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प्रखर राष्ट्रभक्त : पं. दीनदयाल उपाध्याय

पं. दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में प्रतिबद्धता, स्पष्टता और व्यवहारशीलता का अनूठा संयोजन मिलता है। उनकी मान्यता थी कि संस्कृति ही हमारे राष्ट्र की आत्मा है। अतः संस्कृति विहीन संविधान से देश का उत्कर्ष सम्भव ही नहीं है। जाति-पांति विहीन राष्ट्र की रचना उनकी एक बड़ी महत्वाकाँक्षा थी। वे राष्ट्रवाद की प्रखर भावना को जागृत करने के लिये सक्रिय रहे।

दीनदयाल उपाध्याय अखण्ड भारत को अपने राजनैतिक कार्यक्रम का प्रमुख हिस्सा ही नहीं, राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़कर देखते थे। उन्होंने भारत और पाकिस्तान के विभाजन को मन से कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ‘‘एकात्म मानववाद’’ नामक जो दर्शन दिया है, वह समग्र विकास की एक नयी कल्पना को साकार रूप देता है। उनका लक्ष्य था ‘‘समरसता पर आधारित समाज की स्थापना।’’

पं. दीनदयाल जी उपाध्याय पहले भारतीय विचारक कहे जा सकते हैं, जिन्होंने वाम-दक्षिण विभाजन को कृत्रिम और लोकतांत्रिक विकास में बाधक मानकर अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने कम्युनिष्ट विचारधारा को भी आयातित मानते हुये अभारतीय करार दिया था। उन्होंने स्पष्ट रूप से सन् 1967 में कहा था कि सामाजिक-आर्थिक समानता की लड़ाई पर किसी विचारधारा का एकाधिकार नहीं है।

उनका यह भी मत था कि राजनीति का जब संस्कृति, समाज और आध्यात्म से जीवंत संबंध होता है, तभी वह राजनीति उद्देश्य मूलक और संवेदनशील हो सकती है। वे मूलतः व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे सामान्य राजनेता नहीं थे। तत्कालीन समस्याओं का समाधान ढूँढना, उनके चिन्तन का मुख्य विषय हुआ करता था। वे भारतीय राजनीति के गंभीर चिन्तक व मनीषी थे। वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा या राजभाषा ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखने के इच्छुक थे। ऐसे महामानव का सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय रहा।

बाल्यकाल से ही माता-पिता, नाना-नानी, छोटे भाई आदि परिजनों का गोलोकवासी हो जाना, उन्हें अथाह दुःख के सागर में डुबा चुका था। उनके स्वयं का पालन पोषण उनके मामा के यहाँ हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के लिये भी उन्हें अनेक स्थानों पर भटकना पड़ा क्योंकि उनके मामा का स्थानान्तरण अनेक सुविधा- असुविधाजनक स्थानों पर होता रहा। इन सब असाधारण कठिनाईयों के बावजूद ‘‘पूत के पाँव पालने में ही नजर आते हैं’’- कहावत सिद्ध होती रही। वे अपनी शिक्षा के अंतर्गत भी विषयों में विशेष योग्यता दर्ज कराते रहे। उन्होंने जौनपुर के डी.ए.बी. काॅलेज से स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की बाद में एम. ए. (प्री.) भी प्रथम श्रेणी में।

इसी दौरान वे भारतीय विचारधारा से ओतप्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आ गये। उन्हें क्रमशः महापुरूषों के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त होता गया। उन्हें यहाँ यह भी प्रेरणा भी मिली कि मनुष्य के कर्म का हेतु ‘स्वहित’ नहीं वरन् लोकहित होना चाहिये। राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आजीवन व्रती प्रचारक के रूप में अपने सांस्कृतिक अधिष्ठान की यात्रा का शुभारम्भ किया।

उन्होंने अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ में भारतीय इतिहास के सांस्कृतिक गौरव को सामने लाने का प्रयास किया है। इसी क्रम में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना, ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्र और ‘स्वदेश’ दैनिक के प्रकाशन में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। साप्ताहिक पत्र के रूप में ‘पांचजन्य’ का प्रकाशन भी उन्हीं के मार्गदर्शन का परिणाम था। उन्होंने अनेक पुस्तकों का लेखन  कार्य किया और वे प्रभावी व महत्वपूर्ण के साथ-साथ लोकप्रिय भी हुयीं।

