कलिके प्रवाह में, भौतिकतावाद की अंधीदौड़ में, पश्चिमी संस्कृति में बहते हुए आज हमारा समाज कहां से कहां आ गया। यह बात किसी कौतूहल से कम नहीं है हमारे भारत वर्ष का समाज जो ऋषि प्रणीत संस्कृति से संचालित होकर गौरवशाली आचरण- व्यवहार करता था।
एक श्रेष्ठ, आदर्श, कर्तव्य (धर्म) का पालन करता था। भारतीय समाज में “प्राण जाए पर वचन ना जाए” वचन निभाने की परंपरा रही है। भारतीय समाज त्याग, प्रेम, परोपकार ,करुणा ,दया “वसुधैव कुटुंबकम” के आदर्शों का अपने जीवन में पालन करता था।
इन्हीं मूल्यों, आदर्शों के कारण हम भारतीय ‘आर्य’ शब्द से संबोधित किए जाते थे। आर्य अथार्थ श्रेष्ठ आचरण करने वाला, भद्रपुरुष, सुसंस्कृत व्यक्ति। इसीलिए तो हम ‘भूसुर’ धरती के देवता कहलाते थे। सारी पृथ्वी को परिवार मानकर हम व्यवहार किया करते थे।
अथर्ववेद के वाक्य – ”माता भूमि पुत्रोस्यांप्रथिव्यां” के अनुसार हमने पृथ्वी को माता मानकर पुत्रवत व्यवहार किया था। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ तत्व ज्ञान हमारे पास है किंतु यह भी कटु सत्य है कि हमारा आचरण ठीक उसके विपरीत है। विश्व का आदिग्रंथ ‘ऋग्वेद’ हमारे पास है।
दुनिया का सबसे प्राचीन अद्वितीय, अनुपम, अतुल्य ज्ञान का भंडार,’ आर्षबान्ड्मय’ वेद- वेदांग, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मणग्रंथ, संहिताएं ,स्मृतियां ,पुराण ,रामायण, गीता सब हमारे ही पास हैं। संपूर्ण विश्व को’ जीवन जी ने की कला’ Art of living हमने ही सिखाई थी।
हमारा जीवन तपस्वी, ज्ञानी-ध्यानी, संत ऋषि मुनियों का रहा है। हमने पिंड में ही ब्रह्मांड का दर्शन साक्षात्कार किया था। श्रद्धा अपरंपार की पत्थर में भी प्रीति जगाई और पराक्रम ऐसा जिसकी रिपु भी करे बड़ाई। हमारे पुरखे महान यशस्वी रहे हैं।
हम पराक्रम में परशुराम, दशरथ, मुचकुंद, शांतनु, दिलीप, रघु, सुधनवा, कर्ण, भीष्म थे। वंही तप मेंविश्वामित्र, वशिष्ठ, व्यास, जमदग्नि, भरद्वाज, अत्री, नारद, सुश्रुत, कश्यप, कृतु, दधीचि, भागीरथ, याज्ञ्वल्क्य, पाणिनि, कात्यायन, श्रृंगीऋषि थे। राजाओं में हम शिवि, अज , रघु , इक्ष्वाकु, दिलीप, राम, कृष्ण, भरत, युधिष्ठिर, पारीक्षत, पूरु, चंद्रगुप्त, शिवाजी, महाराणा प्रताप थे।
तो ज्ञान में हम शंकराचार्य, बुद्ध, तुलसी, समर्थ रामदास, रामकृष्णपरमहंस, रामानंद, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार्य, चैतन्य, नानक, विवेकानंद, दयानंद, कबीर थे। भारत वर्ष की महानता, गौरव शाली अतीत की गाथा अदितीय, अनुपमव अनंत है। जितना भी वर्णन किया जाए कम ही लगता है।
