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संघ के पहले प्रचारक बाबा साहब आपटे

यवतमाल (महाराष्ट्र) के एक गरीब परिवार में 28 अगस्त 1903 को एक बालक का जन्म हुआ। बालक के पिता का नाम केशवराव आपटे तथा माता गंगादेवी थीं। पिता सरकारी पाठशाला में अध्यापक थे। बालक का नाम उमाकान्त रखा गया। बालक का स्वास्थ्य अच्छा रहता था। एक बार वह अत्यधिक बीमार हो गया। बालक के बचने की संभावना न रहने पर उसकी माता ने भगवान के मंदिर में करूणाभरी प्रार्थना की कि, ‘‘बालक तुम्हारे अर्पण है चाहे तो मारो चाहे तो जिन्दा कर दो।’’ भगवान की कृपा से बालक बच गया। दुबला-पतला तथा कमजोर होने के कारण खेलकूद में अन्य बालकों की तरह रूचि नहीं थी। वह पढ़ने में ही लगा रहता था।

पढ़ने की लगन- जब उमाकांत 8 वर्ष का था, उसके घर दो दिन के लिए उसके मामा आए। उनके पास कुछ पुस्तकें थीं। उनमें एक ईसप की कथाएँ उमाकान्त को अच्छी लगी। वह दो-दिन का सदुपयोग उस पुस्तक को पढ़ने में करना चाहता था। खाना-पीना छोड़कर वह पुस्तक पढ़ने बैठ गया। परिवार की परम्परा सभी के एक साथ खाना- खाने की थी। खाने के समय बहिन, माँ सभी ने उमाकांत को बुलाया पर उसने खाने से मना कर दिया। अन्त में उसके पिताजी डांटने आये तब भी वह पुस्तक पढ़ता रहा और पिताजी से भी मार खाने के अंदाज में उसने कमीज ऊपर करके पीठ प्रस्तुत कर दी। इतने में मामा ने आकर उमाकांत के पिताजी को कहा,‘‘आप अनुशासनप्रिय हैं किन्तु बालक किसी गलत बात के लिए जिद नहीं कर रहा है, यह भी ध्यान देना चाहिए।’’ उमाकांत ने 10 घंटों में पूरी पुस्तक पढ़ डाली और खुशी से झूमने लगा। माँ ने कहा, अब तो खाना-खा ले। इस पर उमाकांत ने कहा, अब मुझे भूख नहीं है, सभी के साथ ही खाना खाऊँगा, अभी तो मेरा पेट खुशी से भरा हुआ है।

घर को जाते समय मामाजी ने वह पुस्तक उमाकांत को देनी चाही किंतु उमाकांत ने कहा, अब तो मुझे इसकी आवश्यकता ही नहीं है, मैंने इसे पूरा पढ़ लिया है और सारी कहानियाँ मुझे याद हो गई हैं। मामा ने कुछ कहानियाँ परीक्षा के लेने के तौर पर सुनी तो बालक ने वैसी की वैसी सुना दी। इस पर मामा ने कहा कि यह बालक असाधारण है।

तिलक जी का प्रभाव- भारत में उन दिनों अंग्रेजों का शासन था। सम्पूर्ण देश में स्वतंत्रता आन्दोलन भी चल रहा था। तिलक जी के ‘‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूँगा’’ नारे की गूँज चारों और फैल रही थी।

दिसम्बर 1915 में एक बार यवतमाल से मूर्तिजापुर जाते समय कारंजा रेलवे स्टेशन पर स्थानीय लोगों द्वारा तिलक जी के दर्शन एवं स्वागत का कार्यक्रम बना। अंग्रेज प्रशासन ने अपने कार्यालयों और पाठशालाओं में इसे हतोत्साहित करने का आदेश दिया। उमाकांत उस समय 12 वर्ष का था। उमाकांत और साथियों ने भी तिलक जी के दर्शन की योजना बनाई।

उस दिन पाठशाला में बीच की छुट्टी नहीं की गई तथा पूर्ण अवकाश का समय निकलने के बाद भी छुट्टी नहीं हुइ्र्र। अब तो उमाकांत से रहा नहीं गया और उसने अध्यापक जी से छुट्टी का समय होने के उपरान्त भी छुट्टी न करने की ओर ध्यान दिलाया और कहा कि मुझे जरूरी काम से बाहर जाना है। इस पर कक्षाध्यापक ने उमाकांत को मुख्याध्यापक के पास भेज दिया। वहाँ भी बालक ने स्पष्ट कह दिया कि, ‘‘मुझे तिलक जी के दर्शन करने रेलवे स्टेशन जाना है।’’ मुख्याध्यापक ने डाँटा तथा पीट कर एक और बैठा दिया। रेल के स्टेशन छोड़ने की सीटी सुनाई दी तब मुख्याध्यापक ने चपरासी से घंटी बजाने का संकेत किया तथा उमाकांत से कहा, ‘‘देशभक्त सीधे घर जाओ और मन पढ़ाई में लगाओ। तुम्हारे भले के लिए ही हमने ऐसा किया है।’’ उमाकांत का जवाब था कि, ‘‘मैंने मन ही मन तिलक जी का दर्शन पा लिया है तथा स्वयं को देश सेवा में लगाने का संकल्प भी कर लिया है।’’

