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छतरपुर के विस्‍मृत योद्धा देसपत बुन्‍देला

भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम – 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसे अनगिनत योद्धाओं ने अपना सर्वोच्‍च बलिदान दिया, जिनका उल्‍लेख इतिहास के पन्‍नों में नहीं है। देश अपने नायकों से अनभिज्ञ है। उन्‍हीं गुमनाम नायकों में से एक हैं – छतरपुर के योद्धा देसपत बुन्‍देला।

स्‍वतंत्रता संग्राम – 1857 के विस्‍मृत वीर नायक देसपत बुन्‍देला बुन्देलखण्ड के प्रख्‍यात महाराजा छत्रसाल बुन्देला के वंशज थे। इस संग्राम में उनके भाई नन्हे दीवान भी सक्रिय रहे।

पहाडि़यों से घिरा झीझन नामक स्‍थान देसपत का महत्‍वपूर्ण केन्‍द्र था। उनकी तेज गतिविधियों से हताश अंग्रेजों ने उनके पीछे अपनी पूरी मशीनरी लगा दी थी, जिसके बाद वे किशनगढ़ के जंगलों में रहकर भी स्‍वतंत्रता का अलख जगाते रहे।

छतरपुर रियासत में देसपत बुन्‍देला उच्‍च अधिकारी थे। महाराज जगतराज की कम आयु के कारण रीजेन्‍ट रानी ने उन्‍हें रियासत का अधिकारी चुना था। देसपत के पिता का नाम नरपत सिंह था।

देसपत के पिता छतरपुर की रानी के बड़े चाचा थे, इस प्रकार देसपत रानी के भाई भी थे। अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर देसपत को रानी का भरपूर सहयोग प्राप्‍त था। उन्‍होंने विश्वसनीय ठाकुरों से भी कह रखा था कि देसपत को सहयोग देते रहें।

जालौन के प्रख्यात क्रांतिकारी बरजोर सिंह भी देसपत बुन्देला को सहयोग करते रहे।

हमीरपुर जिला पर देसपत का नियंत्रण था। जिले में उनके गार्ड व गुप्‍तचर भी नियुक्‍त थे। श्रीनगर, नौगाँव, अलीपुरा, और जैतपुर में देसपत तीव्र गति से सक्रिय रहे। झीझन और कारी पहाड़ी उनके विश्राम स्‍थल थे।

अंग्रेजों के विरुद्ध देसपत की गतिविधियों से जागरूक होकर 10 जून, 1857 को नौगाँव की 12वीं बंगाल देशी फौज के सिपाहियों ने अंग्रेजों का प्रतिकार कर दिया और देसपत के साथ हो लिये।

लॉर्ड डलहौजी ने 1849 में राजा पारीछत की जैतपुर की रियासत को ब्रिटिश साम्राज्‍य के अधीन कर लिया था। जब यह बात देसपत के संज्ञान में आयी, उन्‍होंने रानी फत्तनवीर देवी का सहयोग किया।

06 सितम्‍बर, 1857 को झीझन के पास से चरखारी जाते हुए बिजावर के राजा ने देसपत बुन्देला की टोली में लगभग 1500 सैनानियों को देखा था। देसपत की सेना में गोंड, ठाकुर आदि थे।

महोबा के डिप्‍टी कमीश्‍नर का पत्र :-

अंग्रेज देसपत बुन्‍देला की सक्रियता और उनके साथ हजारों की संख्‍या में सेनानियों को देखकर खौफ में थे। बिजावर के राजा को 06 सितम्‍बर, 1857 को डिप्‍टी कमीश्‍नर (महोबा) के लिखे पत्र से अंग्रेजों के भीतर खौफ और देसपत की गतिविधियों का अंदाजा लगाया जा सकता है – ‘जल्‍दी फौज और तोपें भेजें, क्‍योंकि पोलिटिकल एजेंट चाहता है कि जल्‍दी ही देसपत को बन्‍दी बना लिया जाये।’

लक्ष्‍मीबाई व देसपत :-

झाँसी किला पर आक्रमण के उद्देश्‍य से नौगाँव व नागौद से आने वाली ब्रिटिश फौज से लोहा लेने में देसपत बुन्‍देला ने रानी लक्ष्‍मीबाई का सहयोग किया। इस लड़ाई में अंग्रेजों को छावनी छोड़कर भागना पड़ा था।