अब बात वर्तमान समय की करते हैं तो अभी कुछ दशक पूर्व तक हम और हमारे समाज का आचरण कुछ ठीक था। हम ज्यादा नहीं भटके थे। पिछले तीन-चार दशक से हमने भौतिकता वादी पश्चिमी संस्कृति का जो अंधानुकरण किया, बिना सोच-विचार के अदूरदर्शीता पूर्ण तरीके से परिणाम की भी चिंता किये बगैर। फिर क्या था एक बार भोग बाद, उपभोक्तावाद, क्षणिकवाद में हम बेपरवाह होकर डूबते चले गए और डूबते-डूबते गलेत कडूब गए।
हमने प्रकृति को भौतिक वस्तु मानकर अंधाधुंध दोहन, उत्खनन किया। हमारा चिंतन वव्यवहार अत्याधिक भोगवादी होता चला गया। हमने भौतिक प्रगति तो की किंतु नैतिक, आध्यात्मिक, भावनात्मक पतन के शिकार होते चले गए। आधुनिकता की उपभोग की दौड़ में हमने अपनी प्राचीन, स्वदेशी, परंपरागत वस्तुओं को नका रदिया, उपेक्षित किया।
हमारा खान-पान, व्यवहार, चिंतन- चरित्र सब पश्चिमी होता चला गया। पहले घर में जब कोई मेहमान (अतिथि) आते है तो, माँ कहती थी जाओ बेटा बाड़े से दो चार नीबू तोड़कर ले आओ और ठंडाई बना कर पिला देती थी। छान्छ अथवा लस्सी पिला देती थी। तारा बट आ जातीथी, तरो ताजा महसूस करते थे, मेहमान भी और घर के बच्चे भी।
किंतु आज उसका स्थान चाय-कॉफी, कोको-कोला, पेप्सी, सॉफ्टड्रिंक ने ले लिया है। पहले घर में आटे की सेवइयां बनाते थे व आम के शीरा के साथ अथवा खीर बनाकर खाते थे। बड़ा मजा आता था। घर में भोजन कांसे की बटलोई में अथवा मिट्टी के बर्तन में बन ताथा। बड़ा स्वादिष्ट व पौष्टिक होता था। अब उसका स्थान प्रेशर कुकर ने ले लिया है। इस में भोजन पकता कम है वह प्रेशर में फूटता अधिक है। भोजन के तत्व लगभग आधे समाप्त ही हो जाते हैं। मिट्टी के चूल्हे की जगह अब गैस, हीटर, इंडक्शन इत्यादि ने ले लिया है।
आज कल मिक्सी से चटनी , मंगोड़ी की दाल पीसी जाती है जिसमें वह स्वाद ब वह बात नहीं रहती जो सिललुडिया से पीसने में होती थी। पहले किसी को लूलग जाए तो आम का पन्हा पिला दिया करते थे। अब कहते हैं बेटा गोली खालो। पहले जेठ में बेल का शरब तथा मुरब्बा पिलाया-खिलाया जाता था। साल भर पेट ठीक रहता था, दस्त नहीं लगते थे। किंतु अब दस्त लगने पर कहते हैं बेटा जरा दो लोमोफेन टेबलेट ले लो।
पहले घर में गाय होती थी पर्याप्त दूध, घी, छाछ, मक्खन, पनीर, दही शुद्ध होता था। बच्चे खूब खाते थे व मजबूत बनते थे। अब मिलावटी दूध-दही, पनीर भी हम बाजार से खरीदते हैं। स्वास्थ्य खराब करते हैं।अभी वर्तमान में शहरों में कुत्ता पालु संस्कृति चल पड़ी है जबकि गांव में गाय पाली जाती थी। भारत गौ (गाय) पालन के लिये विश्व मे जाना जाता है। यह तो गोपाल का देश है।