उमाकांत 16 वर्ष का था, तब दिसम्बर 1919 में पिता केशवराव का स्वर्गवास हो गया। जमा पूँजी कुछ थी नही, इस कारण परिवार के सामने अभावों भरा समय आ गया। लोकमान्य तिलक के अनन्य अनुयायी औरश्रेष्ठ जनसेवक बापूजी अणे यवतमाल में ही रहते थे। उमाकांत का उनसे घनिष्ठ सम्पर्क था। समय पर वे उमाकांत का मार्गदर्शन भी करते थे। अभावों में कष्ट झेलते हुए किसी तरह 1920 में उमाकांत ने हाईस्कूल परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। माँ गंगाबाई को बड़ी प्रसन्नता हुई कि अब उमाकांत ने तो देश के दिन बदलने का निश्चय पहले ही कर लिया था। उसने माँ को इस बारे में बता दिया था।

डाॅक्टर जी के व्यक्तित्व का असर- माँ की आज्ञा व बापू जी अणे का मार्गदर्शन पाकर उमाकांत धामणगाँव में एक पाठशाला में अध्यापक की नौकरी लग गयी। सब लोग उसे आपटे जी कहने लगे। आपटे जी विद्यार्थियों को पूर्ण मनोयोग एवं आत्मीयता से पढ़ाने लगे। वे विद्यार्थियों को मात्र शाब्दिक ज्ञान या पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित नहीं रखकर व्यावहारिक एवं पाठ्येतर ज्ञान भी देने लगे।

इस पर सहकर्मी उनसे द्वेष रखने लगे। 1857 की क्रान्ति पढ़ाने पर तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई का भी विस्तार से आपटे जी ने उल्लेख किया तो मुख्याध्यापक ने उन्हें मात्र पाठ्यक्रम तक ही सीमित रहने की सलाह दी। किन्तु दृढ़ निश्चयी उमाकांत केशव आपटे अपनी शैली पर कार्य करते रहे। 1 अगस्त 1924 को तिलक जी की पुण्यतिथि पर उन्होंने कक्षा में तिलक जी पर गोष्ठी रखी। किसी ने कहानी, किसी ने लेख, किसी ने कविता तो किसी ने गीत गाकर इसमें भाग लिया तथा पूर्ण उत्साह दिखाया। बात जिलाधिकारी तक पहुंची और पूछताछ हुई तो उमाकांत आपटे ने त्याग-पत्र देते हुए कहा-‘‘जहाँ तिलक जी का नाम तक लेना अपराध माना जाता हो वहाँ मैं काम नहीं कर सकता।’’

अध्यापक की नौकरी छोड़कर आपटे जी ने केसरी एवं महाराष्ट्र में कुछ लेख भेजे। उनमें कुछ छपे तो उन्होंने कलम से देश सेवा का निश्चय किया। इसी के साथ वे नागपुर के उद्यम मुद्रणालय में नौकरी करने लगे। यहाँ उनका एक उत्साही युवक लक्ष्मीकांत भिशीकर से परिचय हुआ जो घनिष्ठ मित्रता में बदल गया। लक्ष्मीकांत का डाॅ. हेडगेवार के यहाँ रोज का आना-जाना था। आपटे जी भी साथ आने-जाने लगे। इससे पूर्व बापूजी अणे के साथ डाॅक्टर जी से आपटे जी का परिचय हो चुका था। डाॅक्टर जी ने उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। आपटे जी अब संघ से जुड़ गये तथा विभिन्न नौकरियाँ करते हुए भी तन्मयता से हिन्दू संगठन के कार्य में लगे रहे। वेतन से मिलने वाला कुछ रूपया माँ को वे भेजते, कुछ अपने पास रखते तथा बचा हुआ संघ में लगा देते।

