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बहुत अखरेगा शब्द ऋषि चिंतामणि मिश्र का महाप्रस्थान..!

पाँच दिसम्बर की सुबह एक झकझोर देने वाला समाचार लेकर आई कि—चिंतामणि मिश्र जी अनंत यात्रा को प्रस्थान कर गए..! इस सूचना के साथ ही विंध्य धरा में शोक की लहर दौड़ गई। उनसे जुड़ा हुआ प्रत्येक व्यक्ति शोकाकुल हो चुका था। उनकी अनुपस्थिति से आए शून्य ने सबको अश्रुमय कर दिया। और इसी के साथ ही साहित्य का – इतिहास का – पत्रकारिता का एक पुरखा-एक जीवंत दस्तावेज अब अतीत की स्मृतियों में दर्ज हो चला था। मृत्यु और नियति सचमुच में कितनी त्रासद होती है न? जो क्षण भर में वर्तमान को अतीत में परिवर्तित कर देती है। उन्होंने जिस प्रकार से विचारों के ज्योति पुंज जलाए उसी तरह – उन्होंने अंतिम विदाई लेते लेते दो लोगों के जीवन को ‘दृष्टि’ दे गए। श्री मिश्र के परिवारजनों ने उनका ‘नेत्रदान’ करवाकर शब्दर्षि के संकल्पों की ज्योति जला दी।

स्टार समाचार की यात्रा में श्रध्देय चिंतामणि मिश्र जी के अग्रलेखों ने एक बहुत बड़े पाठक वर्ग एवं जनसामान्य को अपने से जोड़ा। और लोक को अभिव्यक्ति प्रदान की। मङ्गलवार के उनके नियमित स्तंभ को पढ़ने के लिए लोग लालायित रहते थे। उनके वैचारिक निबन्धात्मक आलेखों में लोग अपनी अभिव्यक्ति पाते थे। साहित्य क्षेत्र से जुड़े हुए विद्वानों एवं जन सामान्य के बीच उनके लेख चर्चा के बिन्दु बनते थे। सामयिक टिप्पणी के साथ ही गम्भीर विमर्श एवं ‘जनता’ के पक्ष को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते हुए उनके लेख झकझोर कर रख देते थे। समूची व्यवस्था एवं समाज से प्रश्न पूंछती उनकी लेखनी कभी भी किसी पलड़े में नहीं झुकी। उन्होंने जो देखा- अनुभव किया, उसे अपनी तीक्ष्ण – मारक दृष्टि एवं समृद्ध अनुभवों की थाप से लेपकर प्रस्तुत कर दिया।

स्वतन्त्रता के पूर्व 3 दिसम्बर सन् 1935 को अमृत लाल मिश्रा के पुत्र के रुप में जन्में चिंतामणि मिश्र ने जब से जीवन की सुधि सम्हारी तब से ही संघर्षों से जूझने लगे। और उन्होंने हर संघर्ष को अपने साहस से जीत लिया। उनकी पुस्तैनी रहनवारी सतना में बाजार की भीड़भाड़ से भरे हनुमान चौक में थी। उन्होंने सतना को तब से देखा था जब से — सतना की मुख्य बाजार के अलावा — वर्तमान सतना शहर के रूप में आकार नहीं ले पाया था। उन्होंने शिक्षा के नाते अंग्रेजी साहित्य एवं राजनीति शास्त्र से एम.ए. एवं एल.एल.बी की पढ़ाई की थी। तत्पश्चात शिक्षा विभाग में अपनी सेवाएं देने लगे। वीणापाणि भगवती सरस्वती की उन पर असीम कृपा थी‌। भगवती ने चिंतामणि मिश्र को सृजन की तूलिका देकर ऐतिहासिक कार्य एवं दस्तावेज रचने का दायित्व दे दिया। अपने प्रारम्भिक रचनाकाल से लेकर वे जीवन के अन्तिम क्षणों तक पढ़ते -लिखते रहे आए। और शब्द साधक से लेकर शब्द ऋषि के रूप में अपनी यात्रा पूरी की‌।