देसपत का केन्‍द्र केवल झीझन इलाका ही नहीं था। अपितु, उनका अभियान हमीरपुर, राठ, पनवाड़ी, नौगाँव, राजनगर, छतपुर, बिजावर, किशनगढ़ बक्सवाहा और हारापुर तक था। हमीरपुर पर तो उनका संपूर्ण नियंत्रण था।

चरखारी अभियान में भूमिका :-

तात्‍या टोपे के नेतृत्‍व में चलने वाला प्रख्‍यात चरखारी अभियान ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। जनवरी-फरवरी, 1858 में तात्या टोपे के इस अभियान में देसपत बुन्‍देला भी कूद पड़े।

तात्‍या टोपे व देसपत ने चरखारी के राजा को बुरी तरह पराजित किया था और 03 लाख रुपये भी लेकर लौटे थे। चरखारी के राजा अंग्रेजों से मिल चुके थे, जो स्‍वतंत्रता की राह में रोड़ा का काम कर रहे थे।

चरखारी युद्ध में सफलता हासिल करने के बाद तात्‍या टोपे व देसपत बुन्‍देला 27 मार्च, 1858 को मऊरानी पहुँचे, यहाँ दोनों अपने 4000 सैनिकों के साथ डटे रहे।

19 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्‍त हो गयीं। 05 जुलाई, 1858 को मर्दन सिंह व 06 जुलाई, 1858 को शाहगढ़ के बखतबली ने आत्‍मसमर्पण कर दिया। एक-एक करके अपने विश्‍वसनीय को खोने के बावजूद देसपत बुन्‍देला हिम्मत नहीं हारे। उन्‍होंने तीव्र वेग से अंग्रेजों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा।

अगस्त, 1858 में अंग्रेज सरकार ने देसपत व उनके सेनानियों को पकड़ने के लिये श्रीनगर और झीझन की ओर से घेरने की कोशिश की थी, लेकिन वह बच निकले। 04 अक्टूबर, 1858 को क्रांतिकारियों के खटोला की पहाड़ियों विचरणे की जानकारी इतिहास ग्रंथों में है।

देसपत का दल :-

देसपत के पास चार डिवीजन में कुल 11-12 हजार सेनानी थे। उनके साथ 3000 गोंड सैनिक थे। गोंडों के अतिरिक्‍त बुन्देला ठाकुर भी थे। यही वह शक्‍ति थी, जिसके बल पर देसपत अंग्रेजों पर काल की तरह मंडराते थे।

महारानी विक्‍टोरिया के पत्र को लगा दी आग :-

भारतीय क्रांतिकारियों से इंग्‍लैंड में बैठी महारानी विक्‍टोरिया भी भयभीत थीं। 01 नवंबर, 1858 को महारानी विक्‍टोरिया ने क्रांतिकारियों से समर्पण करने हेतु आह्वान किया। वहीं, उसने घोषणा की कि आत्‍मसमर्पण करने पर क्षमादान दिया जायेगा।

तत्‍कालीन ‘बॉम्बे स्टैण्डर्ड’ पत्र के अनुसार- देसपत बुन्‍देला श्रीनगर (जैतपुर) में थे। रानी विक्‍टोरिया का पत्र जब उनके पास पहुँचा, वे हुक्‍का पी रहे थे। उन्‍होंने उस पत्र को अपने चिलम में रख दिया और हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। रानी विक्‍टोरिया के नाम से जारी वह पत्र देसपत की चिलम से उठी ज्‍वाला में खाँक हो गया। अर्थात् रानी विक्टोरिया के प्रस्ताव को मानने से इन्‍कार कर देसपत भारतीय स्‍वतंत्रता हेतु क्रांति की राह चुने।

अंग्रेज अधिकारी डिलियर्ड से मुठभेड़ :-

क्रांतिकारियों की खोज में 05 जनवरी, 1859 को अंग्रेज कप्तान डिलियर्ड (मद्रासी टुकड़ी के साथ) जैतपुर इलाके में बगौरा गाँव के पास आ पहुँचा था। यहाँ अंग्रेज अधिकारी और देसपत के दल के साथ मुठभेड़ हुई थी, जिसमें 30 क्रांतिकारियों ने सवोच्‍च बलिदान दिया। क्रांति‍कारियों के 46 घोड़े, चार ऊँट और दो तोपें अंग्रेजों के हाथ लगे।

