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भारतीय संस्कृति की आधारशिला : गीता

श्रीमद्भगवद गीता भारतीय संस्कृति की आधारशिला है जिसे हिंदू ग्रंथों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। गीता को सबसे प्राचीन जीवित संस्कृति एवं भारत की महान धार्मिक सभ्यता के प्रमुख प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। गीता को पांचवा वेद माना जाता है। इसकी रचना वेदव्यास जी ने की थी। सम्पूर्ण गीता में 18 पर्व एवं 1700 श्लोक हैं। यह महाभारत के भीष्म पर्व का ही एक अंग है।

धर्मक्षेत्र अर्थात कुरुक्षेत्र में कौरवों एवं पांडवों के बीच हुए युद्ध में अर्जुन अपने बंधु बांधवों को शत्रु सेना में खड़ा देख अपने कर्तव्य पथ से विमुख होने लगते हैं। वह अपना गांडीव रथ के पिछले भाग में रखकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि वह युद्ध नहीं करेंगे। अर्जुन को अपने कर्तव्य से विमुख होते देख श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया और कहा कि व्यक्ति को सदैव निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए और फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

“कर्मण्ये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन।

मां कर्मफलहेतु र्भूः मा सड्-गोस्वकर्माणि ।।”

जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया उसे गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है अर्थात इससे श्रीमद् भगवद गीता के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

यह शुक्ल एकादशी के दिन मनाई जाती है। इस दिन का अत्यधिक महत्व है। इस दिन पूजन एवं उपवास करने से हर तरह के मोह से मोक्ष मिलता है इसलिए इसे मोक्षदा जयंती भी कहते हैं।

गीता जयंती मनाने का उद्देश्य यह है कि हम सिर्फ गीता को लाल कपड़े में लपेटकर घर में ना रखें बल्कि इसके संदेशों पर चिंतन-मनन करें। इसके संदेश को जीवन में उतारें और उनका पालन करें। गीता का ज्ञान हमें दुख, लोभ, अज्ञानता से बाहर निकलने की प्रेरणा देता है। जीवन में सभी समस्याओं का हल गीता में है। गीता किसी संप्रदाय विशेष का ग्रंथ नहीं है बल्कि इसकी रचना प्रत्येक प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हुई है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसका अत्यधिक प्रभाव है। संसार की लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। गीता पर महात्मा गांधी, तिलक आदि ने भाष्य लिखे। यह ग्रंथ नहीं बल्कि संपूर्ण जीवन का सार है।

पाश्चात्य विद्वान हम्बाल्ट ने इसके विषय में कहा है -“किसी ज्ञात भाषा में उपलब्ध गीतों में संभवत: सबसे अधिक सुंदर और दार्शनिक गीता है”। गीता जगत की परम निधि है। महात्मा गांधी गीता के विषय में लिखते हैं – “जब मुझे समस्याएं सताती हैं तो मैं गीता माता की गोद में चला जाता हूं।जहां मुझे सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है।”

मनुष्य को संपूर्ण बनाने हेतु जिन मूल्यों की तत्वों की आवश्यकता होती है वे सब गीता में उपस्थित हैं। भगवान श्री कृष्ण ने महान ज्ञान तत्व की रूपी दुग्ध को उपनिषद रूपी गायों से दोहन कर निकाला है जिसे गीतामृत कहते हैं।

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदम:।

पार्थो वत्स: सुधीभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।

हिंदू धर्म के धर्म ग्रंथ वेद हैं।वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद। वेदों के सार को वेदांत या उपनिषद कहते हैं और उपनिषदों का संपूर्ण सार गीता में है।इसकी महत्ता का वर्णन शब्दों से संभव नहीं है। यह स्वयं भगवान श्री कृष्ण के मुखारविंद से निकली है।

“या स्वयं पद्मनाभ्स्य मुखपदमाद्विति: सृता:”

आज आवश्यकता इस बात की है कि गीता के कर्म योग के रहस्य को जानकर मानव जीवन को सुखकर बनाया जाए।गीता में वह शक्ति है जो निराशा को आशा में, हार को जीत में बदल सकती है।जीवन की हर भावनात्मक एवं मानसिक समस्या का समाधान गीता में है। गीता में वर्णित सभी सिद्धांतों का केंद्र बिंदु मानव को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है। ज्ञानयोग, भक्ति योग एवं निष्काम कर्मयोग तीनों में से सर्वश्रेष्ठ क्या है इसकी व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण बारहवें श्लोक में कहते हैं कि लगातार किए गए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से श्रेष्ठ भक्ति है, भक्ति से श्रेष्ठ निष्काम कर्म योग है क्योंकि निष्काम कर्म योग से शक्ति मिलती है।

गीता का दर्शन महानतम दर्शन है। गीता में वर्णित कर्मयोग से बिना थके, हारे बिना रुके अपने जीवन के श्रेष्ठतम कर्म किए जा सकते हैं। इसमें जीवन प्रबंधन के सभी सूत्र उपलब्ध हैं। यह युवाओं के लिए प्रकाश स्तंभ की तरह है जो हर अंधेरे में उन्हें सभी मार्ग दिखा सकती है।

कर्म की अवधारणा को प्रतिपादित करती गीता जितनी प्रासंगिक प्राचीन काल में थी उतनी ही आज भी है। आज के भौतिकवादी युग में इसके संदेशों को आत्मसात कर हम पलायन से पुरुषार्थ की ओर अग्रसर हो सकते हैं और निष्काम कर्म को जीवन जीने का आधार बनाकर हर प्रकार के तनाव से मुक्त हो आनंदमय जीवन जी सकते हैं।

प्रो. मनीषा शर्मा