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प्रधानमंत्री का आचरण राजनेताओं के लिए सन्देश

गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की वयोवृद्ध माताजी का निधन हो गया । वे दिल्ली से अहमदाबाद पहुंचे और बिना किसी तामझाम के उनका अंतिम संस्कार किया । नगर निगम के शव वाहन में माँ के पार्थिव शरीर के साथ बैठकर वे श्मशान भूमि गए । वहां भी बिना भीड़ एकत्र किये उन्होंने माँ को मुखाग्नि दी और लौटकर राजभवन में आभासी माध्यम से कोलकाता में आयोजित पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए जिसके लिए उन्हें वहां जाना था ।

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प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री की माँ को अपनी माँ बताते हुए उन्हें आराम करने की सलाह भी दी किन्तु श्री मोदी ने शोक की घड़ी में भी कर्तव्य के निर्वहन को प्राथमिकता दी और शाम दिल्ली लौट गए । प्रचार माध्यमों में उनकी इस सोच के प्रति प्रशंसात्मक भाव व्यक्त किये जाने लगे । साधारण सी अर्थी कंधे पर लिए अपने भाई के साथ चलते प्रधानमंत्री के चित्र देखते – देखते दुनिया भर में प्रसारित हो गये । शोक संदेशों की बाढ़ आ गयी । ऐसे अवसरों पर राजनीतिक मतभेद भूलकर सांत्वना और संवेदना व्यक्त करने का जो शिष्टाचार है उसका भी विधिवत पालन होता दिखा जो निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है । लेकिन कुछ घंटों के बाद ही छींटाकशी का सिलसिला शुरू हो गया । कुछ लोगों को प्रधानमंत्री द्वारा माँ की चिता ठंडी होने के पहले ही काम में लग जाना बुरा लगा तो किसी ये बात नागवार गुजरी कि उन्होंने बजाय शोकाकुल होकर बैठने के कोलकाता में वन्दे भारत ट्रेन के शुभारम्भ के साथ ही कुछ और विकास योजनाओं की शुरुआत की, जिन्हें या तो स्थगित किया जा सकता था या फिर कोई और उस कार्य को कर देता । साधारण तौर पर हमारी सामाजिक व्यवस्था में शोकग्रस्त व्यक्ति सब काम छोड़कर निर्धारित कर्मकांड में उलझकर रह जाता है । लेकिन प्रधानमंत्री का एक – एक क्षण पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार उपयोग होता है । उनके किसी भी आयोजन की तैयारियां अग्रिम रूप से की जाती हैं जिन पर भारी खर्च होता है । शासन – प्रशासन के साथ ही आम जनता भी ऐसे आयोजन से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जुड़ जाती है । ऐसे में उसका रद्द होना लोगों को तो निराश करता ही है, सरकारी पैसे की बर्बादी भी होती है । ये देखते हुए श्री मोदी ने निजी दुःख को दरकिनार रखते हुए समाज को जो सन्देश दिया वह महत्वपूर्ण है । हमारे देश में वीआईपी संस्कृति के कारण पद, प्रतिष्ठा और पैसे के भौंड़े प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी । शादी – विवाह ही नहीं अपितु शोक प्रसंगों में भी वैभव और हैसियत का दिखावा होने लगा । उस दृष्टि से प्रधानमंत्री ने अपनी माताजी के अंतिम संस्कार में जिस सादगी का परिचय दिया वह कम से कम राजनीतिक जगत के लिये तो सन्देश है ही । वे चाहते तो पार्थिव शरीर को जनता के दर्शनार्थ रख सकते थे । देश भर से नेता और अन्य विशिष्ट जन श्रद्धांजलि देने के लिए लाइन लगाकर खड़े रहते जिसका सीधा प्रसारण होता परन्तु उन्होंने इन सबसे बचते हुए अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया साधारण तरीके से संपन्न करने के उपरांत प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी जिम्मेदारी को महसूस करते हुए दिनचर्या जारी रखी । सत्ता में बैठे लोगों को इस बात से ये समझना चाहिए कि वे भले ही वीआईपी शिष्टाचार और सम्मान से जुड़ी सुविधाओं और सम्मान के हकदार हों लेकिन उनका पूरा कुनबा उसे अपना अधिकार समझे ये अनुचित है । श्री मोदी की माता जी निश्चित रूप से उनके और परिजनों के लिए पूज्य थीं किन्तु थीं तो एक साधारण नागरिक ही जो अपने छोटे बेटे के साथ रहती थीं । प्रधानमंत्री अक्सर उनसे मिलने जाया करते थे किन्तु परिजनों को उन्होंने किसी भी प्रकार की सुविधाओं से उपकृत नहीं किया । पूर्व राष्ट्रपति स्व. एपीजे कलाम ने भी राष्ट्रपति भवन में अपने भाईयों सहित अन्य परिजनों को नहीं रखा । और न ही रामेश्वरम स्थित पुश्तैनी घर में किसी भी प्रकार का सरकारी इंतजाम किया ।

मोदी जी की राजनीतिक विचारधारा का विरोध चाहे जितना होता हो लेकिन बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने कार्य संस्कृति और दायित्व बोध के जो नये मापदंड स्थापित किये वे लोकतान्त्रिक व्यवस्था की आड़ में पैर जमा चुके नव सामंतवाद को खत्म करने में सहायक होंगे । गत दिवस गुजरात के मुख्यमंत्री को छोड़कर भाजपा के नेताओं की गैर मौजूदगी इस बात का सन्देश है कि सरकारी हैसियत से परिवार को महिमामंडित और लाभान्वित करना जनतांत्रिक सोच के विरुद्ध है । प्रधानमंत्री के इस कदम में भी जिन्हें आलोचना के बिंदु दिख गये वे वैसा करने के लिए स्वतंत्र हैं । लेकिन जनता के मन में राजनेताओं और राजनीति के प्रति बढ़ती वितृष्णा रोकने में इस तरह के उदाहरण सहायक हो सकते हैं । महात्मा गांधी ने आजादी के बाद राष्ट्रपति के लिए वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन) की जगह छोटे बंगले की व्यवस्था करने का सुझाव दिया था जिसे अनसुना कर दिया गया । उसी का परिणाम है कि समाज में सत्ताधीशों ने पूर्व राजा – महाराजाओं जैसी हैसियत अर्जित कर ली । उससे भी बड़ी बात ये हुई कि उनके परिजन भी खुद को राज परिवार का हिस्सा समझने लगे । प्रधानमंत्री ने गत दिवस जिस तरह की सादगी दिखाई उसे अगर उनकी पार्टी के अन्य नेतागण ही अपनाने लगें तो राजनीति की छवि में कुछ सुधार हो सकता है । गांधी, लोहिया और दीनदयाल ने जो राजनीतिक संस्कार दिए थे उनका गुणगान तो खूब होता है लेकिन आचरण में उनका लेशमात्र पालन करने की मानसिकता खत्म हो चुकी है । किसी शोकग्रस्त व्यक्ति को बधाई देना तो बेहूदगी होगी लेकिन प्रधानमंत्री ने जिस दायित्वबोध का परिचय दिया उसकी प्रशंसा राजनीति से ऊपर उठकर होनी चाहिए ।

लेख़क –
मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस के संपादक है
संपर्क सूत्र – 9425154295