Trending Now

नवरात्रि साधना का अलौकिक विज्ञान

भारतवर्ष पर्व, त्योहारों, उत्सवों का देश है। भारत आध्यात्मिक-सनातन राष्ट्र है। इसकी आध्यात्मिकता कि अभिव्यक्ति अनेक पर्वों, त्योहारों, उत्सव, अनुष्ठानों, गणेश उत्सव, नवरात्रि महोत्सव, गुरु पूर्णिमा, दीपावली, बसंत पंचमी, होली इत्यादि से होती है। पर्वों की यह विशिष्ट श्रंखला अकारण ही नहीं है। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाताओं ने विशिष्ट समय के महत्व को पहचानते हुए ‘अध्यात्मिक साधना’ का विधान बताया है।

‘तम’ और ‘सत’ दो ही गुण प्रकृति के हैं। तम अथार्थ जड़-सत अथार्थ चेतन। दोनों अपनी स्थिति में पूर्ण हैं। दोनों अपनी स्थिति में पूर्ण हैं पर इन दोनों का जब मिलन होता है तो एक नई हलचल उठ खड़ी होती है, जिसे ‘रज’ कहते हैं। इच्छा, आकांक्षा, भोग, तृप्ति, अहंता, संग्रह, हर्ष, स्पर्धा आदि चित्त को उद्विग्न किए रहने वाले और विविध क्रिया-कृतयों में जुटाए रहने वाले प्रवाह ‘रज’ की ही प्रतिक्रियाएं हैं। साधना की आवश्यकता इस ‘रज’ के निबिड़ बंधनों से छुड़ाने के लिए ही की जाती है। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार से बनी जड़ – चेतन मिश्रित जीव चेतना ही हर घड़ी अशांत रहती है और कृत्य-कुकृत्य करने में जुटी रहती है। परिमार्जन इसी का करना पड़ता है। योग साधना एवं तपस्या का उद्देश्य जीव का परिमार्जन करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अंतरंग में अध्यात्म की अभिवृद्धि से जीवन क्रम में उत्पन्न हुई दिव्यता का प्रमाण मिलता है व सच्ची उपासक की जीवन सुगंधी हर दिशा को सुभाषित करती है।

भारतीय हिंदू संस्कृति में 9 के अंक को पूर्ण माना गया है एवं इसका बड़ा महत्व है। नवरत्न, नवरात्रि, नवद्वार (शरीर में) नवग्रह, 9 औषधियां, नवरस, 9 माह में ही गर्भ (पूर्णता पता है) 9 का अंक पूर्ण है। उसके पहाड़े को पढ़िए व गुणा करके जोड़ीये है तब जोड़ 9 ही आता है। 360 डिग्री कोण होते हैं 3 + 6 = 9 ही होता है। नौ निधियां होती है। नव शक्ति के रूप में नवदुर्गा हैं। माला के मनके 108 होते हैं 1+ 8 = 9 ही होता है। अर्थात 9 का अंक दैवी/भाग्य/पूर्णांक है। चार युगों के हेमलियांज को जोड़ा जाए तो 9 ही आता है।

प्रत्येक वर्ष में दो बार तपस्या करने के लिए अश्विन और चैत्र की नवरात्रियों 9-9 दिन के लिए विशिष्ट साधना काल नवरात्रि के रूप में आता है। जिस प्रकार दिन और रात्रि के मिलन अवसर को संध्याकाल कहते हैं और प्रातः सायं के संध्याकाल में उपासना करना महत्वपूर्ण मानते हैं। उसी प्रकार शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन की यह रितु संध्या 9-9 दिन के लिए नवरात्रि के रूप में वर्ष में दो बार आती है। शरीर और मन के विकारों का निष्कासन -परिशोधन इस अवसर पर बड़ी आसानी से हो जाता है। जिस प्रकार बीज बोने की एक विशेष अवधि आती है । उसी प्रकार इन नवरात्रों में भी तपश्चार्य करने पर अधिक बलवती होती है। स्त्रियों को महीने में जिस प्रकार रितु काल आता है उसी प्रकार नवरात्रि प्रकृति की ऋतुकाल हैं। इन दिनों आध्यात्मिक साधना का विशिष्ट फल प्राप्त होता है। वैसे वर्ष में चार नवरात्रि में आती हैं जिसमें दो गुप्त होती हैं। प्रमुखता से अश्विन व चैत्र की नवरात्रि यही साधक-भक्तगण मनाते हैं।

नवरात्रियों का अर्थ है नव राते हैं। रात ना कभी घटती है ना बढ़ती है इसलिए जिस दिन प्रतिपदा हो नवरात्रि का आरंभ मानना चाहिए। अश्विन में दशमी को विजयदशमी पड़ती है। ज्येस्ट सुदी दशमी को गंगा दशहरा- गायत्री जयंती होती है। चैत्र सुदी नवमी को रामनवमी पर्व पड़ता है। नवरात्रि पर्व में विभिन्न उपासनाये चलती हैं। वैदिक साहित्य में ऋषियों ने वर्णन करते हुए बताया है कि- मानवी काया रूपी अयोध्या में नवद्वार अथार्थ 9 इंद्रियां हैं। अज्ञानता बस दुरुपयोग के कारण उनमें जो अंधकार छा गया है उसे अनुष्ठान करते हुए एक-एक रात्रि में एक-एक इंद्रिय के ऊपर विचारना, उसमें संयम साधना तथा सन्निहित क्षमताओं को उभारना ही वस्तुतः नवरात्र की साधना कहलाती है। रात्रि का अर्थ ही है अंधकार। जो मनुष्य इन नौ द्वारों से नो इंद्रियों के विषयों से जागरूक रहता है व उनमे लिप्त नहीं होता और ना ही उनका दुरुपयोग करके अपने ओजस- तेजस- और वर्चस्व को गवाता है। नवरात्रों में सर्वसाधारण से लेकर योगी, यति, तपस्वी सभी अपने-अपने स्तर की संयम, साधना एवं संकल्पित अनुष्ठान करते हैं। इस अवधि की प्रत्येक अहोरात्रि महत्वपूर्ण मानी जाती है और उन प्रत्येक क्षणों को साधक अपनी चेतना को परिष्कृत परीशोधित करने, उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने में लगाता है।

