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पीएफआई पर प्रतिबंध : सही समय पर उठाया गया सही कदम

आज सुबह भारत सरकार ने पीएफ़आई (पापुलर फ्रंट ऑफ इण्डिया) सहित कुछ और संगठनों को पांच सालों के लिए प्रतिबंधित कर दिया । बीते कुछ दिनों से चल रही देशव्यापी छापेमारी में बड़ी संख्या में उक्त संगठनों के कार्यकर्ता गिरफ्तार हो चुके हैं । उनसे बरामद चीजों से ये संदेह पुख्ता हो गया है कि उनकी गतिविधियों का दूरगामी उद्देश्य इस देश में इस्लामी राज स्थापित करना था । देश भर में फैला इनका नेटवर्क मुस्लिम युवकों को संगठित उपद्रव करने हेतु प्रेरित और प्रशिक्षित करता रहा है ।

सी.ए.ए और एन.आर.सी के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग़ के अलावा जामिया मिलिया विवि, जेएनयू, अलीगढ़ मुस्लिम विवि , उस्मानिया विवि. और जादवपुर विवि के अलावा देश के विभिन्न शहरों में जो हिंसक आन्दोलन और हिंसक वारदातें हुईं उनमें उक्त संगठनों की भूमिका का संदेह था । इसी तरह कर्नाटक से उठे हिजाब विवाद को भड़काने में भी पीएफआई का हाथ स्पष्ट है ।

उल्लेखनीय है सिमी जैसे मुस्लिम संगठन पर 2014 में मनमोहन सरकार ने जो रोक लगाई थी उसे मोदी सरकार ने जारी रखा है । सिमी पर भी ये आरोप था कि वह सामाजिक संगठन होने की आड़ में इस्लामिक आतंकवाद की जड़ों को सींच रहा था । शुरुआत में पीएफआई ने भी खुद को सामाजिक संगठन बताया था । लेकिन धीरे-धीरे ये पता चला कि उसकी गतिविधियाँ सिमी जैसी ही हैं । बावजूद उसके पुख्ता सबूत नहीं मिलने की वजह से जांच एजेंसियां और सरकार कुछ कर पाने में असमर्थ थे । लेकिन हालिया छापों में जो प्रमाण मिले उनके बाद केंद्र सरकार ने आज ये कड़ा निर्णय लिया ।

पीएफआई और उसके साथ प्रतिबंधित सहयोगी संगठनों को विदेशी सहायता मिलने के साक्ष्य भी जाँच एजेंसियों के हत्थे लगे हैं । ये जानकारी भी मिली कि निकट भविष्य में उनके द्वारा बड़े नेताओं की हत्या जैसी साजिश रची जा रही थी । इसमें दो राय नहीं है कि देश भर में अनेक इस्लामिक संगठनों की गतिविधियाँ संदेहास्पद हैं । अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाकर ये संगठन देश में अस्थिरता फैलाने का काम कर रहे हैं । विशेष तौर पर सीमावर्ती राज्यों में उनकी गतिविधियाँ पूरी तरह से देश हित के विरुद्ध हैं । ये कहना भी गलत न होगा कि देश में लालू , मुलायम, ममता और दिग्विजय जैसे राजनेता महज वोटों के लालच में मुस्लिम संगठनों को अपने कन्धों पर बिठाने में रत्ती भर संकोच नहीं करते । यही वजह है कि पीएफ़आई सरीखे संगठनों के विरुद्ध इनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता । बीते कुछ समय से पीएफआई पर छापे मारकर उसके सैकड़ों कार्यकर्ताओं को जेल भेजा गया लेकिन विपक्ष ने उस पर कोई प्रतिक्रया नहीं दी क्योंकि वैसा करने पर मुस्लिम मतों की नाराजगी का अंदेशा था । तुष्टीकरण की इसी प्रवृत्ति ने देश के अनेक हिस्सों में जनसँख्या का संतुलन इस हद तक बिगाड़ दिया है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कोई गैर मुस्लिम वहां से चुनाव जीत ही नहीं सकता ।

