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“स्व के लिए पूर्णाहुति और विजय : जनजातीय वीरांगनाओं का ‘टुरिया’ सत्याग्रह”

जंगल सत्याग्रह में जनजातीय वीरांगनाओं के बलिदान की अमर गाथा – यदि छतरपुर का चरण पादुका गोलीकांड म. प्र. का जलियांवाला बाग है, तो टुरिया के सत्याग्रह को महाकौशल प्रांत के जलियांवाला बाग के नाम से जाना जाना चाहिए

भारत में असहयोग आंदोलन के असफल हो जाने के उपरांत स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व क्रांतिकारियों और उनके साथ स्वराज दल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने संभाला। क्रांतिकारियों का आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उग्र हो चला था। वहीं दूसरी ओर ब्रितानिया सरकार यह चाहती थी, कि 1919 के मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार का सर्वे किया जाए इसलिए साइमन कमीशन को भारत भेजा गया परंतु साइमन कमीशन में भारत का एक भी प्रतिनिधि ना होने के कारण तथा उसमें भारत को डोमिनियन स्टेटस का दर्जा ना देने के कारण विवाद उत्पन्न होता चला जा रहा था। इसलिए अंग्रेजों ने कांग्रेस को चुनौती दी कि वह एक संविधान निर्माण करे। अतः नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की गई परंतु वह असफल रही। ऐंसी स्थिति में संपूर्ण भारत वर्ष में उत्तेजना का उबाल आ गया था और इंकलाब जिंदाबाद, क्रांति अमर रहे कि स्वर उठ रहे थे।

भारत सचिव बर्कनहेड ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत को डोमिनियन स्टेटस का भी दर्जा अभी नहीं दिया जा सकता इसलिए महात्मा गांधी के साथ कांग्रेस ने 1929 में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया और यह भी तय किया कि जब तक स्वाधीनता प्राप्त नहीं कर लेंगे तब तक यह आंदोलन नहीं रुकेगा। इस आंदोलन को सविनय अवज्ञा आंदोलन का नाम दिया गया। गांधीजी ने तत्कालीन वायसराय इरविन को 11 सूत्रीय मांग प्रस्तुत की परंतु वायसराय इरविन ने स्पष्ट यह मांगे मानने से इंकार कर दिया। इसीलिए महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का मार्ग अपनाया, जिसका मूल मंत्र था अहिंसा के साथ सत्याग्रह। उनका कहना था कि भारत को आर्थिक, राजनीतिक सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से ब्रिटिश सरकार ने विनाश कर दिया है।

लाहौर अधिवेशन में यह भी तय हुआ कि 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाएगा। वायसराय इरविन ने गांधीजी की 11 सूत्रीय मांग ठुकरा दीं। इन मांगो में मूल रूप से नमक कर ना देना, तथा सरकार विभिन्न निकायों में जो बरतानिया सरकार अधिक खर्चा करती थी उसमें कटौती करना शराब बंदी, कानूनों की अवज्ञा कर असहयोग करना सहित अन्य मांगे थीं, इन मांगों में कहीं स्वाधीनता का उल्लेख नहीं किया गया था फिर भी इरविन ने इसे मानने से मना कर दिया। जब गांधी जी ने आंदोलन की बात कही तो वायसराय इरविन ने कहा कि गांधीजी आपके आंदोलन करने से कानून का उल्लंघन होगा जनशांति खतरे में पड़ जाएगी और इसकी सारी जिम्मेदारी आपकी होगी।

महात्मा गांधी ने कहा कि मैंने घुटने टेक कर रोटी मांगी थी परंतु मुझे रोटी की बजाय पत्थर मिला है, भारत एक विशाल कारागार है, मैं इस कानून को नहीं मानता जो डंडे के जोर पर स्थापित शांति है। मुझे गर्व है कि मैं इसको भंग करना अपना कर्तव्य समझता हूं और इसीलिए 12 मार्च 1930 को प्रातः 6:30 बजे 61 वर्ष की उम्र में 78 आश्रम वासियों को लेकर महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा के अंतर्गत नमक सत्याग्रह आरंभ किया और 241 मील दांडी पहुंचे। इस यात्रा में 24 दिन लगे 5 अप्रैल 1930 में दांडी में महात्मा गांधी पहुंचे और 6 अप्रैल को उन्होंने सांकेतिक रूप से नमक कानून तोड़ दिया। गौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा नमक के उत्पादन आयात और विक्रय पर कर लिया जाता था और जिससे बरतानिया सरकार के राजस्व का 10% से 15% तक प्राप्त होता था। उन्हें 68 मिलियन रुपयों का फायदा होता था। गांधी जी का विचार था कि भारत का निर्धनतम व्यक्ति भी नमक का उपयोग करता है इसलिए नमक कानून तोड़ने से आंदोलन व्यापक हो जाएगा। यही हुआ भी, यह समाचार संपूर्ण भारतवर्ष में बिजली की तरह फैल गया और संपूर्ण भारत वर्ष में नमक सत्याग्रह आरंभ हुआ।

