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कब होती है व्यक्ति के जीवन में सच्चे प्रेम-रस की उत्पत्ति

सत्-स्वभाव ही मनुष्य का उद्धारक है। वही कल्याणकारी पथ प्रशस्त करने वाला है। यही मन को सत्य मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करता है। जिसका मन गलत राह से हटकर सन्मार्ग पर चल पड़ता है, उसी के साथ-साथ आध्यात्मिक सिद्धियाँ भी चलना प्रारम्भ कर देती हैं। वास्तव में जब संकल्प स्वयं अपने लिये न होकर समाज के लिये हो तो विराट विश्व के कोटि-कोटि परमाणु अपनी शक्ति और स्फूर्ति इस संकल्पधर्मी आस्थावान-सत्यमार्गी व्यक्ति को समर्पित करने लगते हैं। तब इस सन्मार्ग का वामन, विराट हो उठता है।

समर्थ गुरू रामदास का कथन था कि ‘‘यदि शरीर परमार्थ में लगाया जाय, तब तो सार्थक होता है, नहीं तो अनेक प्रकार के संघातों के कारण मृत्यु का कारण बन जाता है।’’ जो कल्याण का विचार लेकर चलता है, उसकी कभी दुर्गति नहीं होती। जो शोषित, दलित, पीड़ित हैं, उनकी सेवा करनी चाहिये, यही है सच्चा धर्म और यही है आराधना।

सुख की तीन प्रमुख आवश्यकतायें हैं:- दूसरों के लिये कुछ करो। दूसरों से प्रेम करो और सद्इच्छाएँ ही रखो। वेंजामिन डिजरायली के अनुसार Nature your mind with great thoughts, for your will never go any higher than you think

 

श्री गुरु रामदास जी - जीवन परिचय - World of Spirituality & Religion

उद्देश्य श्रेष्ठ हो, लक्ष्य महान हो एवं हृदय में प्रबल भावना धड़क रही हो तो किये गये कर्मों का प्रभाव तो परिलक्षित होगा ही। प्रत्येक व्यक्ति को परमपिता परमात्मा ने दो बहुमूल्य, खूबसूरत एवं अनुपम उपहार प्रदान किये हैं-बुद्धि और भावना। ये दोनों ऐसी आश्चर्य चकित कर देने वाली अत्यन्त प्रभावी चीजें हैं जिनके समुचित उपयोग के माध्यम से व्यक्ति सांसारिक जीवन में आशातीत सफलता तो प्राप्त कर ही सकता है, साथ ही आध्यात्मिक जीवन में विशेष लक्ष्य की उपलब्धि भी कर सकता है।

इसके साथ दो शर्तें भी जुड़ी हुयी हैं:- प्रथम है – बुद्धि और भावना – दोनों का पवित्रीकरण; वहीं द्वितीय शर्त यह है कि इनका ठीक-ठीक विनियोजन किया जाना। भाव यह है कि जहाँ पर बुद्धि का प्रयोग किया जाना है, वहाँ भावना का प्रयोग करने से बचना होगा और जहाँ भावना का प्रयोग किया जाना आवश्यक है, वहाँ बुद्धि का प्रयोग न किया जाय। और जहाँ दोनों के प्रयोग की आवश्यकता महसूस हो वहाँ बुद्धि के अनुसार भावना का उचित प्रयोग होना चाहिये। जिनके चित्त और हृदय में सतोगुण का प्रकाश होता है, उन्हें यह तथ्य समझने में देर नहीं लगती कि संसार के सारे प्राणियों में जो आत्मा विद्यमान है, वह हमारी आत्मा के समान ही है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन में सभी प्रकार के जीवों के प्राणों की रक्षा की बात अभिव्यक्त हुयी है।

सत्य से अहिंसा का प्रादुर्भाव होता है, अहिंसा से हृदय में दयालुवृत्ति जन्म लेती है, दया का भाव द्रवित होता है व व्यवहार करूणापूर्ण।

मनुष्य को प्राप्त समस्त विभूतियों व शक्तियों की सार्थक उपयोगिता तभी है, जब ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति के रूप में विद्यमान इस विराट विश्व परिवार को अधिकतम श्रेष्ठ, उन्नत, उत्कृष्ट बनाने में अपना सक्रिय सहयोग-योगदान दिया जा सके। मनुष्य जीवन के रूप में जो हमें अनुदान मिले हैं, क्या हम उनका समुचित सदुपयोग कर पा रहे हैं?

सत्य तो यही है कि इन दिनों मनुष्य का भावनात्मक स्तर बहुत नीचे के स्तर पर झुका हुआ है, हर व्यक्ति स्वार्थसिद्धि को ही जीवन का मूलमंत्र मानकर बैठा हुआ है, यदि ऐसा न होता तो आज जितनी विकराल समस्यायें दृष्टिगोचर हो रहीं हैं- उनमें से एक का भी अस्तित्व शेष न होता। इस तथ्य को सदैव स्मरण रखना चाहिये कि मानवीय जीवन उच्चआदर्शों की पूर्ति और अनुकरणीय परम्पराओं की स्थापना के लिये मिलता है। हम यह भी भुला बैठे है कि हमारे जीवन का मूल उद्देश्य क्या है?

पद प्रतिष्ठा व प्रभुता पाकर सहज ही व्यक्तित्व में अहंता, वासना, तृष्णा के सर्प अपने फन फैलाने लग जाते हैं। इनका महाविष थोड़े ही समय में व्यक्तित्व को विषैला बना देता है। यह ऐसा विष है जिससे मुक्ति प्राप्त कर पाना सरल नहीं तो अत्यन्त कठिन जरूर है। इससे त्राण पाने के लिये भगवद्भक्तों की निकटता और ईश्वर के चरणों में अविरल भक्ति धारा की आवश्कता होती है। उसी अमृतरस से उसका शमन सम्भव है। वे धन्य हैं जिनका एक मात्र लक्ष्य ईश्वर है और जिसे प्राप्त कर लेने के लिये वे हरदम प्रयत्नशील रहते हैं।

यदि मनुष्य लोभ, ईष्र्या, इच्छा एवं ममत्व का परित्याग कर दे तो प्रेम समस्त मानवता को एक कर देने का सामथ्र्य रखता है। संग्रह के जाल में उलझा व्यक्ति कभी भी मुक्ति के द्वार को खटखटा नहीं सकता। धनसंग्रह का चक्कर बहुत बुरा है। धन के चक्कर में मनुष्य कई बार घन-चक्कर बन जाता है।

प्रेम व्यक्ति के जीवन में तभी अवतरित होता है, जब वह सब प्राणियों में उसी परमात्मा की झलक देखने लगता है, और उसी परमात्मा की छवि स्वयं में भी अनुभव करने लगता है, इस स्थिति में अहंकार उसके एवं अन्यों के बीच व्यवधान नहीं बन पाता, तभी सच्चा प्रेम रस उत्पन्न होता है और घृणा तिरोहित होने लगती है।

श्वेताम्बतरोपनिषद के षष्ठ अध्याय के 11 वे श्लोक में उल्लेख है कि ‘वे एक ही परमदेव परमेश्वर समस्त प्राणियों के हृदय रूप गुहा में छिपे हुये हैं, वे सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों के अंतर्यामी परमात्मा हैं।’

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा