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जगतगुरु आदिशंकराचार्य और उनकी मठ परम्परा…!

भारत में जब सनातन धर्म का क्षय हो रहा था, तब धर्म की पुनर्स्थापना के लिए केरल की पवित्र भूमि के कलाड़ी ग्राम में ई 507, युधिष्ठिर संवात् 2631 को वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन, संतान सुख के लिए शिवोपासना में लीन ब्राह्मण दंपत्ति शिव गुरु भट्ट एवं आर्याम्बा के घर भगवान आदि देव महादेव अवतरित हुए।

क्योंकि “इससे पूर्व भगवान शिव ने आर्याम्बा को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि मैं अंश अवतार के रूप में आपके यहाँ जन्म ले रहा हूँ। इसीलिए इस तेजस्वी बालक का नाम शंकर रखा गया।”

जब रात्रि घोर अंधकारमय होती है तो निश्चित ही शीघ्र भोर होने का संकेत मिलता है। भारत की संस्कृति, सनातनी संस्कृति है जो प्राचीन और अर्वाचीन के साथ साथ वैज्ञानिक, तार्किक, दार्शनिक और आध्यात्मिक है। इसे पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए भगवान आदि गुरु शंकराचार्य जी शिव अंश के रूप में अवतरित हुए थे।

अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्‌ ।
षोडशे कृतवान्‌ भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात्‌ ॥

अर्थात् 8 (आठ) वर्ष की आयु में चारों वेदों का अध्ययन, 12 (बारह) वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत ,16 (सोलह) वर्ष की आयु में शंकर भाष्य की रचना और 32 (बत्तीसवें) वर्ष की आयु वेद उपनिषद् आदि को संपूर्ण भारत में पुनः स्थापित कर भगवान आदिशंकराचार्य ब्रह्मलीन हो गये।

शास्त्रार्थ : वाद-विवाद का प्राचीन तरीका — बिहार डायरीयह सभी असंभव कार्य आपने अपनी अल्प आयु में संपन्न किए। इतनी अल्प आयु में आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन करना किसी भी लेखनी के सामर्थ्य में नहीं है।

आदिगुरु शंकराचार्य जी ने चार्वाक, जैन ,बौद्ध मतो के अनुयायियों से शास्त्रार्थ करके सनातन धर्म में सम्मिलित किया और सनातन मतानुयायियों को संतुष्ट कर मार्गदर्शित किया।

त्रेता युग में ब्रह्मा, विष्णु महेश के अंश अवतार भगवान श्री दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों द्वारा अपने शिष्यों और मतावलंबियों का उद्धार किया, द्वापर युग में भगवान श्री हरि विष्णु के छठे अवतार, भगवान वेदव्यास जी ने वेदों , ब्रह्म सूत्रों, पुराणों, महाभारत की रचना करके सनातन संस्कृति के आध्यात्मिक प्रभाव को निरंतरता प्रदान की और कलयुग में भगवान महादेव के अंश अवतार भगवान आदिगुरु शंकराचार्य जी ने वेदव्यास जी द्वारा रचित ग्रंथों को सरल रूप में रूपांतरित कर सनातन धर्म को सुदृढता से भारत भूमि में पुनः स्थापित किया।

अद्वैत और द्वैत मतों का समन्वय होने के कारण भगवान आदिगुरु शंकराचार्य एक श्रेष्ठ समन्वयवादी अवतार पुरुष थे। आपने निराकार ब्रह्म की उपासना करके अद्वैत चिंतन पर अध्यात्म रचनाओं को संपादित करके भारत के दार्शनिक चिंतन को पुनर्जीवित किया वहीं बद्रिकाश्रम में भगवान बद्रीनाथ जी श्रृंगेरी मठ में काष्ठ की माता सरस्वती जी की प्रतिमा को स्थापित करके भारतीय जनमानस को मूर्ति पूजन की सात्विक सनातनी आस्था से जोड़े रखा।