महाकौशल प्रांत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का शानदार आरंभ हुआ। जबलपुर से 15 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मार्च के अंतिम सप्ताह में ही समुद्र का पानी लेने के लिए मुंबई चले गए थे। 4 अप्रैल 1930 तक वे सभी जबलपुर लौट आए और 15 पात्रों में समुद्र का पानी भर कर ले कर आए थे। क्योंकि यहां कहीं समुद्र तो था नहीं इसलिए इन पात्रों को महाकौशल प्रांत के विभिन्न जिलों में वितरित किया गया था।

संस्कारधानी में 8 अप्रैल को तिलक भूमि तलैया में नमक कानून तोड़ा गया और सिवनी में गांधी चौक पर दुर्गाशंकर मेहता जी के नेतृत्व में नमक कानून तोड़ा गया। महाकौशल में विभिन्न जगह पर कर न देना और उसके साथ ही नमक कानून तोड़ा गया। शराब की दुकानों के सामने धरने दिए गए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। बरतानिया सरकार का असहयोग किया गया परंतु उसके बाद आंदोलन में शिथिलता आने लगी। इसलिए महाकौशल प्रांत में एक अद्भुत और अद्वितीय आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसे हम सभी जंगल सत्याग्रह के नाम से जानते हैं जो संपूर्ण भारत में अपने आप में सबसे अलग था।

महाकौशल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के मध्य वन सत्याग्रह को लेकर विचार विमर्श हुआ और उसकी अनुमति लेने के लिए द्वारका प्रसाद मिश्र इलाहाबाद गए। जहां एक यह विचार उठा की पेड़ काटना अहिंसक आंदोलन के विरुद्ध होगा परंतु द्वारका प्रसाद मिश्र ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि मध्य प्रांत में बहुत अधिक वन हैं और वन विधानों के विरुद्ध यह आंदोलन बहुत सफल होगा क्योंकि जनजातियां भी इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान निभाएंगी। अतः कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता सहमत हो गए, यह खबर द्वारका प्रसाद मिश्र मध्य प्रांत तक लेकर आते तब तक उनके पूर्व ही समाचार पत्रों ने इस समाचार को देशभर में प्रचारित कर दिया। मध्य प्रांत की सरकार आश्चर्यचकित हो उठी यदि समस्त प्रांत में जिसका आधा क्षेत्रफल वनों से आच्छादित है लोग वन विधानों को तोड़ने लगे तो परिस्थिति काबू से बाहर हो सकती है। अतः उन्होंने निश्चय किया कि प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाए और किया भी।

इसलिए महाकौशल की जनजाति समुदाय ने जंगल सत्याग्रह को चलाने का बीड़ा उठाया। शीघ्र ही पूरे महाकौशल प्रांत में जनजाति समुदाय ने वन (जंगल) सत्याग्रह आरंभ कर दिया वन सत्याग्रह की महाकौशल के बैतूल और सिवनी जिलों में प्रशासन ने वन सत्याग्रहियों के ऊपर बेरहमी से गोली चलाई। बैतूल में जंगल सत्याग्रह जनजातियों में फैल गया था हजारों गोंड स्त्री पुरुषों ने वन सत्याग्रह प्रारंभ किया। बंजारी ढाल में 500 जनजाति सत्याग्रहियों की भीड़ पर पुलिस ने गोली चलाई जिससे कई घायल हो गए और उसी जिले के जामबद स्थान पर फिर गोली चलाई जिसमें 2 जनजाति सत्याग्रहियों का बलिदान हुआ।