अंग्रेजों में भय का आतंक :-

09 मार्च, 1859 को पश्चिमोत्तर प्रांत के शासन के असिस्टेंट सैक्रेटरी द्वारा सेनानायक को लिखे पत्र से भी अंग्रेजों के भीतर व्‍याप्‍त भय का अंदाजा लगया सकता है, जिसमें लिखा था- ‘देसपत से एक भयानक राजनीतिक संकट उत्पन्न हो सकता है। उनकी संख्या इतनी अधिक है कि मिलिट्री पुलिस तथा रीवा राज्य की फौज में इतनी क्षमता नहीं है कि उसे हटा सके। प्रशिक्षित तथा सुसज्जित हमारी फौज शायद ही देसपत के सामने टिक सके।’

देसपत की गिरफ्तारी के संदर्भ में कुछ तथ्‍य :-

पश्चिमोत्तर प्रांत की सरकार के सचिव ने अंग्रेज सरकार को अपने पत्र (02 अप्रैल, 1859) में लिखा- ‘छतरपुर की रानी से कहा जाए कि वह देसपत को पकड़कर उन्हें उनके सुपुर्द करें।’

पत्र में यह भी लिखा गया कि ‘जब नौगाँव से जून, 1857 में अंग्रेज भागकर छतरपुर रुके, तब छतरपुर के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की सहायता एवं आवास में बाधा पैदा की थी। इस कारण छतरपुर रियासत को जब्त कर लिया जाये।’

देसपत बुन्‍देला व उनके सहयोगियों को छतरपुर की रानी गुपचुप तरीके से सहायता करती थीं, जिसकी जानकारी ब्रिटिश सरकार को थी।

देसपत को समर्पण कराने हेतु गवर्नर जनरल का एजेंट छतरपुर की रीजेंट रानी और गरौली के जागीरदार से सलाह-मशविरा करने सितम्बर, 1859 में छतरपर आया था।

एजेंट ने रानी पर जोर डाला कि देसपत को छतरपुर राज्य में किसी प्रकार का आश्रय न दिया जाए। इस सिलसिले में फतेहपुर तथा कानपुर से एक बड़ी फोर्स बुलाई गई थी।

देसपत की गिरफ्तारी के लिये जैतपुर में एक विशाल थाना स्थापित किया गया था। इलाके के ऊबड़-खाबड़ मार्गों को भी ठीक कराया गया था, ताकि अंग्रेजी फौज आसानी से आ-जा सके।

सन 1859 की गर्मियों में देसपत अपने बल पर शाहगढ़ रियासत के फतेहपुर इलाके पर कब्जा कर लिये थे। उनके अभियान का दायरा किशनगढ़, बक्सवाहा तक ही नहीं था। वे और उनके क्रांतिकारी साथी सागर जिले के मालथौन और धामौनी तक भी धावा बोलते थे।

जून, 1859 में देसपत, बरजोर सिंह और छतर सिंह अपने पाँच सौ साथियों सहित गुरसराय इलाके में थे। अंग्रेजी फौज का समाचार मिलते ही वे गुरसराय से मऊरानीपुर होते हुए धसान नदी को पार करते हुए आलीपुरा की ओर बढ़े, इधर अंग्रेज कप्तान डायर्स व मेजर डेविस की फौजों ने उन्‍हें घेर लिया। 19 जून को क्रांतिकारियों व अंग्रेजों के बीच भीषण लड़ाई हुई, जिसमें 12 सेनानी बलिदान हुए।

किशनगढ़ इलाके के जंगल में पहाड़ी पर आश्रय लिये क्रांतिकारियों पर 06 अक्टूबर, 1859 को ले. प्राइमरोज व ले. अलेक्जेंडर ने हमला किया। इसमें क्रांतिकारियों को कोई हानि नहीं हुई। यहाँ देसपत के साथ नौनेजू, मुकुन्द सिंह और फरजंद अली भी थे।

देसपत को गिरफ्तार करने हेतु ले. प्राइमरोज 12 अक्टूबर, 1859 को हटा पर पड़ाव डाला था। यहाँ कुल लगभग 1200 क्रांतिकारी थे। 13 अक्टूबर को एक बड़ी अंग्रेजी सेना किशनगढ़ आ गयी थी।