एक ओर पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन करके धर्मदंड धारियों के जीवन को अनुशासन प्रदान किया , वहीं परकाया में प्रवेश कर कामशास्त्र का अनुभव लेकर भारत की देव परंपरा को प्रमाणित किया तथा गृहस्थ आश्रम की उपयोगिता को स्वीकार किया। आपने सन्यासियों और गृहस्थों के जीवन का सामंजस्य बनाकर भारतीय जनमानस में धर्म को पुनर्स्थापित किया।

संपूर्ण भारत को एकात्म दर्शन से बाँधकर रखने के लिए भारत के पूर्व,पश्चिम, उत्तर,दक्षिण चारों दिशाओं में एक-एक मठ की स्थापना कर चार धाम स्थापित किए और भारत के विभिन्न पवित्र स्थलों में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना करके भारत की आध्यात्मिक चेतना को जनमानस में समाहित कर दिया।

भारत की वैदिक परंपरा को निरंतरता प्रदान करने के लिए आपने अपने चारों मठों को एक-एक वेद के अनुसार उनकी आम् – ना निर्धारित की और उन वेदों के उपनिषद से सूत्र वाक्य को लेकर महावाक्य प्रदान किया। भारत के चार धामों में स्थापित चार मठों के चार महावाक्य का मूल सार जीवआत्मा को परमात्मा से जोड़ना है।

आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित चार धामों के चार मठों का संक्षिप्त विवरण इस तरह है-

उत्तराम्ना -भारत के उत्तर में ज्योतिर्मठ की स्थापना की गई। यहाँ का वेद “अथर्व वेद’ है और महावाक्य “अयआत्मा ब्रह्म”। यहाँ के देवता नारायण श्री बद्रीनाथ जी हैं और देवी पूर्णागिरी देवी ,गोत्र -भृगु है। यहाँ की दण्डी सन्यासी अपने नाम के साथ गिरी, पर्वत, सागर आदि विशेषण का प्रयोग करते हैं ।

इस मठ के प्रथम आचार्य त्रोटाकाचार्य जी महाराज थे, इनका पूर्व का नाम गिरी था। आप आदि शंकराचार्य महाराज के चार मुख्य शिष्यों में से एक थे। इस मठ की स्थापना युधिष्ठिर संवात् 2641 से 2645 के मध्य की गई।

पूर्वाम्ना- भारत के पूर्व में गोवर्धन मठ की स्थापना की गई ,जो जगन्नाथपुरी में स्थापित है। इस मठ का वेद ऋग्वेद , महावाक्य “प्रज्ञानं ब्रह्मा” , देवता जगन्नाथ भगवान, देवी विमलादेवी, तीर्थ महोदधि ,गोत्र कश्यप है।

यहाँ के सन्यासी अपने नाम के पश्चात वन, अरण्य आदि सम्प्रदाय विशेषण का प्रयोग करते हैं। इस मठ के प्रथम आचार्य पद्मापादाचार्य जी महाराज थे। आपका पूर्व का नाम सनंदन था। आप भगवान आदि शंकराचार्य जी के मुख्य चार शिष्यों में दीक्षित प्रथम शिष्य थे। इस मठ की स्थापना युधिष्ठिर संवात् 2655 में की गई थी।

दक्षिणाम्ना – भारत के दक्षिण में श्रृंगी ऋषि के आश्रम में भगवान आदि शंकराचार्य जी ने श्रृंगेरी मठ की स्थापना की। अपनी 8 वर्ष की अल्पायु में जब आप गृहस्थ जीवन का त्याग करके सन्यासी जीवन की ओर पदार्पण करते हुए भारत भ्रमण के लिए निकले थे तब सबसे पहले आप ने इसी आश्रम में विश्राम किया था।

आपने इस आश्रम में विपरीत स्वभाव के प्राणियों के मध्य समभाव को देखकर यहाँ अपना धर्मस्थान बनाने का विचार पूर्व में ही कर लिया था। इस मठ का वेद यजुर्वेद है, महावाक्य “अहम् ब्रह्मास्मि”। देवता आदिवाराह, देवी कामाक्षी देवी, गोत्र भूर्भुवः, तीर्थ रामेश्वरम् है।