जंगल सत्याग्रह जबलपुर, कटनी और सिहोरा तहसीलों में हुआ जहां पुलिस ने सत्याग्रहियों को पीटा और बड़ी संख्या में गिरफ्तार कर लिया। परंतु सिवनी जिले के तुरिया गांव का जंगल सत्याग्रह अद्भुत और अद्वितीय हुआ जिसे भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन के अंतर्गत जलियांवाला बाग कहा जा सकता है।

सिवनी जिले का तुरिया गांव का आंदोलन एक अकेली ऐसी चिंगारी थी जिसने ब्रितानिया साम्राज्य को हिला के रख दिया था क्योंकि सैकड़ों जनजाति समुदाय के लोग बरतानिया सरकार की तोपों और बंदूकों के सामने सीना तान के खड़े हो गए थे और उन्होंने अपना बलिदान भी दिया। वास्तव में बन सकता करें सत्याग्रह की भूमिका इस प्रकार थी कि सिवनी का डिप्टी कमिश्नर सीमेन अपनी मनमानी के लिए जिले भर में बदनाम था उसके आदेश पर उगली गांव में 300 जनजातीय वन सत्याग्रहियों को पेड़ से बांधा गया था और उन्हें कोड़े लगाए गए थे। यह बात जब मूका लुहार को लगी तो उसने निर्णय लिया की तुरिया गाँव से आरक्षित घास काट कर वन सत्याग्रह का शुभारंभ किया जाएगा।

उल्लेखनीय है कि दुर्गा शंकर मेहता और अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्व में शासकीय जंगल और चंदन के बगीचे में जाकर इस सत्याग्रह को करते तथा उन पर सरकार द्वारा दफा 379/114 ताजेरात् हिंद एवं 26 फारेस्ट एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार करके मुकदमा चलाया जाता तथा सजा और जुर्माना दिया जाता जुर्माने की वसूली अत्यंत निर्मलता से की जाती इसमें संपत्ति जानवर, जमीन, बर्तन सब कुछ कुर्की में नीलाम कर दिए जाते इसके बाद भी आंदोलन चला परंतु इन सब की गिरफ्तारी हो चुकी थी।

अब पुनः टुरिया की ओर चलते हैं महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मूका लुहार बिरजू भोई और रामप्रसाद के नेतृत्व में टुरिया वन सत्याग्रह का शंखनाद कर दिया गया। सैकड़ों की संख्या में जनजाति समुदाय इनके साथ निकल पड़े 9 अक्टूबर 1930 को को तुरिया (विकास खंड – कुरई) से वन सत्याग्रह का आरंभ हो गया और सभी स्वतंत्र संग्राम सेनानी मूका लुहार के साथ खवासा नामक स्थान पर पहुंच कर वन सत्याग्रह को व्यापक रुप देने का विचार बनाया। यह सब खबर सिवनी के डिप्टी कमिश्नर सीमेन को लग गई और उसने रिजर्व इंस्पेक्टर सदरूद्दीन के साथ 100 हथियारबंद पुलिस वाले भेज दिए जिसमें रेंजर मेहता भी शामिल था। डिप्टी कमिश्नर सीमेन ने सदरुद्दीन को एक चिट दी और उसमें लिखा था “टीच देम लेसन” जिसका स्पष्ट आशय था कि तुरिया के गांव वालों को सबक सिखा दो। शीघ्र ही मूका लुहार को गिरफ्तार कर लिया गया। मूका लुहार की गिरफ्तारी की बात सुनकर गाँव के स्त्री-पुरुष बालक सभी पुलिस कैंप की ओर अपने नेता के दर्शन के लिए निकले और सदरुद्दीन इंस्पेक्टर तो ऐसे ही अवसर की तलाश की कर रहा था इस समय विरझू भोई (ग्राम – मुरझोड़) , और महिलाओं में श्रीमती मुड्डे (ग्राम – खामरीठ-अमरीठ) बाई, श्रीमती रेनो बाई (ग्राम – खंबा) , श्रीमती देभो बाई (ग्राम – भिलसा) ने नेतृत्व संभाला। वीरांगना मुड्डे बाई किसान परिवार से थीं और 9 सदस्यीय “मातादाई” मंडली की प्रमुख थीं, नवरात्रि में गाँव – गाँव में देवी माँ का जस गान कर जन जागरण करती थीं, इनके साथ वीरांगना देभो बाई और वीरांगना रेनो बाई भी अलख जगाती थीं। इनके नेतृत्व में 500 जनजाति समुदाय के लोग एकत्रित हो गए थे उनके हाथ में हंसिया भी थे परंतु उन्होंने आक्रमण नहीं किया और मूका लुहार को छोड़ने की और उसके दर्शन की बात कही मगर सदरुद्दीन और मेहता ने अकारण और बिना चेतावनी दिए बिना गोली चलाने का आदेश दिया इस भयानक गोलीकांड में विरझू भोई के साथ श्रीमती मुड्डे बाई, रेनी बाई और देभो बाई का बलिदान हो गया जबकि दूजा बाई और पांचो बाई घायल हुईं। इन चारों के मृत शरीर भी दाह संस्कार के लिए नहीं दिए गए। 30 जनजातीय समुदाय के व्यक्ति घायल हुए जो जनजाति समुदाय से ही थे शेष बचे लगभग 400 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों (सत्याग्रहियों) को पेड़ से बांधकर कोड़े लगाए गए तथा डिप्टी कमिश्नर ने सीमेन ने 18 व्यक्तियों पर मुकदमा चलाने के आदेश दिए। इनकी पैरवी सिवनी के दो वकील पी. डी. जटार एवं एन. एन. सील ने किया। दोनों ने अधिकारियों की बर्बरता को उजागर करने की दृष्टि से उन गांव वालों का बचाव करने का निश्चय किया। जब सील मुकदमे के रिकॉर्ड की जांच कर रहे थे उन्हें सदरुद्दीन को भेजा गया वह पत्र लिफाफे में बंद मिला जिसमें सीमेन ने उसको टूरिया के गांव वालों को सबक सिखाने की हिदायत दी थी।