कश्मीर को भारत से अलग करने के षड़यंत्र के खिलाफ भारतीय जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में आयोजित सत्याग्रह आन्दो लन का संचालन भी पं. जी के कुशल नेतृत्व में आगे बढ़ा था। उनकी कार्यकुशलता और प्रमाणिकता को देखकर डाॅ. मुखर्जी ने एक बार कहा था कि पं. दीनदयाल जी जैसे दो और कार्यकर्ता मिल जायें तो एक वर्ष में सारे देश का नक्शा बदल सकता हूँ।

यद्यपि आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन राष्ट्रीय विचारधारा के लिये प्रेरणा देने वाला उनका यशस्वी जीवन उपलब्ध है। उनके द्वारा कही बातों को आत्मसात् करते हुये आज की समस्याओं को हल करने और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अधूरे सपने को साकार करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिये ताकि भारत का उसके पूर्व स्वरूप ‘विश्वगुरू’ तक पहुंचाने में सफल हो सकें।

पं. दीनदयाल जी भारत माता के उन महान सपूतों में से एक हैं, जिनके कारण हमारे देश की पहचान भारत के बाहर भी विद्यमान है। उन्होंने अपना सारा जीवन राष्ट्रीय यज्ञ में समर्पित कर दिया था। ‘‘एकात्म मानववाद’’ के आश्चर्यचकित कर देने वाले दर्शन के वे कुशल शिल्पी थे। यह दर्शन उस समय के लिये और आज के लिये भी वैचारिक क्रान्ति के रूप में प्रभावी सिद्ध हुआ। इतना ही नहीं यह सम्पूर्ण देश और देश के आर्थिक पर्यावरण के लिये अनुकरणीय माडल के रूप में सरागा गया जिस पर विशेषज्ञों द्वारा मंथन भी किया गया। एकात्म मानववाद को विश्व में उनकी चिर प्रेरणादायी धरोहर के रूप में स्वीकार किया गया। यह हमारे लिये अत्यन्त गर्व का विषय है।

पं. दीनदयाल जी महान चिन्तक एवं विचारक राजनेता थे, वे उस राजनीति के पक्षधर थे, जिसमें दूसरों के दुःख-तकलीफों को दूर करने के प्रयासों में खुद को गला देना उद्देश्य था। वे स्वयं इस सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा के केवल घटक ही नहीं बने वरन् उस अजस्त्र धारा को बढ़ाने में अपने आपको और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया तथा जिसे बलिदानी और असाधारण ज्ञान व कृतित्व के धनी अनुयायी नेताओं ने अपने परिश्रम से सींचा भी। आज भाजपा जिन जीवन मूल्यों को लेकर यहां तक छलांग लगाती हुयी पहुंची है, उसके पीछे पं. दीनदयाल जी के मार्गदर्शन में कार्य करने वाले असंख्य कार्यकताओं का बलिदान रहा है।

पं. जी ऋषि परंपरा के मनीषी थे। साथ ही गम्भीर चिन्तक और राष्ट्र के भविष्य दृष्टा भी।  दरिद्रनारायण के उपासक के रूप में उनका कृतित्व व व्यक्तित्व विलक्षण था। गरीबों की सेवा  करने में उन्हें विशेष सुख की अनुभूति होती थी। वे अपनी प्रशंसा से सदा दूर भागते रहे। यह प्रसन्नता का विषय है कि उनके असंख्य अनुयायी उनके राष्ट्र चिन्तन से प्रभावित होकर आज भी निःस्वार्थ सेवा में संलग्न हैं। पं. दीनदयाल जी वास्तव में राजनीति के कमल ही सिद्ध हुये। उनका स्मरण आते ही सरलता,सौम्यता और सादगी में लिपटे महामानव का व्यक्तित्व आँखों के सामने साकार हो उठता है।

वे राजनीति से ऐसे आदर्श पुरूषों में थे जिन्हें शुक्र, बृहस्पति और चाणक्य, जैसे महान ऋषियों की श्रेणी में रखा जा सकता है, उन्होंने आधुनिक राजनीति को शुचि और शुद्धता के धरातल पर खड़ा करने के लिये प्रेरित किया। वे अपने पावन कर्मों एवं कृतित्व से महान बने। वे जिस बात का उपदेश देते थे, उसे स्वयं पहले व्यवहार में उतारते भी थे। वे विचारों के क्षेत्र में एक सजग नेता थे।

उनका मानना था कि अखण्डभारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं है, अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोंण का द्योतक है, जो अनेकता में एकता का दर्शन कराता है। अतः हमारे लिये अखण्ड भारत कोई राजनैतिक नारा नहीं बल्कि यह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन-दर्शन का मूलाधार है।

लेख़क – डाॅ. किशन कछवाहा
संपर्क सूत्र – 9424744170