87 वर्ष की अवस्था पूरी करने के बाद भी उनकी अध्ययन- चिन्तन – मनन और लेखन की ऊर्जा को देखकर अचरज होता था। विगत दो माह से उनका स्वास्थ्य विशेष ठीक नहीं था। इसके बावजूद भी वे व्याधि को – पीड़ा को मात देते हुए भी साहित्य की दीवार बनकर खड़े थे। 1 दिसम्बर को हाॅस्पिटल के बेड में ‘झूठा सच’ पुस्तक पढ़ते हुए उनका अंतिम छाया चित्र खींचा गया था। पीड़ा से कराहता हुआ व्यक्तित्व -जैसे ही थोड़ा राहत महसूस करता है — पुस्तकों को टटोलने लग जाता है। यह अपने आप में ऐतिहासिक और अनूठी बात होती है। यह कार्य सरस्वती का सच्चा साधक – त्यागी तपस्वी व्यक्ति ही कर पाता है। वे खरा-खरा स्पष्ट कहने और सत्य का मुखर वाचन करने में कभी भी नहीं हिचकिचाए। यायावर किस्म के श्री मिश्र अक्खड़- बेलौस मुखर ढँग से अपनी बातें कहने व लिखने के लिए सदैव जाने जाते रहे हैं। सतना में किसी को भी यदि साहित्य, समाज, संस्कृति, इतिहास इत्यादि की जानकारी चाहिए थी। याकि उसे ज्ञान पिपासा समृद्ध करनी रही हो। सतना के गली- कूचे, जन्म, विकास, इतिहास, संस्कृति, धरोहरों के गलियारे में जाना रहा हो। तो सबके मुख से एक ही नाम आता था — चिंतामणि मिश्र जी के पास चले जाइए। वे सबकुछ बता देंगे।‌ और सचमुच में ऐसा था भी। चिंतामणि मिश्र साहित्य एवं इतिहास से जुड़े विषयों के सबसे प्रामाणिक स्त्रोत थे। वे चलते फिरते हुए इंसाइक्लोपीडिया थे। जो जानकारी उनके पास नहीं मिल पाती थी – फिर वह किसी अन्य के पास मिल पाना लगभग असंभव सी ही थी।

उन्होंने सतना में साहित्य का एक नया वातावरण तैयार किया। और सबको एक माला में पिरोने के लिए ‘शब्दशिल्पी’ पत्रिका की संकल्पना की। फिर शब्दशिल्पी ने निरंतर शब्दशिल्पी गढ़ने प्रारंभ कर दिए। उन्होंने युवाओं, मातृशक्तियों को एवं अपने समकक्ष व प्रौढ़ लगभग सभी आयुवर्ग के साहित्य क्षेत्र से जुड़े लोगों को एक मंच पर लाने का ऐतिहासिक कार्य किया। निरन्तर कार्यक्रम, संगोष्ठियों में उनकी उपस्थिति – समीक्षा एवं मार्गदर्शन की दृष्टि ने सतना की साहित्यिक माटी को उर्वर बना दिया।

श्री मिश्र ने कई दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक समाचार पत्रों के कुशल सम्पादन के दायित्व को भी सम्यक ढँग से निभाया था।वे साहित्यिक एवं सामाजिक- राजनैतिक मंचों में अपने प्रखर वक्तव्यों के लिए भी जाने जाते रहे हैं। उन्हें जिसने भी आदरपूर्वक बुलाया – वे प्रत्येक मंच के आमंत्रण पर सहज रूप से चले जाते थे। लेकिन वे कहते वही थे – जो सत्य होता था। और जो वे अनुभव करते थे। फिर चाहे उनकी बातें आयोजक के चश्मे में फिट बैठें – या अनफिट हों।‌ लेकिन उन्होंने सत्य की डोर कभी नहीं छोड़ी। अक्सर उन्हें आमंत्रित करने को लेकर आयोजक भी दुविधा की स्थिति में होते थे। क्योंकि उन्हें यह डर लगा रहता था कि — चिंतामणि मिश्र मंच से पता नहीं क्या बोल दें। जो उनके अनुकूल न हो। लेकिन श्री मिश्र जी कभी भी अपने गुरुतर दायित्व से नहीं डिगे। उन्होंने विचारों के स्तर पर — कार्यव्यवहार के स्तर पर साहित्यकार की गरिमा क्या होती है ।इसे अपने समूचे जीवन में चरितार्थ कर उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।

उन्हें करीब से जानने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भलीभांति यह पता है कि – वे कितने बड़े स्वाध्यायी थे। न जाने कितने पुस्तकालयों की उन्होंने पुस्तकें पढ़ीं। और उनका यह क्रम जीवनपर्यंत – जीवन के अंतिम समय तक चलता रहा। गहन अध्ययन एवं शोधपूर्ण विचार दृष्टि से पगा हुआ — उनका रचनाकर्म श्रेष्ठ चिंतक,विचारक एवं समाज के जागृत सशक्त प्रहरी के रूप में दिशाबोध प्रदान करता है।

