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पर्यावरण के लिये आध्यात्मिक संदर्भ

हम यदि अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि हमारे पूर्वज पर्यावरण को स्वच्छ तथा वातावरण को स्वस्थ बनाये रखने के लिये अनेकानेक व्यवहारिक उपायों को क्रियान्वित करते रहते थे। उन्हें सब प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों वनों, नदियों, पर्वतों, झीलों, सरोवरों, पशुपक्षियासें, वृक्षों एवं पौधों के संरक्षण एवं उनके  सामाजिक महत्व को गहराई से समझा था।

यह उल्लेख तो ऋषि- मुनियों के तपोवन में गौ-पालन भी एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। गायों की सेवा और उनका पालन पोषण। इस कारण उन्हें पर्याप्त मात्रा में घी, दूध, दही आदि भी प्राप्त होता था जिससे यज्ञ-हवन आदि वातावरण को शुद्ध करना आध्यात्मिक महत्व के कार्यों के साथ स्वाभाविक रूप से सम्पन्न होता रहता था। इसके अलावा गायों द्वारा विसर्जित गोबर-मूत्र आदि का भी वहां होने वाले कृषि कार्योें में प्रयुक्त होता था।

बैल खेतों में हल चलाने, बैलगाड़ी आदि से सामग्री यहां से वहां ले जाने में सुलभ हो जाते थे। आश्रमों में फल- फूल, सब्जियाँ, खाद्य पदार्थों के अलावा जड़ी-बूटियाँ भी उगायी जाती थी जिनसे बीमार व्यक्तियों के दुर्लभ रोगों का उपचार भी सम्भव हो सकता था। ये सब प्रयास वातावरण को शुद्ध और उन्मुक्त बनाये रखते, पक्षी चहचहाते, हिरण, खरगोश, मोर आदि मन को आल्हादिक कर देने वाले पशु- पक्षी बिना भय के विचरण करते रहते थे। न तो शिकारी पशुओं को परेशान कर सकते थे, न ही अनावश्यक पूर्ण से पेड़ों की कटाई हो सकती थी। वातावरण में हरियाली सदैव दृष्टिगोचर होती थी।

ऋषि-मुनियों और आश्रम में रहने वालों की दिनचर्या तो स्वाभाविक रूप से नित्य प्रातः उठना, ध्यान-ध्यान, यज्ञ-हवन, वेद मंत्रों का उच्चारण, पठन-पाठन आदि होते ही हैं। यही कारण है कि  पर्यावरण के संरक्षण हेतु नदियों, पहाड़ों, कुंआ-तालाबों, सरोवरों आदि को पूजन योग्य माना। हिमालय आदि क्षेत्र तो आध्यात्मिक तप साधना के केन्द्र ही बन गये थे।

घरों में तुलसी के पौधे लगाने और उनका पूजन का निर्देश के पीछे वातावरण को स्वच्छ बनाये रखना ही रहा होगा। बरगद, नीम, आम, केला, गूलर, विल्ब, आँवला आदि वृक्ष उपयोगी होने के कारण पूजनीय भी बना दिया गया ताकि उनका सहज संरक्षण होता रहे।

पशु-पक्षियों को महत्व प्राप्त हो सके इसलिये देवी-देवताओं के वाहन के रूप में स्वीकारा गया। भगवान शिव के वाहन नंदी (बैल), भगवान विष्णु के वाहन गरूड़, ब्रह्मदेव व माता सरस्वती के वाहन हंस। भगवान गणेश के वाहन मूषक, भगवान कार्तिकेय के वाहन मयूर (मोर) व भगवान यमराज के वाहन भैंसा आदि। इसी प्रकार नागों को जंतुयोनि में ब्राह्मण समक्ष मान्यता दी गयी है। और इसलिये भगवान श्री शिव ने उन्हें अपने यज्ञोपवीत के रूप में धारण किया है। वहीं भागवान विष्णु ने शेषनाग को अपनी शैयाके रूप में अपनाया। भगवान दत्तात्रेय ने कुत्तों की भी उपयोगिता बतायी है और उन्हें अपने साथ रखा।

जीव जन्तुओं व पशु पक्षियों के प्रति मनुष्य दयालु बना रहे और जीव संरक्षण होता रहे- यही प्रयास प्रारम्भ से ही रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण का मयूरपंख से प्रेम और गोकुल में की गयी गायों की सेवा व अनुरक्षण सर्वोपरि रहा है। इतिहास में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त को मयूरों से बहुत अधिक प्रेम था, इसी कारण उनके लिये एक वाटिका भी राजमहल में बनवायी थी। इसी प्रकार राजकुमारी दमयंती का हंसों के प्रति प्रेम के आख्यान प्राप्त होते हैं। भोजपुर क्षेत्र में महिलायें तोता पालना शुभ मानती थी। कबूतरों का प्रयोग संदेश वाहक के रूप में किया जाना तो, प्रख्यात रहा ही है।

श्रीमद्भगवत गीता में पुराण पुरूष श्रीकृष्ण ने जीव-जन्तुओं, वृक्ष-वनस्पतियों, नदी- पर्वतों की श्रृंखला को अपनी विभूतियों के रूप में प्रदर्शित किया है, और उनको महत्व का प्रतिपादन करते हुये मानों आने वाले युग में बिगड़ते हुये पर्यावरण की दिशा को ठीक करने का ही संकेत स्पष्ट रूप से दिया है।

क्या हमने अपने पूर्वजों द्वारा की गयी अद्भुत एवं कल्याणकारी शिक्षा को भुला नहीं दिया? उसे भुला देने का कुपरिणाम है कि हमें विभिन्न घातक बीमारियों के साथ-साथ जीवन के लिये संघर्षरित रहना पड़ रहा है।

बेतहासा जंगल काटे जा रहे हैं और कांक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं। वनों का महत्व समझने के लिये श्रीराम का चैदह वर्षीय वन्य जीवन, पांडवों का अधिकांश जीवन वन प्रदेशों में व्यतीत किया जाना, याद रखा जाना चाहिये था।

वनों से, वृक्ष-पौधे से जमीन की मिट्टी की रक्षा होती है, जल के शुद्धिकरण की प्रक्रिया जारी रहती है, जलवायु नियंत्रण, धूल, आँधी एवं ध्वनि प्रदूषण की क्षति पहुंचाने की प्रक्रिया में बदलाव आता है, वहीं वन्य जीवों को उनकी प्रजातियों आश्रय भी प्राप्त होता है, उन्हें उनके भरण-पोषण की पर्याप्त सामग्री भी मिलती रहती है। इतना ही नहीं ईंधन, इमारती लकड़ी, शहर दवायें, जड़ी-बूटियाँ, बाँस, वेंत, घास, वृक्षों के पत्ते कंद मूल फल, आदि अनेक प्रकार की सामग्री अनवरत प्राप्त होती रहती है। क्या हमें उनके संरक्षण के लिये सजग नहीं होना चाहिये ?

यदि हम वास्तव में अच्छे जीवन और उसके लिये स्वस्थ पर्यावरण  की आवश्यकता को समझते हैं तो इन सबको सहेजने के लिये आज से प्रयास करना प्रारम्भ कर देना चाहिये।

 वरिष्ठ लेख़क
 डाॅ. किशन कछवाहा
 9424744170