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पंथ बनाम मानवता के सन्दर्भों में – भगवतगीता

दो साल की गुजरात सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया कि श्रीमद्भगवत गीता को किताबों में शामिल करने का निर्णय लिया गया। मध्य प्रदेश सरकार ने कॉलेजों में भी भगवतगीता पर फैसला लिया। फलतः मुस्लिम जगत की ओर से इसका व्यापक विरोध देखने को मिला। मुस्लिम धर्म गुरुओं द्वारा कहा गया है कि यदि ऐसा है तो सभी धर्मों की पुस्तकें जानी चाहिए। पता नहीं क्यों ? इस देश में कथित सेक्यूलर जो ऐसे मामलों में विरोध करने के लिए अग्रणी रहते थे, वह देश के बदले धर्मगुरु और हिंदू के बढ़ते प्रवाह को देखते हुए मुखर हुए, इस कदम का विरोध करने की पुष्टि नहीं की गई, लेकिन समर्थन भी नहीं किया गया सुरक्षित। ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह है कि किताबों में गीता कौन सी है, किसी मजहब या पंथ की किताब कौन सी है?

अंतिम गीता कोई ऐसी किताब नहीं जो मात्र हिंदू धर्म से संबंधित हो। न तो कोई कर्मकांड का वर्णन है और न ही कोई ऐसे रीति-रिवाजों का जो व्यावसायिक व्यवसाय के लिए हो। इसमें जो कुछ है वह पूरी तरह से इंसान के लिए है। सभी मनुष्यों के लिए भगवान श्री कृष्ण ने कुरूक्षेत्र के मैदान में कर्म का संदेश दिया। उन्होंने मैसेज ही नहीं दिया, एबीएसई अर्जुन से भी पूछा- अर्जुन ने क्या कहा मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया? क्या मोह-माया-अज्ञानता समाप्त हो गई? अर्जुन ने निश्चय से उत्तर दिया- ”नष्टो मोहः स्मृतिवधा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत स्थितिस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव।” यानी मेरा मोह नष्ट हो गया, संदेह दूर हो गया। झूठे वचनों से और कृपा से मेरी स्मृति उपलब्ध हो गई। एक बड़े पैमाने पर फलक को देखना जरूरी है। पहली बात तो गीता निर्देश, संयम सिखाती है, बड़ी सच्चाई यही है कि यदि व्यक्ति में संयम, अनुशासन की कमी है तो न तो वह आध्यात्मिक रूप से सफल हो सकता है, न परिवार में, न व्यापार में। जीवन की किसी भी विधा के चरम को छूने में निश्चित रूप से सफलता नहीं मिलेगी। जैसा कि स्वामी सत्यमित्रानंद जी कहते हैं- ”अध्यात्म पूरे संसार को छूता है। उनका वैज्ञानिक स्पर्श से व्यक्ति की ऊर्जा जागृत होती है। अध्यात्म से यह भी नहीं कि वह जीवन से दूर ले जाये। ऐसे अध्यात्म की जीवन में व्याख्या भी नहीं है। ।। इसलिए प्रबंधन करने वाले को अपने जीवन के संतुलन को संतुलित करने का पूरा प्रयास करना चाहिए कि मेरा कोई रिश्तेदार, मित्र, स्थायी, अनुचित व्यवहार कर रहा है तो उसे दंडित करना सिखाएं। उसके कर्म को ठीक करना चाहिए। इसके लिए डिजिटल साइंस की सबसे पहली आवश्यकता है, लेकिन जीवन के लिए डिजिटल साइंस को अध्यात्म के साथ जोड़ना जरूरी है। देह के साथ-साथ व्यक्तित्व का चरित्र विमुख होता है। देह के साथ जब धृतराष्ट जुड़ता है तो वह संजय से पूछता है- ”ममकाः पाण्डवश्चैव किम् कुर्वत संजय” यानी मेरे और पाण्डु-पुत्रों ने क्या किया? पूछा था- कौरवों-पांडवों ने क्या किया? लेकिन अंधे होने पर भी उसका मोह अपनो के लिए ‘माँ’ शब्द प्रयोग करता है।

