Trending Now

पुराणों में गौ -महात्म्य – डाॅ. किशन कछवाहा

भारतीय संस्कृति में ‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषू’’ की धारणा के अनुकूल प्रकृति के जड़-चेतन सभी को समादरित करते हुये उनके संरक्षण एवं संवर्धन को विशेष महत्व देने की बात का सदियों से अनुगमन होता आया है। गाय को एक प्राणी ही नहीं मातुल्य मान्यता दी गयी है। माता का स्थान स्वर्ग से ज्यादा महत्व का बताया गया है। जिस प्रकार प्रत्येक माँ अपने नवजात शिशु का लालन-पालन करते हुये अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के लिये सुयोग्य एवं संस्कारवान नागरिक बनाती है, उसी प्रकार गौमाता भी पालन-पोषण में अपना आत्मिक सहयोग देते हुये धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक ऊर्जा से श्रेष्ठ एवं स्वावलम्बी बनाने में अपना योगदान देती है। इन्हीं कारणों से भारत में प्राचीनकाल से ही हमारे दिव्य वैदिक ग्रंथों में गौ-माता को पूज्यनीय माना गया है। साथ ही उसकी संपूर्ण सुरक्षा के दायित्व को भी महत्वपूर्ण माना गया है। यशस्वी महाराजा दिलीप, भगवान श्रीकृष्ण के इस संदर्भ में आये आख्यानों से उस महत्ता को सहज ही समझा जा सकता है। गाय का एक नाम सुरभि और स्वर्ग के समान अनुपम लोक को गौलोक कहा जाना, उसके महत्व को प्रतिपादित करता है।

भारतीय संस्कृति की यह गूढ़ मान्यता कि ‘‘गौमाता’’ में तैंतीस करोड़ देवता निवास करते हैं- यही निर्देशित करती प्रतीत होती है कि गायों में कुछ विशेषता तो है, जो गायों के स्वभाव एवं क्रियाओं में सहज ही दृष्टिगोचर होती है। इस तथ्य को कौन नकार सकता है कि गाय के दूध में अमृत के गुणों का प्राचुर्यमात्रा में प्राप्त होना पाया जाता है।

गाय को कामधेनू भी कहा गया है, ऐसी मान्यता प्राचीन काल से ही चली आ रही है कि इसके पालन-पोषण एवं सेवा करने से समस्त प्रकार की कामनाओं की सहज ही आपूर्ति हो जाना भी सम्भव है। पुराणों में एक आख्यान ऐसा भी मिलता है कि जामदग्नि ऋषि के पास ऐसी ही एक कामधेनू – गाय थी, जिससे उनकी समस्त प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी। महाराज दिलीप द्वारा की गयी गौ-सेवा का ऐसा ही उल्लेख मिलता जिन्हें उस सेवा के परिणाम स्वरूप सन्तान की प्राप्ति हो गयी थी।

गाय से प्राप्त पंचगव्य का महत्व भी अलौकिक ही है, जिसे मानव स्वास्थ्य, मानसिक विकास बौद्धिक विकास की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी बतलाया गया है।

आर्थिक संरचना के आधार पर भी गाय का अत्यधिक महत्व है। कृषि प्रधान देश होने के कारण कृषि में आजीविका चलाने, फसल घरों तथा मंडियों तक पहुंचाने, कुँओं से पानी निकालने में भी बैलों की महत्ता को आज वैज्ञानिक संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद नकारा नहीं जा सकता। कृषि, पशुपालन, गौ-पालन ही इस देश की समृद्धि व गाँवों के स्वावलम्बन का प्रमुख आधार रहा है। मशीनीकरण और विदेशी पद्धति द्वारा खेती के परिणाम स्वरूप अनेक विकृतियाँ भी आयी हैं। जबकि गौ-वंश आधारित कृषि के अनेकानेक लाभ हैं।

गाय का शुष्क गोबर जिसका उपयोग कन्डों और उपलों के रूप में होता रहा है, अब खाद के लिये किये जाने से तथा बायोगैस संयंत्रों के माध्यम से ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत बन गया है।

