पूजनीय गाय आवारा पशु कैसे बन गई : राजनीतिक दलों के लिए चिंतन का विषय
उ.प्र के चुनाव में अनेक ऐसे मुद्दे चर्चा में हैं जो कमोबेश हर जगह सुनाई देते हैं लेकिन आवारा पशुओं से किसानों को हो रही परेशानी जिस तरह सामने आई है उसकी वजह से भाजपा के माथे पर पसीने की बूँदें छलछलाने लगी हैं |
चुनावी जंग के बीच इस आशय की खबरें आ रही हैं कि किसान समुदाय आवारा पशुओं से बहुत परेशान हैं जो नजर चूकते ही उसकी मेहनत पर पानी फेर देते हैं |
किसानों ने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि उन्हें रात-रात भर जागकर खेतों में रखवाली करनी पड़ती है क्योंकि जब से गोवंश के वध पर प्रतिबंध लगाया गया है तब से गायों और साड़ों की भीड़ बढ़ गई है | अनेक किसानों ने तो खेतों की कंटीले तारों से घेराबंदी भी की जबकि कुछ पक्की दीवार बना रहे हैं जिस पर मोटी रकम खर्च होने से वह सबके बस में नहीं है | चूंकि अब खेती में बैलों का उपयोग काफ़ी कम हो गया है इसलिए गोपालन के प्रति आम तौर पर किसान उदासीन हो चला है | जहाँ तक बात दुग्ध उत्पादन की है तो पशुपालन पर होने वाले खर्च की तुलना में उसे दूध खरीदना ज्यादा आसान और सस्ता प्रतीत होता है |
फसलों की कटाई हार्वेस्टर से होने के कारण भूसा भी अब पहले जितनी मात्रा में नहीं मिलता | इसीलिए जब गाय दूध नहीं देती तब उसे पालने वाले भी उसे छुट्टा छोड़ देते हैं | इसका प्रमाण हाइवे पर शाम के समय बैठे उनके झुंडों से मिलता है जो वाहन चालकों की परेशानी के साथ ही दुर्घटनाओं का कारण भी बनते हैं | शहरों में भी ये समस्या दिनों – दिन बढ़ती जा रही है |
कुछ साल पहले तक उ.प्र के किसान नील गायों से त्रस्त थे जिनके जत्थे उनकी फसल चर जाया करते थे | लेकिन जब से गोवंश के वध पर रोक लगाई गई तब से आवारा गाय और सांड़ों द्वारा फसल चर जाने की घटनाएँ जिस तेजी से बढ़ीं उनके कारण ये चुनावी मुद्दा बन गया है |
हिन्दू समुदाय में गाय चूँकि पवित्र और पूजित है इसलिए उसे मारने से परहेज किया जाता था | जब वह बूढ़ी हो जाया करती थी तब उसे कसाई को बेचने का चलन था लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की ही थी जो गाय को जीवित रहते तक बेचते नहीं थे | मरने के बाद उसके चमड़े का उपयोग बहरहाल जूते आदि बनाने में किया जाता रहा | गोवंश का राजनीति से भी गहरा सम्बन्ध रहा है |
भारत की 80 फीसदी आबादी चूंकि ग्रामीण थी इसलिए आजादी के बाद कांग्रेस ने अपना चिन्ह बैल जोड़ी को चुना | महात्मा गांधी भी गोरक्षा की हामी रहे | 1969 में पार्टी का विभाजन होने पर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले धड़े ने भी गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह चुना , जिससे वह खुद को गाँव और किसानों से जुड़ा साबित कर सके |
आज भी देश की संसद और और विधानसभाओं में बड़ी संख्या उन जनप्रतिनिधियों की है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है और जो बात-बात में गाँव और किसानों की चिंता जताते हैं | लेकिन समय के साथ ज्यों-ज्यों ग्रामीण क्षेत्रों से मानव संसाधन का पलायन हुआ त्यों-त्यों मानवीय श्रमिक का स्थान मशीन लेने लगी और वहीं से कृषि कार्य में गोवंश की भूमिका कम होती गयी | जब तक गाय और बैल खेती से जुड़े रहे तब तक किसान को उनकी जरूरत रही किन्तु ट्रैक्टर, थ्रेशर, कल्टीवेटर और हार्वेस्टर जैसे उपकरणों के आगमन ने गाय और बैल को हाशिये पर धकेल दिया | रही सही कसर पूरी कर दी सड़क और बिजली ने |
गाय और भैंस जैसे दुधारू पशुओं के गोबर से बनने वाले कंडे जहाँ ग्रामीण भारत में ईंधन का बड़ा स्रोत थे वहीं गोबर से बनी खाद खेत की उर्वरक क्षमता बढ़ाने के काम आती थी | और फिर दूध तथा उससे बनने वाली अन्य चीजें किसान के पोषण और अतिरिक्त आय का स्रोत हुआ करती थीं | लेकिन तकनीक के विकास के साथ उन्नत खेती ने कृषि का पूरा चरित्र बदल दिया जिसके कारण उसके साथ पशुपालन का जो अटूट नाता था वह छिन्न-भिन्न हो गया |
मुंशी प्रेमचंद की हीरा-मोती और गोदान जैसी कालजयी कृतियां अब कल्पनालोक का एहसास कराती हैं | कहने का आशय ये हैं कि गाँव और खेती को नया रूप देते समय हमारे नीति – निर्माता ये भूल गये कि पशुपालन ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था का ठोस आधार रहा है |