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जनसँख्या असंतुलन : डॉ. भागवत की चिंता संघ की दूरदर्शी सोच का प्रमाण

वैसे तो रास्वसंघ के प्रमुख डॉ. मोहन भागवत राष्ट्रीय महत्व के सम – सामयिक विषयों पर अपना मत व्यक्त करते रहते हैं परन्तु विजयादशमी के दिन संघ के स्थापना दिवस पर नागपुर में आयोजित होने वाले समारोह में संघ प्रमुख का भाषण एक तरह से संगठन का नीति वक्तव्य होता है । गत दिवस इस अवसर पर उन्होंने जो उद्बोधन दिया उसमें न सिर्फ संघ के स्वयंसेवकों और समर्थकों अपितु पूरे देश के लिए एक सन्देश है । सबसे बड़ी बात ये है कि संघ की भूमिका अब केवल शाखा लगाने तक सीमित न रहकर राष्ट्र जीवन से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र तक फ़ैल गयी है । उसी का परिणाम है कि राष्ट्रवाद की भावना देश के सभी हिस्सों में नजर आने लगी है । पूर्वोत्तर के वे इलाके जो कभी मुख्यधारा से कटने की वजह से ईसाई मिशनरियों द्वारा रचित षडयंत्र के वशीभूत अलगाववाद की मानसिकता में रंग चुके थे, आज राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हैं । वहां की राजनीति पर राष्ट्रवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर आने के पीछे रास्वसंघ का योगदान सर्वोपरि है ।

संघ प्रमुख ने आबादी संबंधी मसला उठाते हुए जिस तरह उसके नियन्त्रण में धर्म विशेष द्वारा उत्पन्न की जाने वाली बाधाओं को राष्ट्रहित के विरुद्ध बताया उसमें एक तबका साम्प्रदायिकता सूंघ सकता है । लेकिन सही बात है कि जनसँख्या असंतुलन देश के अनेक हिस्सों में बड़ी समस्या बनकर उभरा है । आतंकवाद के तौर पर आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बने पीएफआई जैसे संगठन भी इसी असंतुलन का दुष्परिणाम हैं । हमारे देश के वामपंथी जिस चीन को अपना आदर्श मानते हैं उसने इस संकट को समय रहते भांप लिया और उइगर मुसलमानों पर शिकंजा कसकर अपने देश में इस्लामी आतंकवाद को पनपने से पहले ही कुचल दिया । उसके विपरीत हमारे देश में वोट बैंक की वजह से अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के फेर में ज्यादातर राजनीतिक दलों ने जनसँख्या असंतुलन के खतरे को नजरअंदाज किया जिसका खामियाजा हम भोग भी रहे हैं । हाल ही में संघ प्रमुख ने मस्जिद जाकर कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं से भेंट की तब संघ विरोधी दलों ने तंज कसा कि वह राहुल गांधी की यात्रा की प्रतिक्रिया है । कुछ ने यहाँ तक कह डाला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मतभेद हो जाने से संघ ने अपनी नीति बदली है । लेकिन ऐसे लोग इस संगठन की नीतियों और कार्यप्रणाली के बारे में जाने बिना ही बेसिर पैर की बातें करते हैं । सही बात ये है कि संघ की सोच और उसके कार्य राष्ट्रहित पर केन्द्रित होते हैं । चूंकि राजनीति भी राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित करती है इसलिए संघ राजनीतिक मसलों पर भी अपनी राय रखने में संकोच नहीं करता । जिस तरह महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को राजनीति तक सीमित न रखते हुए अछूत उद्धार, हिन्दी, स्वदेशी, स्वच्छता, ग्राम विकास जैसे प्रकल्पों के जरिये समाज को संगठित कर सकारात्मक दिशा देने का काम किया , ठीक वैसे ही संघ भी समाज से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र में अपनी संगठन शक्ति के माध्यम से भारतीयता की भावना को सुदृढ़ बनाने प्रयासरत है । लम्बे समय तक उसके प्रति कौतुहल का भाव बना रहा लेकिन अपनी कर्मठता और प्रतिबद्धता की वजह से उसके प्रति जन सामान्य में आकर्षण जागा । उसी कारण संघ विरोधी अनेक राजनीतिक नेता ये कहते सुने जा सकते हैं कि वे भी हिन्दू हैं । वहीं धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले दलों का चुनाव प्रचार अब हिन्दू मंदिरों से शुरू होने लगा है । कारसेवकों पर गोलियां बरसाने वाले भी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनवाने का वायदा चुनावी घोषणापत्र में करने लगे । कोई चुनावी मंच से काली जी की वंदना में जुटा है तो कोई हनुमान चालीसा का पाठ करता नजर आता है । कहने का आशय ये है कि हिंदुत्व भारतीय राजनीति में जिस तरह प्रभावी तत्व के रूप में नजर आने लगा है उसके पीछे संघ की नीतियों के प्रति बढ़ता आकर्षण ही है ।

संघ प्रमुख ने विजयादशमी उत्सव पर गत दिवस राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर संघ का दृष्टिकोण जिस तरह से प्रस्तुत किया उससे उसके आलोचकों को भी ये समझ में आ जाना चाहिए कि इस संगठन की सोच कितनी व्यापक और जमीन से जुड़ी है । आज देश के सामने जो समस्याएँ हैं उनका हल ढूढ़ने के लिए विदेशों की ओर निहारने की बजाय अपनी अन्तर्निहित प्रतिभा का विकास करना संघ की नीति है और इसीलिये शिक्षा हो या अर्थव्यवस्था , वह उनमें भारतीय दृष्टिकोण के समावेश का समर्थक है ।

डॉ. भागवत ने संघ में महिलाओं की भूमिका को लेकर किये जाने वाले मिथ्या प्रचार का भी सप्रमाण उत्तर दिया । मातृभाषा में शिक्षा के साथ परिवार में मिलने वाले संस्कारों का उल्लेख करते हुए उन्होंने सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे की मजबूती को सबसे बड़ी जरूरत बताकर ये साबित कर दिया कि संघ समाज से जुड़े सभी मुद्दों पर पैनी नजर रखता है । इस बारे में उल्लेखनीय है कि जनसँख्या नीति केंद्र सरकार की कार्ययोजना का हिस्सा है ।

संघ प्रमुख के उद्बोधन के बाद इस दिशा में सरकार के कदम तेजी से बढ़ सकते हैं क्योंकि समाज के भीतर इस बारे में अनुकूल वातावरण बनाने में संघ की भूमिका बेहद प्रभावशाली रही है । आगामी डेढ़ वर्ष देश में राजनीतिक गहमागहमी बनी रहेगी । गुजरात, हिमाचल, जम्मू कश्मीर, म.प्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान और उसके बाद लोकसभा चुनाव के साथ ही कुछ राज्यों के चुनाव होंगे । इस कारण राजनीतिक ध्रुवीकरण की कोशिशें तेजी से चल रही हैं । तमाम विपक्षी दल मिलकर भाजपा के विरुद्ध जो मोर्चा बनाना चाह रहे हैं उसके पीछे दरअसल संघ का ही भय है । राहुल गांधी भी अपनी यात्रा में संघ के विरुद्ध ही ज्यादा बोलते हैं । ऐसे में संघ प्रमुख ने गत दिवस जो सन्देश दिया वह उन सभी के लिए स्पष्ट संकेत है जो उसे लेकर दिन – रात प्रलाप किया करते हैं । पुरानी कहावत है जिसकी शक्ति बढ़ती है उसी के शत्रु बढ़ते हैं । रास्वसंघ इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ।

लेखक 
रवीन्द्र वाजपेयी 
9425154295