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गणेश शंकर विद्यार्थी एक अद्भुत व्यक्तित्व…

भारत की स्वतंत्रता के लिए यहाँ अवतरित तरुणाइयों के बलिदानों के एक मुख्य भूमिका अमर बलिदानी गणेश शंकर विद्यार्थी जी की भी है, जिन्होंने बिना किसी पद नाम और लाभ की चिंता किए अपना सर्वस्व देश के लिए न्यौछावर कर दिया। आप राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख सेनानी थे। अमर बलिदानी गणेश शंकर विद्यार्थी अपने कार्य और बलिदान से आपने राष्ट्रीय जीवन पर अमिट छाप छोड़ी। ऐसे व्यक्तित्व विरले होते हैं जो मन, वचन, कर्म से एक हो।

गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे ही महापुरुष थे, वे एक समर्थ पत्रकार, समर्पित, राष्ट्रीय सेवक और निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता थे। भारत की स्वतंत्रता का प्रश्न हो अथवा संप्रदाय सौहार्द का या आम जनता के दैनिक जीवन से जुड़े प्रश्न हो विद्यार्थी जी का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट, सुलझा रहता था।

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को आज के प्रयागराज अर्थात इलाहाबाद में अतरसुइया मोहल्ले में अपने नाना मुंशी सूरज प्रसाद जी के घर पर हुआ था। उनके पिता श्री जय नारायण श्रीवास्तव उस समय मुंगावली जिला गुना मध्य प्रदेश के स्कूल में शिक्षक थे। आपकी माता सात्विक विचारों की धनि श्रीमती गोमती देवी का जीवन सरल और धार्मिक था । गणेश जी जब अपनी मां के गर्भ में थे तब उनके नाना जी ने ऐसा स्वप्न देखा कि वे अपनी पुत्री को गणपति भगवान की मूर्ति दे रहे हैं । जब उन्होंने यह स्वप्न अपनी बेटी को सुनाया तो यह निश्चित हो गया कि यदि पुत्र जन्म लेगा तो उसका नाम गणेश ही रखा जाएगा और ऐसा ही हुआ।

गणेशशंकर विद्यार्थी का हिंदू राष्ट्र को खारिज करना किसी दूसरे धर्म का तुष्टिकरण नहीं थाअध्ययन अध्यापन के चलते 7 फरवरी 1960 को उन्होंने कानपुर के करेंसी खजाना में ₹34 मासिक वेतन पर नौकरी प्रारंभ करली और 19 वर्ष की आयु में 4 जून 1909 को आपका विवाह श्रीमती चंद्रप्रकाश से हुआ। आपकी 6 संतानें हुई – हरिशंकर ,कृष्णा ,विमल, ओंकार ,सरला और उर्मिला विद्यार्थी।

विद्यार्थी जी को होम्योपैथिक दवाओं के संबंध में थोड़ी बहुत जानकारियां थे वे दवाई लाकर अपने आस-पड़ोस के लोगों का इलाज सेवा स्वरुप किया करते थे।

विद्यार्थी जी के लेख “कर्मयोगी”, हितवार्ता एवं “अभ्युदय” जैसे क्रांतिकारी समाचार पत्रों में छपने लगे। दिसंबर 1911 को जब जॉर्ज पंचम भारत आए तब विद्यार्थी जी का एक विस्फोटक लेख “हितवार्ता” समाचार पत्र में छपा। इस लेख से आपको बहुत प्रसिद्धि मिली और आपकी जान पहचान देशभक्तों से हुई। प्रसिद्ध समालोचक महावीर प्रसाद द्विवेदी की मासिक पत्रिका में आपने संपादक का कार्य किया।