पहले देशी मटके का शुद्ध ठंडा जल पीते थे। उसी में सब मिलरल होते थे। अब उसका स्थान फ्रिज ने ले लिया है, जो कि बीमारी का घर है। कुछ भी भोजन बचता है तो फ्रिज में रखते हैं व पुन: गर्म कर के खाते हैं एवं बीमारी को बुलाते हैं। कहीं से भी घूमकर ,चलकर आए और फ्रिज से ठंडी बोतल निकाल कर गट-गट करके गटक गए। बाद में स्वास्थ्य खराब हुआ सो अलग। पहले पान, लॉन्ग लाइची खाई जाती थी। पान पाचक होता है व सौफ हाज्मे कोठीक करती है।
लॉन्ग- लाइची मुंह की दुर्गंध दूर करते हैं किंतु अब इनका स्थान गुटका , खैनी, तंबाकू, राजश्री, विमल ने ले लिया है। तभी तो नारा है कि-
“गुटखाखाओ गाल गलाओ” अर्थात शारिरीक, आर्थिक, मानसिक हानि ही हानि।”
आज व्यक्ति की, कल परिवार की, परसों राष्ट्र की मृत्यु (छति ही छति) सब समाप्त होने वाला है। हमने पश्चिमी अंधी दौड़ में अपनी फसल, फल, सब्जी का मूल बीज ही समाप्त कर दिया। मूल टमाटर, फल, अनाज मैं जो गुण, पोषक तत्व थे वह आज हाइ ब्रिड टमाटर, फल, बीज में नहीं रहे हैं। मात्र उत्पादन बढ़ा है किंतु गुणवत्ता समाप्त हो गई है।
ऊपर से पेस्टिसाइड/कीटनाशक उर्वरक का इस्तेमाल से फसल जहरीली होती चली गई। साइडइफेक्ट होने लगे। जैसे हाइब्रिड टमाटर के छिलके न पचने से पथरी की बीमारी बढ़ रही है। कीटनाशकों के इस्तेमाल से, पैदा फसल, अनाज को आज खाने से आज कैंसर, हार्ट अटैक, ब्रेन हेमरेज, जैसी घातक अनेकों बीमारियों को हमने उत्पादन किया व विदेशी एलोपैथी दवाओं का सेवन किया। फिर साइडइफेक्ट हुआ किडनी व हार्ट अटैक होने लगे, अधिक MG की दवाखाने से। विदेशी पश्चिमी मकड़ जाल में हम फस्ते चले गए। आर्थिक रूप से तो लुटे ही, जीवनी शक्तिव जीवन से भी हम हाथ धो बैठे अथवा घाटा खाते चले गए हम।
हमने गोछोड़ी, गोबर खाद छोड़ी, गौ काचारा भूसा, हार्वेस्टर के चक्कर में जलाते चले गए। ‘गौसर्वदेवमयि ‘ है। गौ मात्र पशु नहीं है। यह भारतीय संस्कृति के पांच आधारों में से प्रथम आधार है। गौ के रोम-रोम में देवी गुण (तत्व) देवता, दिव्यात्व का वास है। उसमें सभी देवताओं का वास है। तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने गोपालन/संवर्धन किया और गोपाल कहा ये थे। और हमने उनकी संतानों ने क्या किया गौ ही समाप्त कर दी।
नंद बाबा के यहां ब्रज में 12 लाख गौ हुआ करती थी। गाय का दूध, घी, मक्खन खाने से शरीर पुस्ट, मस्तिष्क में मेधा, सतो गुण बढ़ता था। गोबर खाद से फसल पौष्टिक, गुण युक्त होती थी। देश में समृद्धि आती थी किंतु हायरे गोपाल के भक्तों !! तुमने तो गौ को समाप्त किया ही और उसका भोजन चारा (भूसा) ही जला दिया। ऐसे में भारत कैसे बचेगा ? पृथ्वी डोलेगी (भूकंप) नहीं आयेगा तो क्या ???
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास महाराज ने कहा भी है कि –
जब जब होय धर्म की हानि , बाढ हीं असुर अधम अभिमानी।। विप्र धेनु सुर संतहित , लीन मनुज अवतार।।