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गालियों, गोलियों और नग्नता के बिना भी सफल फ़िल्में बनी हैं

रवीन्द्र वाजपेयी 

शाहरुख खान की आने वाली फिल्म पठान को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया है । उसका जो एक गीत जारी हुआ उसमें नायिका को भगवा रंग के कम वस्त्रों और उत्तेजक मुद्राओं में नायक के साथ दिखाया गया जिसके प्रति नाराजगी जताते हिन्दू संगठन खुलकर सामने आ रहे हैं । अनेक राजनेताओं और धर्मगुरुओं ने भी विरोध करते हुए सिनेमा गृह जला देने तक की बात कही है । जहाँ भाजपा की सरकारें हैं वहां फिल्म पर रोक लगाने की मांग भी उठ रही है । नायिका दीपिका पादुकोण द्वारा दिल्ली की जे.एन.यू में हुए भारत विरोधी आन्दोलन को दिए समर्थन का हवाला देते हुए उन्हें टुकड़े – टुकड़े गैंग से जुड़ा बताया जा रहा है । विरोध करने वालों का आरोप है कि बेशर्म रंग नामक गीत में दीपिका को भगवा वस्त्र पहनाकर अश्लील दृश्य फिल्माने का मकसद हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाना है और भगवा रंग को सनातन धर्मियों के लिए पवित्र होने से बेशर्म रंग कहना आपत्तिजनक है । दूसरी तरफ फिल्म के बचाव में भी एक वर्ग मुखर है । भगवा कपड़े पहने अन्य नायिकाओं के चित्र दिखाकर कहा जा रहा है कि ऐसा पूर्व में भी होता रहा है किन्तु तब विरोध नहीं हुआ । भाजपा समर्थक कही जाने वाली नायिका कंगना रनौत के बदन उघाड़ू चित्रों के जरिये पठान के विरोधियों पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप भी लगाया जा रहा है । सबसे बड़ी बात ये उठ रही है कि फिल्म सेंसर बोर्ड ने इस तरह के दृश्यों और गाने को अनुमति कैसे दे दी जिससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हैं । पठान समर्थकों का कहना है कि फिल्म का विरोध कर रहे व्यक्तियों और संगठनों को सेंसर बोर्ड के उन लोगों को हटाने की माँग करनी चाहिए जिन्होंने उसको प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र प्रदान किया । ये पहला अवसर नहीं है जब किसी फिल्म का प्रदर्शित होने के पूर्व ही विरोध शुरू हो गया । ऐतिहासिक कथानक पर बनी फिल्मों में तथ्यों को गलत तरीके से पेश करने पर बवाल मचता रहा है । कुछ फ़िल्में इसलिए विरोध का शिकार हुईं क्योंकि उनकी कहानी सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध थी । अश्लीलता का अतिरेक भी लोगों को नागवार गुजरा है । इसमें दो मत नहीं है कि फ़िल्म उद्योग के कुछ पटकथा लेखक , निर्देशक और अभिनेता जान बूझकर ऐसी फ़िल्में लेकर आते हैं जिन पर विवाद पैदा होता है । पठान का जो गीत और दृश्य प्रसारित किये गये उनसे इस बात का संदेह होता है कि सोच – समझकर ऐसा किया गया । अनेक निर्माता उन दृश्यों और संवादों को हटा देते हैं जिन पर ऐतराज किया जाता है । जोधा – अकबर फिल्म के निर्माताओं ने करणी सेना वालों को फिल्म दिखाकर उनके सुझाये फेरबदल कर दिए । हालांकि विवादित हुई कुछ फ़िल्में जब बिना बदलाव किये ही प्रदर्शित हुईं तब उन्हें दर्शक नहीं मिले जबकि कुछ अपेक्षा से ज्यादा सफल रहीं । कुल मिलाकर मामला बड़ा पेचीदा है । पठान फिल्म को भाजपा शासित राज्यों में भले ही विरोध झेलना पड़े लेकिन जिन राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं वे उसे पूरा समर्थन और संरक्षण प्रदान करेंगीं ये भी तय है । इस प्रकार विरोध और समर्थन का ये मुकाबला हमारे समाज की पहिचान बनता जा रहा है जिसका लाभ फिल्म निर्माता उठा लेते हैं । उदाहरण के लिए बाबा रामदेव को समाज के बड़े वर्ग का समर्थन मिलने से उनके व्यावसायिक कारोबार को भी जबर्दस्त सहारा मिला । लेकिन इसी कारण वे दूसरे तबके के लिए उपहास और नफरत का पात्र बने । ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि फ़िल्मी दुनिया में लम्बे समय तक एक विचारधारा विशेष का आधिपत्य रहा । विशेष तौर पर पटकथा, गीत और संवाद लेखन में कथित प्रगतिशील लोग हावी थे । कुछ अभिनेताओं, निर्माताओं और निर्देशकों के राजनीतिक प्रतिबद्धता के प्रति समर्पित होने से फिल्मों पर उनका असर साफ़ नजर आता रहा । अस्सी के दशक के साथ ही फिल्मों में माफिया का प्रवेश हुआ जिससे फिल्म निर्माण का स्वरूप और संस्कृति पूरी तरह बदल गई । समानांतर सिनेमा के नाम पर होने वाले प्रयोग नग्नता को कला का पर्याय बताने में जुट गए । सेंसर नामक केंची की धार दिन ब दिन भोंथरी होती जाने से उसका रहना न रहना बराबर हो गया । कुल मिलाकर सारा खेल येन केन प्रकारेण पैसा बटोरना रह गया है । रही – सही कसर पूरी कर दी छोटे परदे पर ओ.टी.टी के पदार्पण ने, जिसमें वास्तविकता के नाम पर अश्लीलता परोसने का अभियान चल पड़ा है । गालियों और गोलियों की बौछारों से भरी ये श्रृंखलाएं मनोरंजन के नाम पर कौन सा सन्देश दे रही हैं ये फिल्म समीक्षकों के ही नहीं अपितु समाजशास्त्रियों के लिए भी चिंतन – मनन का विषय है । टीवी पर मनोरंजन का दौर जिन धरावाहिकों से शुरू हुआ वे पारिवारिक माहौल को पेश करने के कारण लोकप्रिय हुए जिन्हें तीन पीढ़ियों के लोग एक साथ देखते थे । लेकिन आज छोटा पर्दा जो परोस रहा है उसमें अधिकतर की विषय वस्तु वयस्कों के लिए ही है । लेकिन सभी वयस्क गंदी गालियों को सुनना पसंद करते हैं ,ये पूरी तरह गलत है । सबसे बड़ी बात ये है कि समाज की सोच को विकृत करने की साजिश पर विराम कैसे लगाया जाए ? फिल्म उद्योग में बॉक्स आफिस फार्मूला बहुत महत्वपूर्ण होता है । निर्माता को अपने निवेश की चिंता रहती है तो कलाकारों को छवि की । लेकिन अनेक निर्माता – निर्देशक और अभिनेता ऐसे भी हुए जिन्होंने बिना बॉक्स आफिस की फ़िक्र किये साधारण बजट से ऐसी असाधारण फ़िल्में बनाईं जिन्होंने लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित कर डाले । शाहरुख खान को फिल्म उद्योग में आये चौथाई सदी से ज्यादा बीत चुका है । लेकिन आज तक वे एक भी ऐसी भूमिका में नहीं दिखे जो उन्हें कालजयी बना सके । ऐसा नहीं है कि प्रयोगधर्मी फ़िल्में पहली नहीं बनीं किन्तु उनमें सामाजिक मर्यादाओं का ध्यान रखा गया । वयस्क कथानक पर भी अनेक फ़िल्में आईं किन्त्तु उनमें से एक भी बिमल रॉय, गुरुदत्त , हृषिकेश मुखर्जी और वासु भट्टाचार्य की फिल्मों के सामने नहीं ठहरीं । गुलज़ार ने भी फिल्म रूपी माध्यम का बहुत ही करीने से उपयोग किया और सितारा अभिनेताओं के साथ कम बजट में बेहतरीन और सफल फ़िल्में बनाईं । आशय मात्र इतना है कि फ़िल्में केवल मनोरंजन और पैसा कमाने का जरिया न होकर समाज को संदेश देने का माध्यम भी है । अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को भी ये सोचना चाहिए कि उनके भी कुछ सामाजिक सरोकार हैं । ध्यान रहे दादा कोडके जैसे फिल्मकारों पर विस्मृति की धूल जम चुकी है जबकि व्ही. शांताराम का नाम उनके अवसान के दशकों बाद भी आदर के साथ लिया जाता है ।

लेख़क –
मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस के संपादक है
संपर्क सूत्र – 9425154295