1 फरवरी 1912 को फिर “सरस्वती” छोड़कर “अभ्युदय” में चले गए। कुछ उत्साही मित्रों के सहयोग से आपने साधन एकत्र करके 25 नवंबर 1918 को एक नया साप्ताहिक प्रताप का प्रथम अंक प्रकाशित किया प्रताप विद्यार्थी जी की अपनी सोच और अपने विचारों का एक प्रतिबिंब था जिनके पीछे लोकमान तिलक और पंडित सुंदरलाल की विचारधारा कार्य कर रही थी । स्वयं विद्यार्थी जी का संपादन, नारायण प्रसाद अरोड़ा जी का प्रबंधन, शिव नारायण मिश्र मुद्रक एवं प्रकाशक हुए। प्रताप के प्रथम अंक से लेकर जब तक प्रताप छपता रहा तब तक उसमें यह पंक्तियाँ बराबर छपती रही-

जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं , नर पशु निरा है और मृतक समान है।।

प्रताप जनता और क्रांतिकारियों का अपना प्रकाशन बन गया। विद्यार्थी जी एक पत्रकार थे और प्रताप उनके विचारों का वाहक । प्रताप विद्यार्थी जी की शक्ति तथा वह हिंदी जगत की श्रद्धा बना, आज प्रताप उनकी शुभ स्मृति है प्रताप नामक राष्ट्रीय मंच से गणेश जी ने कायरों को, अत्याचारों को, देश विद्रोहियों को, महलों को, मुकुट को और स्वार्थियों को लगातार चुनौतियाँ थी। यही कारण था कि धनी को,, देशद्रोहियों और अंग्रेजी शासकों की आंखों में यह खटकने लगा परिणाम स्वरूप उन्हें अर्थ हानि, अपमान और कारागार मिला।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने प्रताप के साथ-साथ क्रांतिकारियों की विविध रूपों में सहायता करके अपना विशेष योगदान दिया । विद्यार्थी जी और प्रताप दोनों क्रांतिकारियों के सहयोगी बने रहे। सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले अमर बलिदानी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रोशन सिंह ठाकुर, रामकृष्ण खत्री आदि का कोई ठोस या नियमित आय स्रोत नहीं था। गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने इनकी आजीविका के साधन जुटाकर सक्रिय और गुप्त सहायता की जिससे भारत माता के स्वतंत्रता रूपी पुनीत संकल्प को साकार किया जा सके।

भगत सिंह को उन्होंने अलीगढ़ जिले के एक विद्यालय में हेड मास्टर बनाया ,वही अशफाक उल्ला खां को अपने कार्यालय में रख लिया। चंद्रशेखर आजाद को बिना बताए उनके चचेरे भाई मनोहर तिवारी द्वारा उनके माता-पिता के गुजारे हेतु आर्थिक सहयोग भी वह प्रदान करते थे।

संकट की घड़ी में क्रांतिकारियों की सहायता हेतु सदैव तत्पर थे । काकोरी कांड के बाद अशफाक जी को उन्होंने अपने यहाँ शरण दी थी। फांसी लगने के ठीक एक दिन पूर्व विद्यार्थी जी को अशफाक जी का तार मिला 19 तारीख को लखनऊ स्टेशन पर मिलिए। यही वो दिन था जब अशफाक को सुबह फाँसी होने वाली थी फिर भला स्टेशन क्यों बुलाया?? लखनऊ स्टेशन पर जब अशफाक जी की लाश लाईतब अशफाक जी का एक पत्र मिला तो सारी बातें स्पष्ट हो गई।

आशफाक जी ने अपने पत्र में विद्यार्थी जी से निवेदन किया था- “मेरे भाई रियासतुल्ला खान क्योंकि गरीब है वह मेरा मजबूत मकबरा नहीं बना पाएंगे इसलिए आपसे निवेदन है ,कि आप मेरी मृत्यु के पश्चात् एक अच्छा पक्का मकबरा बनवा दे। “विद्यार्थी जी ने शहीद की अंतिम इच्छा शाहजहांपुर में मकबरा बनाकर पूर्ण की।

एक ऐसे जन नायक, आदर्श पुंज, निश्चल, पर दु:ख का तार और ऊँचे मानव गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने एक दिन स्वयं को ही देश के लिए आहूत कर दिया। वह हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक थे किंतु भारत के मानव हिंदू मुस्लिम धर्म को मानने वाले पारस्परिक युद्ध के समय कितने नीचे गिर सकते हैं इसकी कल्पना कठिन नहीं है।