देसपत को घेरने हेतु चप्‍पे-चप्‍पे तैनाती :-

बिजावर इलाके के सभी महत्त्वपूर्ण घाटों पर अंग्रेज फौज तैनात कर दी गई थी। प्रत्‍येक घाट पर 50 से 100 सिपाही तैनात थे।

छतरपुर, सागर मार्ग पर शाहगढ़ के घोर जंगल और घाटियों के बीच बाजना मुकाम पर शक्तिशाली सेना टुकड़ियाँ तैनात थीं।

कमांडिंग ऑफीसर 500 सिपाहियों के साथ 21 अक्टूबर, 1859 को सिलानी पहुँच गया था।

नागौद का पोलिटिकल असिस्टेंट डॉ. स्ट्रेटन भी मलारी व महोबा से फौज के साथ किशनगढ़ आ रहा था।

झाँसी से अंग्रेजों की एक फौज बुलाई गई थी। इसमें 3000 अंग्रेज सिपाही, चार-पाँच तोपें तथा बहुत से ऊँट थे।

अंग्रेजी फौज की टुकड़ियाँ हीरापुर, सड़वा, कनौवरा में पड़ाव डाले हुए थीं। दूसरी ओर बक्सवाहा, मड़ियादो और फतेहपुर में भी अंग्रेजी फौज का जमाव था।

देसपत और उसके सहयोगियों को चारों ओर से घेर लिया गया था।

23 अक्टूबर, 1859 को सिलापरी तथा गोपालपुरा में क्रांतिकारियों पर कर्नल प्राइमरोज ने धावा बोल दिया था, जिसमें आठ-दस क्रांतिकारी बलिदान हुए थे।

अंग्रेजों के भय से ग्रसित ग्राम सिलापरी तथा गोपालपुरा के मुखिया जमीदारों ने देसपत को मदद नहीं पहुँचाई थी।

देसपत को गिरफ्तार करने में असफल अंग्रेजों ने बिजावर रानी को लिखा कि वह 1000 फौज़ दें। अंग्रेजों ने महाराज पन्ना से 1500 तथा चरखारी राजा से 2000 सैनिक की माँग की।

हजारों-हजार सिपाहियों की अंग्रेजी फौज देसपत को धर दबोचने के लिए पर्याप्त थी। वे झीझन के जंगल में थे। अंग्रेजों की योजना थी कि चरखारी की फौज जैतपुर और अजयगढ़ की ओर से दक्षिण की ओर बढ़ेगी। दक्षिण से बिजावर की फौज चरखारी की दिशा में बढ़ेगी।

देसपत की सूचना देने वालों को पुरस्‍कार की घोषणा :-

देसपत को पकड़वाने के लिये ब्रिटिश सरकार ने 5000 रुपये और उनके दबाव में छतरपुर की रीजेंट रानी ने पाँच 500 रुपये व एक गाँव की घोषणा की थी।

पश्चिमोत्तर प्रान्त की अंग्रेज सरकार भी 1000 रुपये की धनराशि की घोषणा कर रखी थी।

बलिदान :-

दो जमादारों ने क्रांतिकारी देसपत बुन्‍देला की जानकारी अंग्रेज अधिकारियों को दी थी।

मुखबिरी से प्राप्‍त सूचनाओं के आधार पर मिहीलाल पुरोहित और ठाकुर विक्रमाजीत ने 03 दिसम्बर, 1862 को नौगाँव से कुछ मील दूर देसपत की हत्‍या कर दी थी।

एक क्रांतिकारी देसपत बुंदेला की हत्‍या के बदले मिहीलाल को जागीर में मातौल गाँव व विक्रमाजीत को लखेरी गाँव मिला। ऐसा अनेक क्रांतिकारियों के साथ हुआ कि उनके साथ कुछ ऐसे लोग थे, जिन्‍होंने धन की लालच में उन्‍हें धोखा दिया। अपनी मातृभूमि व क्रांतिकारियों के साथ छल किया।

देसपत के बलिदान के बाद उनके भाई नन्हे दीवान व भतीजा रघुनाथ सिंह ने संग्राम की बागडोर सम्हाल ली थी। नन्हे दीवान 10 अक्टूबर, 1865 को वीरगति को प्राप्‍त हुए।

लेखक – डॉ. सुरेश मिश्र