नवरात्रि साधना की विशेषता यह है कि यह ‘संकल्प साधना’ है। इस अवधि में 24 हज़ार का लघु गायत्री अनुष्ठान भी संपन्न किया जा सकता है। इसमें वाममार्गी साधना जैसे पेचीदे विधानो का झंझट भी नहीं रहता है। गायत्री परम सतोगुणी शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवादन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्म कल्याण का मार्ग है। यूं तो नवरात्रि को नवदुर्गा की उपासना से भी जोड़कर रखा गया है, सर्वत्र दुर्गा की – महाकाली की पूजा होती है दुर्गा कहते हैं- दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषो को नष्ट करने वाली महाशक्ति को।नौ रूपों में मां दुर्गा की उपासना इसीलिए की जाती है कि वह हमारे इंद्रिय-चेतना में समाहित दुर्गुणों को नष्ट करती है। मनुष्य की पापमयि प्रवृतियां ही महिषासुर हैं। नवरात्रों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया और संयम द्वारा दमन किया जाता है। सहनशील आत्मा को दुर्गा-महाकाली-गायत्री कहा गया है। प्राण चेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति ‘महिषासुर-मर्दिनी’ बन जाती है।

नवरात्रि अनुष्ठान की उपचार प्रक्रिया संपन्न करने के साथ-साथ इस अवधि में आत्मचिंतन विशेष रूप से करना चाहिए। अब तक के जीवन की समीक्षा करके उसकी भूलों को समझने और प्राशचित के द्वारा परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। साधना-स्वाध्याय-संयम-सेवा यही है आत्म उत्कर्ष के चार चरण। अस्तु इन्हें इस प्रकार कितनी मात्रा में अपनी दिनचर्या में सम्मिलित रखना है इसका अति गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। 9 दिन की दिनचर्या एवं मन: स्थिति ऐसी रखी जाए मानो यह अवधि ऋषि जीवन जीने के लिए ही नियत हो। नवरात्रि अनुष्ठान काल में अनेक प्रकार के विधि-निषेधो का नियम पालन करने की परंपरा है। इसमें अपनी ओर से कुछ बातें छोड़ने और कुछ अपनाने का संकल्प करना चाहिए। घर को तपोवन बनाने और दिनचर्या में संत जीवन का समावेश करने का प्रयोग इन दिनों जितनी अच्छी तरह किया जा सके करना चाहिए।

नवरात्रि पर्व शक्तिपर्व-शक्तिसंचय पर्व कहलाता है। ‘ब्रह्म’ शक्ति एक ही है ‘गायत्री’। ‘गायत्री’ को ही ‘आदिशक्ति’ कहा गया है। दुर्गा-महाकाली-महालक्ष्मी आदि उसी महाशक्ति के विविध रूप हैं। अतः नवरात्रि में अनुष्ठान की महत्ता सर्वोपरि है। इसका प्रमुख कारण यह है कि गायत्री महाशक्ति अध्यात्म जगत में सर्वोपरि है, उसे भारती तत्वज्ञान और साधना विज्ञान की रीढ़ कह सकते हैं। ज्ञान दृष्टि से देखा जाए तो स्पष्ट है कि- इन्हीं 24 अक्षरों की व्याख्या से चारों वेद रचे गए हैं। ‘वेदमाता’ नाम से प्रख्यात इस महामंत्र के संबंध में माना जाता है कि भारतीय धर्म और अध्यात्म का कल्पवृक्ष जिस बीज के कारण उगा, बढ़ा और सुविस्तरित हुआ वह गायत्री मंत्र ही है। चारों वेद गायत्री के चार चरणों के चार व्याख्यान हैं। साधना की दृष्टि से गायत्री को सर्वांगपूर्ण एवं सर्व समर्थ कहा गया है। ‘अमृत’ – ‘पारस’ ‘कल्पवृक्ष’ और ‘कामधेनु’ के रूप में इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है। राम-कृष्ण आदि अवतारों की, देवताओं और ऋषियों की उपासना पद्धति गायत्री ही रही है। उसे सर्वसाधारण के लिए उपासना अनुशासन माना गया है। नवरात्रि में की गई गायत्री आदिशक्ति की उपासना अत्यंत फलदाई व कल्याणकारी मानी गई है। इसीलिए भारतवर्ष के तत्वदृष्टा ऋषियों अध्यात्म वेताओं ने नवरात्रि में साधना-उपासना का विधान सर्वसाधारण के आत्म कल्याण – विश्व कल्याण के लिए बताया था। जागृत साधक आत्माएं इस नवरात्रि के दिव्य मुहूर्त संयोग को पहचान कर लाभ उठाते हैं। नवरात्रि देव पर्व है उसमें देवत्व की प्रेरणा और देवी अनुकंपा बरसती है। अतः प्रत्येक भारतीय को किसी न किसी रूप में आदिशक्ति की उपासना-अर्चना करनी ही चाहिए इसी से भारतीयता-आध्यात्मिकता-मानवता की अभिवृद्धि होगी।

       लेख़क
डॉ. नितिन सहारिया
87208 57296