औषधीय महत्व की दृष्टि से विशेषज्ञों का मानना है कि गौ- दुग्ध और उससे उत्पन्न होने वाले गौ-मूत्र और गोबर अत्यधिक उपयोगी है। इनसे निर्मित पंचगव्य पूजन और संस्कारों के अलावा औषधियों के विभिन्न रूपों तथा नाड़ी-शोधन के लिये उपयोगी माने गये हैं। दुग्ध का निर्माण वात्सल्य से होता है और वात्सल्य की जननी गाय है। गाय के मल-मूत्र की पवित्रता ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि गाय त्रिगुणातीत प्राणी है। पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि गाय में और निर्गुण निराकार सच्चिदानन्द परमात्मा में बिल्कुल अंतर नहीं है।

प्राचीन काल से ही हमारे देश के आध्यात्मिक सन्त, महात्माओं, ऋषि-मुनियों, महापुरूषों ने पृथ्वी के जिन सात स्तम्भों की परिकल्पना कर रखी है उनमें ब्राह्मण, वेद सत्तीनारियाँ, सत्यवादी पुरूष लोभरहित पुरूष और दानशील  पुरूष और गाय हैं। गायों से सुरक्षित रहने से वेदपाठी ब्राह्मण सुरक्षित रहता है, ब्राह्मण के सुरक्षित रहने से वेद-पुराण सुरक्षित रहते हैं और वेद-पुराण सुरक्षित रहने से समाज में सदाचार और सदाचारी पुरूषों की उत्पत्ति सम्भव हो सकेगी। सदाचारी पुरूषों के रहते नारियों का सतीत्व भी सुरक्षित रहेगा। इस श्रृंखला के सही रहने से पवित्रता का वातावरण निर्मित होकर सत्यवादी व्यक्ति सदाचार से अपनी सुगंध बिखेरते रहेंगे और समाज का कल्याण होता रहेगा।

वर्तमान युग लोभ-मोह का युग है और व्यक्ति तरह-तरह की कुप्रवृत्तियों से घिरता चला जा रहा है। इसी का कुपरिणाम है कि पृथ्वी, जल, वायु, आकाश सभी मानव एवं अन्य प्राणियों के लिये नुकसानदायक सिद्ध होते चले जा रहे हैं। पर्यावरण कितना विषाक्त हो गया है-इससे आम आदमी अभी तक बेखबर बना हुआ है। इस विषाक्तता के कारण व्यक्ति के मन और बुद्धि से उत्पन्न विचार दूषित प्रभाव ही छोड़ रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि स्थिति ऐसी ही बनी रही तब भी आगामी तीस- चालीस वर्षों में कैंसर जैसे खतरनाक रोगों का सामना करना पड़ सकता है।

आज गाय और उसके वंश को कत्लगाहों की ओर भेजा जा रहा है, जिसकी उपयोगिता ऐसे विषाक्त वातावरण में मानवजाति के लिये अत्यन्त आवश्यक है। यह सर्वोपयोगी प्राणी मानव के भविष्य का आधार है। इसकी महती उपयोगिता को देखते हुये यह आवश्यक रूप से स्वीकार कर लिया जाना चाहिये कि गौ-पालन सभी दृष्टि से मानव जीवन के लिये अत्यन्त उपयोगी है।

राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी गौ हमारी माता है और यह हमारे राष्ट्रीय चिन्तन का प्रतीक है। राष्ट्रीय और राजनैतिक स्वरूप है जिसको विस्मृत कर दिये जाने के कारण विदेशियों को हमारे राष्ट्र भारत को छिन्न-भिन्न करने का अवसर प्राप्त हो गया। किसी राष्ट्र की संस्कृति, उसके विकसित सांस्कृतिक मूल्य और उसके प्रतीक उस राष्ट्र के प्राण होते हैं, और प्राण रहित शरीर की तरह सांस्कृतिक मूल्यों एवं जीवन मूल्यों के नष्ट होने पर होती है। हिन्दु संस्कृति के प्रमुख प्रतीक गौ, गायत्री और गंगा ही प्रमुख रहे हैं।  इससे इसकी महत्ता का सरलता से समझा जा सकता है।

भारतीय संस्कृति से पुरोधा माने जाने वाले महामना पं. मदनमोहन मालवीय से इंग्लैण्ड की यात्रा में किसी ने पूछा तो उन्होंने अच्छे दूध के उत्तर में बताया था भैंस का दूध। दूसरा प्रश्न किया गया तब उन्होंने बतलाया था कि  गाय का दूध तो अमृत है जैसे जल में गंगा का जल।