उन्होंने स्वयं को पुरस्कारों की दौड़ से अलग रखा और अपनी कृतियों को कभी भी पुरस्कारों के लिए नहीं भेजा। हम सबने कई बार यह आग्रह रखना चाहा कि -आपको शासन द्वारा प्रदान किए जाने वाले पुरस्कारों के लिए प्रविष्टि भेजनी चाहिए। लेकिन वे मधुर मुस्कान के साथ इस बात को टाल देते थे। स्थानीय स्तर पर वे साहित्य से जुड़े हुए प्रत्येक मंच, संगठन के कार्यक्रमों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाते थे। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने ऊपर किसी ‘ वाद’ का ठप्पा नहीं लगने दिया। उनका एक ही पक्ष -‘राष्ट्रपक्ष’ – ‘जनपक्ष’ था। और उनका एक रास्ता था – साहित्य सृजन और लोकमङ्गल के लिए निरन्तर लिखना।‌ जनक्रंदन को चित्रित करना और उसे मुखर अभिव्यक्ति देना । वे युवाओं से लेकर बुजुर्गों, मातृशक्तियों सहित प्रत्येक आयु के लोगों के साथ आत्मीयता के रंग में घुले मिले थे।

राजनीति, समाज, साहित्य से लेकर मुख्य परिदृश्य का लगभग प्रत्येक व्यक्ति उनसे जुड़ा हुआ था। और उनसे निरन्तर अपने कार्यों के लिए विचार एवं आशीर्वाद ग्रहण करता रहता था।उनसे जो भी मिलता था – वह उनका ही हो जाता था। वे अपने स्नेहाशीष से- अपनापे से सबको बांध लेते थे। जहां तक मैं उन्हें जान पाया हूं — मैंने कभी भी उन्हें किसी भी ‘व्यक्ति’ की बुराई करते नहीं पाया। और न ही उनमें किसी भी व्यक्ति के प्रति कटुता या दुराग्रह जैसा भाव देखा। वे निर्विकार – अपनी मस्ती में डूबे – अपने रास्ते पर औघड़ संत की भाँति चलते जाते थे।‌

उन्होंने साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी प्रखर मेधा – विचार गङ्गा से — मेरी बस्ती मेरे लोग, खंड खंड पाखंड, धतकरम, हस्तक्षेप, आंचलिक पत्रकारिता की चुनौतियां, सतना जिला का 1857, खटराग, जनम अकारथ, जाति गंगा, तुम्हारी जरूरत किसे है। ‘आपातकाल और सतना के मीसाबंदी’ जैसी कई कृतियों का सृजन हुआ। हाल ही में वे माजन नरसंहार पर नाटक भी लिख रहे थे। उन्होंने अपने लेखन में – प्रकाशन में असाध्य श्रम किया। विचारों को तथ्यों – तर्कों की कसौटी पर रखकर भावनाओं के सुर – ताल में पिरोकर रच दिया। उनकी आत्मीयता – विनम्रता एवं उदारमना विराट व्यक्तित्व अतिशय उदास व्यक्ति में भी ऊर्जा का संचार कर देता था। उन्होंने अपनी कृतियों को उदार ह्रदय के साथ उन सभी को भेंट किया – जो उन तक पहुंचे। वे सबको सदैव उत्कृष्ट पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। और सबको ‘जनपक्ष’ बनने व साहित्य की महत्ता – लेखनी का दायित्वबोध सिखलाते थे। उनकी अनुपस्थिति की रिक्तता ने विंध्य क्षेत्र में एक बहुत बड़ी रिक्तता उत्पन्न कर दी है। उनका यह महाप्रस्थान बहुत अखरेगा। लेकिन दूसरी ओर उनकी विचार दृष्टि उनकी कृतियां सम्बल बंधाती हुई नई पीढ़ी को जीवन की राह दिखलाती रहेंगी। वे परलोक से नई पीढ़ी को आशीर्वाद देते रहेंगे।‌ हम सब सौभाग्यशाली हैं कि उनका सान्निध्य – स्नेहाशीष एवं उनकी विचार गङ्गा में गोते लगाने का सौभाग्य मिल सका!

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(कवि, लेखक स्तम्भकार)
9617585228