लोकतान्त्रिक देश होने से भारत में सभी को अपने धर्म के पालन की सुविधा है । लेकिन ये प्रमाणित हो चुका है कि जिस भी हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्यक होते हैं वहां अलगाववादी ताकतें पैर ज़माने लगती हैं । ये बात केवल मुस्लिमों पर ही लागू होती हो ऐसा नहीं है । कुछ उत्तर पूर्वी राज्यों में जहां ईसाई आबादी की बहुलता है वहां भी अलगाववादी मानसिकता पनपी । सही बात तो ये है कि भारत की अखंडता को भंग करने वाली विदेशी शक्तियां इस मानसिकता को पोषित करने में सहायक है । जिस तरह धर्मांतरण के लिए ईसाई सगठनों को विदेशी मदद मिलती है उसी तरह इस्लामी देश भारत को इस्लाम के रंग में रंगने हेतु भरपूर धन भेजते हैं ।

पीएफआई जैसे संगठन उसी के बल पर इतने सक्रिय और शक्तिशाली बन बैठे । इस बारे में कश्मीर घाटी का उदाहरण प्रासंगिक होगा जहाँ के अलगाववादी नेताओं को मिलने वाली विदेशी सहायता के रास्ते बंद किये जाते ही उनकी कमर टूटने लगी । पीएफआई जैसे संगठनों ने ही मस्जिदों से नमाज पढ़कर निकलते समय पत्थरबाजी और आगजनी जैसी हरकतों को प्रायोजित किया । सिर तन से जुदा जैसे उन्मादी कृत्य को अंजाम देने के पीछे ऐसे ही संगठन काम करते हैं ।

मुस्लिम समाज के धर्मगुरु भी इन संगठनों की करतूतों की जैसी अनदेखी करते हैं उससे भी संदेह पैदा होता है । मदरसों की जांच में जो खुलासे हो रहे हैं उनकी वजह से भी मुस्लिम समाज की छवि पर दाग लगे हैं । ये सही है कि अशिक्षा के कारण मुस्लिम समुदाय मुल्ला-मौलवियों के साथ ही आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पीएफआई सरीखे संगठनों के शिकंजे में जकड़ जाता है ।

कश्मीर घाटी में हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने युवकों को पैसे देकर सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने के लिए उकसाया जिसकी देखा-सीखी देश भर में पत्थरबाजी मुस्लिम समुदाय की पहिचान बन गई । भले ही इस समाज के कुछ धर्मगुरु और बुद्धिजीवी दिखावे के लिए इन घटनाओं की निंदा कर देते हों किन्तु उसे रोकने के लिए जैसे कदम उठाये जाने चाहिए थे उनसे वे सदैव बचते रहे ।

दुर्भाग्य की बात ये है कि मुस्लिम समाज में शिक्षा ग्रहण करने के बाद आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सुदृढ़ हो चुके लोग भी अलगवावादी मानसिकता के विरुद्ध खुलकर बोलने का साहस नहीं करते । पीएफआई पर प्रतिबंध लगने का स्वागत मुस्लिम समुदाय के पढ़े-लिखे लोगों द्वारा किया जाए तो निश्चित तौर पर वह मुसलमानों के हित में ही होगा । काग्रेस नेता दिग्विजय सिंह रास्वसंघ के विरुद्ध तो बहुत कुछ बोला करते हैं लेकिन बीते अनेक दिनों से पीएफआई पर हो रही छापों की कार्रवाई पर उन्होंने एक शब्द तक नहीं कहा । और तो और छापों के विरोध में पीएफआई द्वारा आयोजित केरल बंद के दिन राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा स्थगित रखी गयी ।

आतंकवाद की समस्या किसी एक या कुछ राजनीतिक दलों की नहीं , अपितु समूचे देश की है । कश्मीर में हिन्दुओं की हत्याओं का जिक्र आने पर अनेक लोग ये सफाई देते है कि आतंकवादियों के हाथों मरने वालों में कश्मीरी मुसलमान भी कम न थे । लेकिन उसके बावजूद घाटी के मुसलमान कभी आतंकवादियों के विरुद्ध खुलकर सड़कों पर नहीं उतरे । उलटे किसी आतंकवादी को सुरक्षा बलों द्वारा घेरे जाने पर वे उसे बचकर निकलने का अवसर देने के लिए पत्थर फेंकने जैसी हरकत में जुट जाते ।

केंद्र सरकार ने पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर सही काम किया गया है जिसका राजनीति से ऊपर उठकर स्वागत किया जाना जाना चाहिये । लेकिन ऐसा संभव नहीं लगता क्योंकि कांग्रेस के सांसद के. सुरेश ने पीएफआई के साथ ही रास्वसंघ पर भी प्रतिबन्ध लगाये जाने की मांग जो कर डाली ।

     लेख़क 
रविन्द्र वाजपयी