विदेशी कुचक्रों के कारण हम अपनी संस्कृति को भूलकर गौ-संवर्धन एवं कृषि की उपयोगिता में गाय, गाय के गोबर व गौ-मूत्र के उपयोग से दूर होते जा रहे हैं। इसके कारण भारतीय संरचना में अनेकों विकृतियाँ उत्पन्न हो गयीं हैं। अब तक के अनुसंधानों और प्रत्यक्ष परिणामों को देखकर यह सुनिश्चित हो गया है कि भारत की भूमि अपनी उत्पादकता खो चुकी है, पर्यावरण और प्रकृति के तत्वों में विषैलापन आ चुका है-यह सब उर्वरक भूमि पर यूरिया, हानिकारक पेस्टीसाईड और अन्यान्य विषैले  केमिकलों का खेती में उपयोग किये जाने का परिणाम है, कि हमें विषैला हानिकारक अन्न और भोजन मिल रहा है, गम्भीर बीमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं। क्या इसे रोकने के लिये गौ-संवर्धन और कृषि में गाय गाय का गोबर और गौ-मूत्र का बढ़ाना जरूरी नहीं है? यह नुकसान रहित है। आयुर्वेद एवं प्राचीन चिकित्सा पद्धति के जानकारों का मानना है कि जिन गम्भीर बीमारियों से ग्रसित होने पर मरीजों को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के जानकार असमर्थ हो जाते हैं, उन गम्भीर बीमारियों की चिकित्सा गौ-मूत्र के माध्यम से सहज की जा सकी है।

भारतीय देशी गाय की महिमा का बखान कर पाना सम्भव नहीं है। गाय जीवन पर्यन्त अपना दूध-अमृत पिलाती रहती है। विदेशी नस्लों की गाय के दूध में वह विशेषता नहीं मिलती है, वह गुण उस दूध में नहीं है। प्रकृति के पंचतत्वों का रचना का आधार गौमाता है और इन तत्वों की गति बिगड़ जाने पर उसका उपचार भी गौ-मूत्र और गौ-दुग्ध के सेवन से सम्भव है। कहा गया है कि गाय हमारी सृष्टि का आधार है। 

बृहत् पराशर स्मृति में गौ-महिमा, वृषभ-महिमा तथा कृषि कर्म का वर्णन मिलता है। इस स्मृति में गौसेवा, गौ महिमा, वृषभ-महिमा (……………..तस्माद वृषात् पूज्य तमो स्ति मान्यः। पराशर स्मृति 5/53, 10/32) तथा कृषि पर अत्यन्त उपयोगी बातें मिलती हैं।

इस स्मृति (5-34-41) में उल्लेख मिलता है कि गौओं के सींगों के मूल में ब्रह्माजी और दोनों सीगों के मध्य में भगवान नारायण का निवास है। सींग के शिरोभाग में भगवान शिव का निवास जानना चाहिये। इस प्रकार ये तीनों ईश्वर स्वरूप हमारे आराध्य गौ के सींग में प्रतिष्ठित हैं। इसके अतिरिक्त सींग के अग्रभाग में चर तथा अचर सभी तीर्थ विद्यमान रहते हैं। अतः गौ सर्वदेवमयी है।

गौ माता की महिमा अनन्त है और उसकी सेवा की महिमा भी अनन्त है। गौओं के समान कोई भी धन नहीं है। गौमाता का स्पर्शमात्रा समस्त पापों का नाश कर देने वाला है और आदरपूर्वक सेवा अपार सम्पत्ति प्रदान करने वाली है। ये गायें दान दिये जाने  पर सीधे स्वर्ग ले जाती हैं।

संस्पृशन गौ नमस्कृत्य कुर्यात् तांच प्रदक्षिणम्।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुंधरा।। 

-गाय को देखने पर स्पर्श करते हुये व्यक्ति प्रणाम करे और उनकी प्रदक्षिणा करे। इस प्रकार जो करता है मानो उसने समस्त सप्तद्वीपवती पृथ्वी की ही परिक्रमा कर ली।

धर्मशास्त्रों में इस तथ्य का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति ब्राह्मण (वेद-पाठी) या गौ की रक्षा करता है या इनके लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देता है, वह ब्रह्म हत्या जैसे महान पातकों से छूटकर उत्तम लोकों को प्राप्त करता है। (पराशर स्मृति 8/42)।