25 मार्च सन् 1931 के कानपुर के हिंदू मुस्लिम दंगे में जहाँ खुले आम दिन दहाड़े मारकाट, गृहयुद्ध स्त्री घर्षण, बाल हत्या सब कुछ होता रहा और अंग्रेज सरकार आग में घी डालने का कार्य कर रही थी। उत्तर प्रदेश सहित संपूर्ण भारत में इन दंगों का दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा था। यह आग अब कानपुर में फैल चुकी थी। कानपुर वासी दानव हो गए थे एकमात्र मानव अवशेष शेष थे वह थे गणेश शंकर विद्यार्थी जी। कानपुर के बंगाली मोहल्ले नामक क्षेत्र से 200 मुस्लिम नर नारी बंदी थे विद्यार्थी जी ने प्रातः जाकर आक्रांत हिंदुओं को शांत किया और मुस्लिमों को निकालकर सुरक्षित स्थानों में उन्हें सकुशल पहुँचाया और बंगाली मोहल्ले से सीधे चौबे गोला चल दिए जहाँ मुसलमानों ने हिंदु नर-नारियों और बच्चों को 200 की संख्या में बंदी बनाकर रखा था। यह वही स्थान है जहाँ हिंदू को देखते ही छुरियाँ निकल जाती। जब गणेश जी चौक पहुंचे तो हिंदुओं ने उन्हें आगे जाने से रोका विद्यार्थी जी नहीं रुके। मुस्लिम क्षेत्र में पहुँच चुके थे उनके साथ एक दो हिंदू-मुस्लिम स्वयंसेवक थे बड़े बूढ़े मुसलमानों ने विद्यार्थी जी का स्वागत किया क्योंकि वह जान चुके थे कि इन्होंने मुसलमानों की जान बचाई है। परंतु एक अनियंत्रित मुस्लिम समुदाय वहां पहुंच गया। हिंदू जन सुरक्षित निकाले गए। विद्यार्थी जी से भी चलने को कहा तो विद्यार्थी जी ने कहा- मैं पीठ दिखाकर नहीं आऊँगा । मेरे रक्त से अगर इनकी प्यास बुझती है तो ऐसा ही होगा। उन्मत्त समूह ने उन्हें घेर लिया जिन लोगों को बंगाली मोहल्ले से मुस्लिम लोगों को सकुशल निकाल लाने का समाचार मिला वह चिल्ला रहे थे यह फरिश्ते हैं इन्हें न मारो! पर सुनता कौन है? वार पर वार हुए और मानवता का पुजारी वीरगति को प्राप्त हुआ। तक उनकी आयु 40 वर्ष 7 माह थी।

जब हमने से सुना है, मरने का नाम जिंदगी है।
हम सर पर कफ़न बांधे, कातिल को ढूंढते हैं।।

गणेश शंकर विद्यार्थी की अहिंसा सच्ची अहिंसा थी। अल्प आयु में उन्होंने देश के साथ साथ राजनीति और पत्रकारिता सभी क्षेत्रों में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए। विद्यार्थी जी शांत समय में बेचैन और क्रांति के बीचो-बीच अत्यंत शांत रहने वाले व्यक्ति थे। उनकी प्रखरता के नीचे उनकी कोमलता का सागर हिलोरे लेता था। गणेश जी राष्ट्र के प्रखर पुंज थे । उनके लिए कुछ भी कहना, लिखना सूर्य को दीप दिखाने के समान है। हम मात्र श्रद्धा सुमन ही समर्पित कर सकते हैं। ऐसे महान वीर को मेरा शत शत वंदन?

हम गुजरते हैं तो गुजरते रहे, वतन हमारा आबाद रहे।
हो गिरफ्तार तो हो,पर वतन मेरे आजाद रहे।।

डॉ. नुपूर निखिल देशकर की कलम से