प्रथम बौद्धिक प्रमुख – डाॅक्टर जी की प्रेरणा से आपटे जी ने विद्यार्थी मण्डल का गठन किया। उनका आग्रह रहता था कि युवक स्वामी रामतीर्थ का दासबोध अवश्य पढ़ें। लेकिन धन की कमी के कारण सभी को दासबोध कैसे हो? इसके लिए वे रात-रात भर जागकर हाथ से एक-एक अध्याय लिखकर सभी स्वयंसेवकों तक पढ़ने के लिए पहुंचाते। इस प्रकार उन्होंने कर्तव्य पथ पर धन की कमी को कभी आड़े नहीं आने दिया। डाॅक्टर जी की सहमति से उन्होंने एक मकान किराये पर ले लिया तथा उसी में विद्यार्थियों के साथ रहने लगे। वहीं पहला संघ कार्यालय बन गया। परीक्षा के दिनों में स्वयंसेवकों को समय पर जगाना, पढ़ाना और अपने हाथ से हलवा बनाकर खिलाना उनका सहज और अनिवार्य कार्य बन गया। स्नातकों को कम से कम दो वर्ष संघ कार्य करने का आग्रह वे करते थे। उनकी प्रेरणा से सैकड़ों स्वयंसेवक तैयार हुए तथा अनेकों प्रचारक बने। आपटे जी के बौद्धिक प्रभावी होते थे, अतः डाॅक्टर जी तो उन्हें बौद्धिक विभाग ही कहने लगे। 1927 में पहला संघ शिक्षा वर्ग हुआ तो उसके बौद्धिक कार्यक्रमों के संचालन की जिम्मेदारी आपटे जी ने ही डाॅक्टर जी के कहने पर निभाई। इस प्रकार वे संघ के प्रथम बौद्धिक प्रमुख कहलाए।

असहयोग आन्दोलन में सहयोग – उन दिनों स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी की पुस्तक 1857 का स्वतंत्रता समर पर अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। बाबा साहब ने टाइप करके नवयुवकों को इसकी प्रतियाँ वितरित कीं।

संघ कार्य बढ़ने के साथ- साथ अब समय की कमी पड़ने लगी। रविवार के अतिरिक्त आना जाना नहीं हो पाता था। अतः उन्होंने 1932 में बीमा कम्पनी की नौकरी छोड़ दी। अब पूरी तरह अविवाहित रहते हुए संघ कार्य करना ही उनका ध्येय बन चुका था। 1934 में संघ कार्यालय लिया गया तो आपटे जी उसी में निवास करने लगे। 1935 में पंजाब संघ कार्य बढ़ाने के लिए आपटे जी को भेजा गया। अगले ही वर्ष चार स्वयंसेवक वहाँ से नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग में आये तथा पंजाब में निरन्तर संघ कार्य का विस्तार हुआ।

21 जून 1940 को डाॅक्टर जी के महाप्रयाण के बाद श्रीगुरूजी सरसंघचालक बने। बाबा साहब अब श्री गुरूजी के नेतृत्व में संघ कार्य की वृद्धि के लिए अथक परिश्रम में जुट गये। 1942 के असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उन्होंने प्राण-प्रण से कार्य किया। इस आन्दोलन का एक सुपरिणाम संघ शाखाओं के बढ़ने में भी प्रकट हुआ। उस समय साधनों का अभाव था, अतः बाबा साहब पद-यात्रा का ही सहारा लेते थे। उनके साथ रहने वाले कार्यकर्ता एक-दो दिन में ही थक कर चूर हो जाते, पर आपटे जी बिना थके पदयात्रा से सम्पर्क-सूत्र बढ़ाते चलते। संघ पर पहले प्रतिबंध (1948) के समय उन्होंने जेलयात्रा भी की। कारागार को भी उन्होंने स्वयंसेवकों के लिए प्रशिक्षण का केन्द्र बना दिया। प्रतिबंध हटने के बाद फिर उनका अनवरत यात्रा का क्रम प्रारम्भ होा गया।

पुस्तकें पढ़ने का अभ्यास बाबा साहब को बाल्यावस्था से ही था। लगातार यात्रा करते हुए भी वे पुस्तके पढ़ने का समय निकाल लेते थे। अन्यान्य विषयों के साहित्य के साथ-साथ धर्म ग्रंथों का भी उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया। दशावतारों को उन्होंने भारतीय इतिहास के विकास-क्रम के रूप में देखा। इन अवतारों को राष्ट्रीयता के विकास के रूप में परिभाषित कर बाबा साहब ने इतिहास को एक नई दृष्टि दी। उन्हीं की प्रेरणा से भारतीय इतिहास की विकृतियों को दूर करने का अभियान प्रारम्भ हुआ, जिसकी परिणति उनके निधन के बाद इतिहास पुनर्लैखन प्रकल्प के रूप में हुई।

लेख़क – मातादीन सिंह शेखावत