श्रीमद्भगवद्गीता में (18/44) में ‘कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्’ कहकर वैश्य का स्वाभाविक कर्म निरूपित किया गया है।

धर्म की बातें कागज पर लिखने की नहीं, हृदय में उतारकर आचरण करने की हैं। गाय का आध्यात्मिक रूप तो पृथ्वी है ही, प्रत्यक्ष रूप में भी उसने पृथ्वी को धारण कर रखा है। समस्त मानव जाति को किसी न किसी प्रकार से गौ के द्वारा जीवन तथा पोषण प्राप्त होता है। प्राचीनकाल में समस्त प्राणियों का कल्याण करने की दृष्टि से किये जाने वाले यज्ञों में घृत की आवश्यकता होती थी, लेकिन आज तो वह दुर्लभ हो गया है।

लीलामय श्रीहरि की लीला में ऐश्वर्य और माधुर्य दो वस्तुयें हैं। ऐश्वर्य में उनके महत्व और माधुर्य में उनके प्रियत्व का प्रकाश है। श्री भगवान ने पूतना का वध करते स्तन्यपान किया। वध में ऐश्वर्य और स्तन्यपान में माधुर्य है- दोनों के इस मिलन के चमत्कारपूर्ण रहस्य को समझा जाना चाहिये। वहीं श्रीकृष्ण वृन्दावन में गो-पालक हैं।

अश्वत्थं रोचनां गां च पूजयेत यो नरः सदा।
पूजितं च जागत् तेन सदैवासुरभानुषम्।।
कल्प उत्थाय यो मत्र्यः स्पशेद् गां वै घृतं देधि।
सर्षपं च प्रियंगु च कल्मषात् प्रतिमुच्यते।।

जो मनुष्य अश्वत्थ वृक्ष, गो रोचना और गौ की सदा पूजा करता है, उसके द्वारा देवताओं, असुरों और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् की पूजा हो जाती है। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातः काल उठकर गाय, घी, दही, सरसों और राई का स्पर्श करता है, वह पाप से मुक्त हो जाता है (महा. अनु. 126)।

‘‘वृषो हि भगवान् धर्मः।’’ स्कन्द पुराण सेतु-महात्म्य के धर्मतीर्थ-धर्मपुष्करिणी-प्राकट्य कथा-वर्णन में उल्लेख उपलब्ध है कि धर्म देवता ने भगवान शंकर का जप-ध्यान करते हुये घोर तपस्या की थी और वरदान स्वरूप उध्ध्ध्ध्ध्ध्ध्नका वाहन बनने में ही अपनी कृतार्थता व्यक्त की।

धर्माचरण के अंतर्गत ‘‘पन्था देवो ब्राह्मणाय गोम्यो राजभ्यः एव च।’’ भगवान श्रीराम की दिनचर्या में ‘‘गौशाला में जाकर गायों की देखरेख करना भी शामिल था। भगवान श्रीकृष्ण धर्म के परम आदर्श हैं। वे प्रातःकाल दुधार, पहले पहल व्यायी हुई, बछड़ों वाली सीधी-शान्त तेरह हजार चैरासी गौओं का दान करते थे। इन गौओं को सुन्दरवस्त्र, मोतियों की माला पहना दी जाती थी। सींगों में सोना और खुरों में चाँदी मढ़ दी जाती थी।’’

गायें अत्यन्त पवित्र एवं मंगलकारी है। गायों को ग्रास देने से स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा होती है। गो-मूत्र में गंगाजी का निवास है, इसी प्रकार गौधूलि में अभ्युदय  का निवास है, गोमय में श्रीलक्ष्मी का निवास है और उन्हें प्रणाम करने में सर्वोपरि धर्म का परिपालन हो जाता है।

धर्मशास्त्रकार महर्षि देवल और उनकी देवल स्मृति में पंचगव्य की महिमा वर्णित है। उसमें बताया गया है कि गोमूत्र में बरूण देवता, गोमय में अग्निदेव, दुग्ध में सोम देवता, दधि में वायु देवता और घृत में सूर्य देवता का निवास है। (श्लोक 62-64)

वृद्ध गौतम स्मृति में कपिला-गोदान प्रकरण में विस्तार से गो महिमा निरूपित है-

पितरो वृषमा ज्ञेया लोकस्चय मातरः।  
तासां तु पूजया राजन् पूजिता पितृ मातरः।। (बृद्धगौतम 13-22)।