकी को मंडप तक ले गए।

विद्यासागर ने कालीमती का विवाह अपने ही एक साथी श्रीचन्द्र विद्यारत्न से करवाई। इस विवाह का जहाँ एक और बहुत से लोगों ने विरोध किया तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने इस विवाह का पुरज़ोर समर्थन किया। हिन्दू विधवा पुनर्विवाह एक्ट पारित होने के उपरांत यह पहला कानूनन विधवा विवाह था।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर महाविद्यालय के अपने कार्यालय में न जाने कितने दिन-रात बिना निद्रा के निकाले ताकि वे शास्त्रों में विधवा-विवाह के समर्थन में कुछ खोज सकें। दैवयोग से उन्हें ‘पराशर संहिता’ में वह तर्क मिला जो स्पष्ट करता था कि ‘विधवा-विवाह धर्म वैधानिक है’। उक्त तर्क के आधार पर उन्होंने हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह एक्ट की नींव रखी। 26 जुलाई 1856 को यह कानून अधिनियमित हुआ और 7 दिसंबर 1856 को आधुनिक भारत का प्रथम कानूनन और विधिवत् विधवा-विवाह संपन्न हुआ।

विद्यासागर महिलाओं के उत्थान के लिए सदैव प्रयासरत रहे। यह सर्वविदित है कि जिन भी विधवाओं का विवाह विद्यासागर करवाते थे, उन्हें अपने हाथ की बुनी साड़ी उपहार स्वरुप देते थे एवं विवाह का खर्चा भी वहन करते थे ।

उस समय इन सभी कार्यों के लिए विद्यासागर को समाज से अधिकतर विरोध और ताने ही मिले, लेकिन वे अपने आदर्शों पर अडिग रहे। उनके इन सिद्धांतों को जहाँ समाज नकारता था, वहीं उसी समाज के कई वर्गों के लोग विद्यासागर को अभिरक्षक और मसीहा मानते थे और उनका साहस बढ़ाते थे।यह सर्वश्रुत और प्रमाणित तथ्य है कि शांतिपुर के साड़ी बुनकरों ने विद्यासागर के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए साड़ियों पर बंगाली में कविता बुनना प्रारंभ किया था,

“बेचे थाको विद्यासागर चिरजीबी होए”
(जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो!)

विधवा-पुनर्विवाह पूरे भारत की महिलाओं के उत्थान के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। ईश्वर चंद्र विद्यासागर भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के विवेक पूर्ण संयोग का प्रतिनिधित्व करते थे। वे महान् मानवतावादी थे तथा असहायों, निर्धनों एवं पीड़ितों से अत्यधिक सहानुभूति थी। वह बहुत विद्वान थे।

उन्होंने संस्कृत पढ़ाने के लिए एक नवीन पद्धति को जन्म दिया, बंगला वर्णमाला लिखी। जिसका प्रयोग आधुनिक समय में भी होता है और अपनी रचनाओं के द्वारा आधुनिक गद्य शैली के विकास में सहायता दी। समाज सुधारक की दृष्टि से वह जाति प्रथा के कट्टर विरोधी और स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए प्रबल समर्थक थे।

उन्होंने शूद्रों को संस्कृत पढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं उन्हें पढ़ाया। बाल विवाह और बहु विवाह प्रथा का भी तीव्र विरोध किया। नारी शिक्षा के लिए उन्होंने स्वयं के प्रयत्नों से 25 बालिका विद्यालयों की स्थापना की थी। भारत के इतिहास में उनका बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व सदैव अविस्मरणीय रहेगा

      लेखक 
डॉ. आनंद सिंह राणा 
 7987102901