Trending Now

दक्षिण में संघ कार्य का सूत्रपात करने वाले यादवराव जोशी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव बनने वाले तपस्वी कार्यकर्ताओं में एक नाम स्व. यादवराव जोशी का भी आता है। दक्षिण में हिन्दू संगठन की अलख जगाने वाले यादवराव जी का जन्म अनन्त चतुर्दशी (3 सितम्बर 1914) को नागपुर के एक वेदपाठी परिवार में हुआ। पिता श्रीकृष्ण गोविन्द जोशी पौरोहित्य का कार्य करते थे।

यादवराव जब 6 माह के थे तो उनकी माँ परलोक सिधार गयी। पिता की निगरानी में यादवराव का लालन-पालन हुआ। यादवराव ने कुछ समय तक वेदाध्ययन करते हुए पिता के साथ पौरोहित्य का कार्य करते रहे लेकिन उनका मन नहीं लगता देखकर पिता ने उनका विद्यालय में दाखिला करवा दिया। यथा समय विद्यालय की शिक्षा पूरी की। विद्यालय जीवन से ही यादवराव ने संगीत गुरू श्री शंकर राव से गायन सीखना प्रारम्भ कर दियसा।

1927 में संगीत सीखने वाले कलाकारों का एक भव्य कार्यक्रम नागपुर के वेंकटेश सभागृह में रखा गया था। संगीत की नामचीन हस्तियाँ इस कार्यक्रम में मौजूद थीं। इसी कार्यक्रम में संघ संस्थापक डाॅ. हेडगेवार जी भी उपस्थित थे। बारह साल के यादवराव ने अपनी मधुर आवाज से उस कार्यक्रम में सबका मन मोह लिया। इसी कार्यक्रम में उन्हें ‘संगीत बाल भास्कर’ का सम्मान दिया गया। कार्यक्रम के बाद डाॅक्टर जी यादवराव से मिले और उनकी पीठ थपथपाई। इस भेंट से उनका आगे का पूरा जीवन ही परिवर्तित हो गया।

डाॅक्टर जी की इच्छा-
इसी कार्यक्रम के उपरान्त यादवराव जी संघ शाखा में जाने लगे। संगीत साधना करके व्यक्तिगत जीवन में कीर्ति प्राप्त करने के बजाय अपना जीवन संघ कार्य में समर्पित करने के विचार मन को आकर्षित करने लगे थे। अब यादव राव डाॅक्टर हेडगेवार जी के साथ रहने लगे एक बार डाॅ. साहब बड़े उदास मन से मोहिते के बाड़े की शाखा में आये। उन्होंने सबको एकत्र कर कहा कि ब्रिटिश शासन ने वीर सावरकर की नजरबंदी दो वर्ष के लिए और बढ़ा दी है।

अतः सब लोग तुरंत प्रार्थना  कर शांत रहते हुए घर जायेंगे। इस घटना ने यादवराव के मन पर अमिट छाप छोड़ी और वे पूरी तरह से डाॅ. जी के हो गये। शाखा का कार्य करते हुए यादवराव ने एम.ए.एल.एल.बी. तक शिक्षा पूरी की। शिक्षा पूर्ण करते ही उन्होंने संघ कार्य में अपना जीवन लगाने का निश्चय किया।

दक्षिण भारत में संघ-
शुरू में यादवराव को झाँसी भेजा गया। दो वर्ष कार्य करने के बाद 1941 में उन्हें कर्नाटक प्रान्त प्रचारक बना कर भेजा गया। इसके बाद वे दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख, सेवा प्रमुख तथ 1977 से 1984 तक संघ के सह सरकार्यवाह भी रहे।

कर्नाटक में संघ के सुदृढ़ आधार को खड़ा करने में उनकी भूमिका वैसी ही थी जैसी भाऊराव जी की उत्तर प्रदेश में रही थी। कर्नाटक के बाद धीरे-धीरे उन्होंने सम्पूर्ण  दक्षिण का कार्य अपने मजबूत कंधों पर ले लिया। अपने सहज, सरल और मिलनसार स्वभाव के कारण उन्होंने अनेक लोगों को संघ कार्य में पूरा समय लगाने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि – ‘संघ कार्य का विस्तार करना है तो हमें समाज के दलित वर्ग में भी पहुंचना होगा।’

अद्भुत कार्यपद्धति-
संघ कार्य को और अधिक विस्तार देने के लिए ‘हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान’ संस्कृत प्रचार समिति ‘राष्ट्रोत्थान प्रकाशन’ बाल गोकुलम जैसे असंख्य उपक्रमों की कल्पना भी उनकी प्रेरणा से ही निकली। इसके साथ प्रांतीय स्तर पर स्वयंसेवकों का शिविर लगाने की योजना भी उन्होंने ही शुरू की। मितव्ययता का एक आदशे उन्होंने कार्यकर्ता प्रचारकों के सामने खड़ा करके दिखाया।

विदेश में संघ कार्य-
यादवराव जी ने संघ कार्य के विस्तार के लिए दक्षिण अफ्रीका, माॅरीशस, केन्या, नैरोबी, योगाण्डा जैसे अनेकों स्थानों की यात्राएं की। यादवराव जी का कहना था कि –

‘संसार में कहीं भी जाओ अपनी मातृभूमि-स्वदेश का स्मरण रखो।’ उनका यह भी मत था कि भारतवासी जहाँ भी रहें, वहाँ की उन्नति में उन्हें योगदान देना चाहिए। क्योंकि हिन्दू पूरे विश्व को एक परिवार मानता है।

अविचल निष्ठा-
सामान्य कद वाले यादवराव जी का जीवन वास्तव में प्रेरणादायी एवं सादगीपूर्ण था। पूज्य डाॅ. जी जैसी विलक्षण संगठन कुशलता, अविश्रांत परिश्रम करने की क्षमता उनमें थी। अखण्ड राष्ट्र आराधना करते हुये जीवन के संध्या काल में वे अस्थि कैंसर से पीड़ित हो गये थे। 20 अगस्त 1962 को बैंगलूर संघ कार्यालय में ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की।

लेख़क 
डाॅ. किशन कछवाहा
9424744170