गीता में कृष्ण कहते हैं- ‘‘व्यवसायित्माक बुद्धि समाधान न विधीयते।’’ अर्थात जिन लोगो का मन चंचल है वे ठीक से निर्णय लेने में अपने को असमर्थ पाते हैं। जीवन की किसी भी व्यवस्था को यदि ठीक से चलाना है तो गीता के अनुसार पहला प्रयत्न अपने चित्त अपने मन को धीरे-धीरे ही सही, संतुलित करने की आवश्यकता है। जिन लोगो का मन चंचल है वे ठीक से निर्णय करने में सक्षम नहीं होते। गीता बार-बार कहती है- ‘‘धर्मस्य त्रस्यते महतो भयात (2/40) धर्म का छोटे-से-छोटा आचरण, अध्यात्म की छोटी सी क्रिया व्यक्ति का बहुत बड़े भय से बचा लेती है। गीता कहती है- ‘‘स्वकर्मणा तभम्यच्र्य सिद्धि विद्धति मानवः (18/40) यानी कुछ भी हो यदि कार्य करने की कला सीख ली तो वह सिद्धि प्राप्त कर लेता है जिसे प्राप्त करने का प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। (इसका तात्पर्य उस सिद्धि से नहीं जो चमत्कार की ओर ले जाती है) लेकिन गीता जिस सिद्धि की बात कर रही है, वह मनुष्य को आनंद की ओर ले जायेगी। जगत में रहते हुये भी व्यक्ति संसार में लिप्त नहीं होगा। इसी सिद्धि या प्रवीणता प्राप्त करने के चलते एक रविदास मोची को एक राजरानी के रूप में प्रतिष्ठित महिला मीरा ने अपना गुरू बनाया था।

गीता कहती है मनुष्य को सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय सभी में समभाव रखना चाहिए। यह भी संभव है- हार में कोई जीत छुपी हो या दुःख में कोई आनंनद छिपा हो। श्रेष्ठ व्यक्ति आपदा को अवसर में बदल देता है। इस तरह से गीता पूरी मनुष्य जाति से यह अपेक्षा करती है कि वह श्रेष्ठ या आर्य बनें। यह बड़ी सच्चाई है कि भारत सभ्यता व आर्थिक समृद्धि मैं अतीत में अग्रणी था, परन्तु जबसे राजनीति में धर्म का प्रभाव कम होना शुरू हुआ। गांधी के शब्दों में कहे तो धर्म विहीन राजनीति का दौर जबसे चला तो भारत में एक राष्ट के रूप में अवनति की शुरूआत हो गई। स्वतंत्र भारत में भी राजनीतिज्ञों में मोह-माया, तेरा-मेरा और भाई-भतीजावाद का प्राबल्य ही हमारी राष्ट्रीय असफलता का बड़ा कारक है। इधर हाल के वर्षों में मोदी और योगी ने बताया है कि एक सन्यासी दृष्टि से यदि शासन किया जाये तो सुशासन का दौर आ सकता है।

महान सिद्धांत एवं भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्व0 राधाकृष्णन का कथन था- ”गीता को विज्ञान की तरह पढ़ना और दर्शन की तरह की अभिलाषा स्वाभाविक है।” पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. कलाम का कहना था- ”गीता एक विज्ञान है और भारतीयों के लिए यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का गौरव है।” जर्मन धर्म के अधिकारी भाष्यकार होअर का कहना है- ”यह सब कालो के लिए सभी प्रकार के धार्मिक जीवन के लिए प्रमाणिक है।” ब्रिटिश साहित्य निश्चित ही पूर्ण रहेगा।” महात्मा गांधी ने कहा था- गीता के श्लोक उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य से गणित करने की ताकत देते हैं। जब प्रकाश की कोई किरण नहीं तब दूर बना देते हैं। लोकमान्य तिलक ने गीता पर भाष्य लिखकर बताया कि यह कर्म प्रधान है, यह पलायन का नहीं, संघर्ष का दर्शन है।” गीता जीवन जीवन की कला और यह विज्ञान है। समस्त मानव जाति के कल्याण का मार्ग गीता में निहित है। यह बताता है कि शरीर और मन का संबंध ठीक से नहीं तो सफलता नहीं मिलने वाली। अर्जुन के प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के प्रश्न हैं, क्योंकि यह जीवन एक युद्ध-क्षेत्र है। गौर करने का विषय है कि यदि अमेरिका के न्यू जर्सी विश्व विद्यालय में गीता की पढ़ाई हो सकती है तो भारतवर्ष में क्यों नहीं? जापान, जर्मनी, नीदरलैंड, स्वीडन में भी गीता किसी भी रूप में पढ़ाई जा रही है। हावर्ड विश्व विद्यालय में भी पढ़ाई करने वाली है। ऐसी स्थिति में भारत का एक वर्ग इसका विरोध करे, यह मित्रता ही कहा जाएगा। लेकिन वक्त की यह मांग है कि प्रत्येक अभ्यास और विश्व मंत्र में गीता का अध्ययन, अध्यापन केवल देश के लिए नहीं, संपूर्ण विश्व के लिए होगा।

लेखक – वीरेन्द्र सिंह परिहार