स्पष्ट था कि इंस्पेक्टर ने अपने बचाव के लिए वह पत्र संभाल कर रखा था। उस पत्र का पता लगने पर अदालत में उत्तेजना फैल गई थी डिप्टी कमिश्नर सीमेन को यह समाचार मिलते ही क्रोधित हो न्यायालय में यह जानने के लिए दौड़ा आया कि वह रिकॉर्ड में कैसे पाया गया। डिप्टी कमिश्नर की उपस्थिति से ना घबराकर वकीलों ने उस पत्र की अधिकृत प्रति के लिए अर्जी लगाई। मजिस्ट्रेट महोदय दोनों वकीलों को अपने खास कमरे में ले गए और सभी सत्याग्रहियों को जमानत पर छोड़ने की इस शर्त पर राजी थे कि उस पत्र की प्रति वे लोग ना मांगे परंतु वकीलों ने उनके प्रस्ताव को नामंजूर कर उच्च न्यायालय को उस न्यायालय से मुकदमा किसी दूसरे न्यायालय में स्थानांतरण करने का आवेदन किया। उच्च न्यायालय ने मुकदमे को तो स्थानांतरित नहीं किया लेकिन शासन ने डिप्टी कमिश्नर सीमेन का सिवनी से स्थानांतरण कर दिया और यह सत्याग्रहियों के स्व के लिए पूर्णाहुति के साथ विजय ही थी, कि बरतानिया सरकार को अपने डिप्टी कमिश्नर सीमेन को स्थानांतरित करना पड़ा।

टुरिया सत्याग्रह की आग संपूर्ण महाकौशल प्रांत में फैल गई और सर्वत्र वन सत्याग्रह आरंभ हो गया परंतु महात्मा गांधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्त कर देने के कारण यह आंदोलन भी बंद हो गया। परंतु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस महान् सत्याग्रह को कहीं भी राष्ट्रीय स्तर पर अथवा पाठ्य पुस्तकों में ठीक तरह से रेखांकित नहीं किया गया और ना ही उसे उचित स्थान दिया गया वास्तव में यह गुमनाम ही रहे। अब स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर हमारा उत्तर दायित्व है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में तुरिया आंदोलन के बलिदानियों और सत्याग्रहियों को राष्ट्रीय इतिहास में और पाठ्य पुस्तकों में प्रमुख रूप से सम्मिलित कर उचित सम्मान प्रदान किया जा सके।

!! जय हिंद !!

लेखक 
डॉ. आनंद सिंह राणा
7987102901