इस मठ के दण्डी सन्यासी अपने नाम के साथ सरस्वती , भारती , पूरी आदि विशेषण का प्रयोग करते हैं। इस मठ के प्रथम आचार्य सुरेशाचार्य थे, सुरेशाचार्य का पूर्व का नाम मंडन मिश्र था जिनको शास्त्रार्थ में पराजित करके आदि गुरु शंकराचार्य जी ने इन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया था। इस मठ की स्थापना युधिष्ठिर संवात् 2648 में की गई।

पश्चिमाम्ना- भारत के पश्चिम में श्री शारदा मठ स्थापित किया गया , जो गुजरात के द्वारिका में स्थापित है। इस मठ को वेद सामवेद, महावाक्य “तत्वमसि” , देवता सिद्धेश्वर, देवी भद्रकाली, गोत्र अविगत प्रदान किया गया।

इस मठ के दण्डी सन्यासी अपने नाम के साथ तीर्थ या आश्रम सम्प्रदाय नाम विशेषण का प्रयोग करते हैं। हस्तामलकाचार्य महाराज इस मठ के प्रथम आचार्य थे। आप एक जड़ बुद्धि ब्राह्मण पुत्र थे। आपका पूर्व का नाम पृथ्वीधर था।इस मठ की स्थापना युधिष्ठिर संवात् 2648 में की गई।

इन चार मठों के अतिरिक्त भगवान आदि शंकराचार्य ने कांची कामकोटि पीठ की स्थापना की। यहाँ के पीठाधीश्वर को शंकराचार्य की उपाधि प्रदान की जाती है। यहाँ आप अपने जीवन के अंतिम दिनों में रहे। इस मठ की स्थापना 2658 युधिष्ठिर संवात् में की गई।

इस तरह आदि गुरु शंकराचार्य महाराज ने भारत की आध्यात्मिकता को एकात्म के दर्शन से बांधते हुए शैव और वैष्णव संप्रदाय में एकात्म भाव जगाने के लिए चार धाम और बारह ज्योतिर्लिंगों की स्थापना करके उनके पूजन विधान हेतु संविधान अर्थात आम्नाओं का निर्धारण किया।

आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता, ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं – Chandrashekhar Vashistha चंद्रशेखर वशिष्ठ

भारत की आस्था को सुदृढ़ता से स्थापित करते हुए भारत की सनातन धर्म ध्वजा को पुनः विश्व के आकाश में लहरा दिया। निःसंदेह आपका जन्म भारत में भारत के जनमानस के गिरती हुई धर्म आस्था के पुनर्जागरण के लिए हुआ था।

इतनी अल्पायु में आदि गुरु शंकराचार्य जी ने संपूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए, हिंदुओं की सुप्त धर्म चेतना में प्राणवायु का संचार कर उनकी संवेदनाओं को जीवंत किया। इन चारों मठों में अलग-अलग वेदों को स्थापित करके वेदों के अध्ययन अध्यापन की परंपरा को निरंतरता प्रदान की।

एक ओर महावाक्य जीव को ब्रह्म से जोड़ता है वही संप्रदाय विशेषण यहाँ के सन्यासियों की मठों के अनुसार पहचान स्थापित करता है।

आदि शंकराचार्य युधिष्ठिर संवाद 2663 ,ई 539 को पावन तीर्थ केदारनाथ में कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन ब्रह्मलीन हो गए। आप की समाधि केदारेश्वर मंदिर के समीप ही स्थापित थी किंतु सन् 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के पश्चात आप की समाधि स्थल को भी क्षति पहुँची है।

आपके द्वारा वेदों के संरक्षण, संवर्धन और सरल भाष्य के लिए सनातन धर्म कभी भी उऋण नहीं हो सकता। सनातन धर्म के ज्योतिर्धर आदि शंकर के दिव्य चरणों में कोटि-कोटि नमन।

डॉ. नुपूर निखिल देशकर की कलम से