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“निर्गुण और सगुण के मध्य भक्ति की धारा के आदि कवि संत नामदेव”

मध्य काल में भारत की संत परंपरा का केंद्र काशी तथा भक्ति परंपरा का केंद्र वृंदावन बना, उसी प्रकार महाराष्ट्र में पण्ढरपुर भी संत और भक्ति परंपरा का केन्द्र बना।पंढरपुर के संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के समाधि ले लेने के बाद महाराष्ट्र से पंजाब चले गए। प्रारंभ में संत नामदेव ने बिसोबा खेचर को अपना गुरु मान लिया किंतु संत बिसोबा ने भी संत नामदेव को पुनः संत ज्ञानेश्वर के पास ही वापस भेज दिया। संत नामदेव की आस्था संत ज्ञानेश्वर के ऊपर प्रगाढ़ होती चली गई। संत नामदेव उनकी छाया की तरह ज्ञानेश्वर के साथ रहने लगे। संत ज्ञानेश्वर ब्राह्मण थे किंतु संत नामदेव के चरण स्पर्श करते थे। इस घटना ने महाराष्ट्र के सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला इस प्रकार संत समाज के उत्कृष्ट आचरण तथा विनम्रता ने वारकरी संप्रदाय के भक्तों को गहराई से प्रभावित किया। संत ज्ञानेश्वर द्वारा समाधि लेने से संत नामदेव का अंतर्मन दुखी हो गया और पंढरपुर से उनका मन हट गया था। अतः उन्होंने पंजाब जाने का निर्णय लिया क्योंकि उत्तर भारत में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर आक्रमण बढ़ते जा रहे थे। ऐसी स्थिति में सर्वत्र अराजकता और निराशा व्याप्त हो रही थी और इस्लामिक धर्मोन्माद पैर पसार रहा था। इसलिए संत नामदेव भक्ति जागरण का संदेश लेकर निर्गुण सगुण, शैव – वैष्णव को एक ही मानते हुए उत्तर भारत की ओर प्रस्थान किया और निरंतर भ्रमण करते हुए सनातन धर्म की पताका संभाली और हिन्दू समाज को संगठित किया। उनके साथ उनकी कीर्तन मंडली भी चली उन्होंने 20 वर्षों तक पंजाब का भ्रमण किया। संत नामदेव ने करताल और एकतारा बजा कर मधुर सुर में अभंग गाते थे।पंजाब में घुमाण नामक स्थान पर बाबा नामदेव जी के नाम पर एक गुरुद्वारा आज भी है।

श्री गुरुग्रंथ साहिब में संत नामदेव के साठ शबद सम्मिलित किए गए हैं। संत नामदेव का मन भक्ति भाव से भजन करने में ही लगा रहता उनके लिए विट्ठल, शिव, विष्णु, पांडुरंग, सभी एक ही हैं। सभी प्राणियों के अंदर एक ही आत्मा है।

पंजाब की संत परंपरा में नामदेव प्रथम संत कहे जा सकते कहे जाते हैं जिन्होंने निर्गुण भक्ति शाखा का दीप प्रज्वलित किया और उसे सूर्य के भाँति श्री गुरुनानक देव ने फैलाया।

जातिगत विद्वेष से अपमानित होने के बावजूद उन्होंने जाति पांति का पूर्णता निषेध किया और समरसता का संदेश फैलाया। धीरे-धीरे संत नामदेव प्रकाश स्तंभ के रुप में स्थापित हो गए। संत नामदेव भक्तों को भाई कहकर संबोधित करते थे और राम नाम की महिमा का बखान करते थे। राम नाम के समक्ष सारे जप – तप, यज्ञ, हवन, योग, तीरथ व्रत आदि धूमिल हैं। राम नाम से इनकी तुलना नहीं की जा सकती। उनका कहना है कि-

“भैया कोई तुलै रे रामाँय नाँम।

जोग यज्ञ तप होम नेम व्रत।

ए सब कौंने काम।।

संत नामदेव को कतिपय लोग निर्गुण उपासक मानते हैं, किंतु उनका तीर्थों में विश्वास भी कम नहीं है, यथा –

त्रिवेणी पिराग करौ मन मंजन।

सेवौ राजा राम निरंजन।।

संत नामदेव प्रारंभ में निर्गुण भक्ति वाले संत कहे जाते थे किंतु आगे चलकर सगुण और निर्गुण के मध्य की धारा प्रवाहित करने वाले संत के रुप में भी स्थापित हो गए। श्री गुरु नानक देव से दो सौ वर्ष पूर्ण संत नामदेव ने पंजाब में सिक्ख गुरुओं के भक्ति जागरण हेतु सामाजिक समन्वय की व्यापक पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी।

भारत में आपके लाखों अनुयायी हैं तथा गर्व के साथ अपने नाम के आगे नामदेव लगाते हैं। संत नामदेव ने मराठी में अभंग तथा हिंदी में भी पदों की रचना की है। संत कबीर तथा संत रविदास आदि सभी ने इनकी महिमा का गान किया है। संत रैदास कहते हैं कि “नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनू तरे।

कहि रविदास सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै।।

अर्थात् नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, सेन आदि सभी पार उतर गए हैं। रविदास कहता है कि संत जनों ध्यान से सुन लो कि वह प्रभु सब कुछ कर सकता है।

संत नामदेव उस ब्रह्म की साधना में लग रहे, जो सर्वत्र व्याप्त है और अंत में हिन्दू धर्म की विजय पताका लिए देशाटन करते हुए पंजाब के घुमाण में आपको मोक्ष को प्राप्त हुआ।

श्री गुरुग्रन्थ साहिब में भी सन्त नामदेव के 60 शबद यानि भजन समाहित किए गये हैं। उनका एक दृष्टांत गागर में सागर भर देता है कि-

“एकल माटी कुंजर चींटी भाजन हैं बहु नाना रे॥

असथावर जंगम कीट पतंगम घटि-घटि रामु समाना रे॥

एकल चिन्ता राखु अनंता अउर तजह सभ आसा रे॥

प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे॥ (श्रीगुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 988)

वे कहते हैं कि ‘हाथी और चींटी दोनों एक ही मिट्टी के वैसे ही बने हैं जैसे एक ही मिट्टी के बर्तन अनेक प्रकार के होते हैं। एक स्थान पर स्थित पेड़ों में, दो पैरों पर चलने वालों में तथा कीड़े-पतंगों के घट-घट में वह प्रभु ही समाया है। उस एक अनन्त प्रभु पर ही आशा लगाए रखो तथा अन्य सभी आशाओं का त्याग कर दो। “संत नामदेव की रचनाएँ इतनी सरल, सहज और सुबोध हैं कि उन्हें निर्गुण – सगुण धारा के सेतु पर भक्ति काव्य के आदिकवि के रुप भी शिरोधार्य किया जाता है।

डॉ. आनंद सिंह राणा