Trending Now

धर्मान्तरण रोकने के लिए समाज को भी आगे आना होगा

ये बात यदि कोई और कहे तो धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों के पेट में मरोड़ होने लगता है परन्तु सर्वोच्च न्यायालय धर्मांतरण पर जो टिप्पणियाँ कर रहा है वे इस बात का प्रमाण हैं कि भोले – भाले लोगों की अज्ञानता और अभावों का लाभ उठाते हुए विदेशी धन से बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन योजनाबद्ध ढंग से किया गया ।

बीते दिनों न्यायालय ने ये कहकर सनसनी मचा दी थी कि मतान्तरण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता  है । इसी सिलसिले में गत दिवस इस बारे में पेश की गईं याचिकाओं की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय  ने टिप्पणी की कि जरूरतमंद को दवाई और अनाज देना तो परोपकार है लेकिन यदि उसका मकसद  धर्म  परिवर्तन करवाना हो तो वह एक गम्भीर मसला है जो संविधान के बुनियादी ढांचे के विरुद्ध है । यद्यपि अभी न्यायालय का अन्त्तिम फैसला नहीं आया परन्तु आजादी के 75 साल बाद ही सही किन्तु देश के भीतर अब ये समझ पैदा होने लगी है कि गरीबों की बस्तियों सहित आदिवासियों के गावों और जंगलों में मिशनरियों द्वारा विद्यालय और अस्पताल जैसे संस्थान खोलने के पीछे सुनियोजित षडयंत्र था । उल्लेखनीय है परोपकार के नाम पर चलाये जा रहे इन प्रकल्पों में विदेशी धन का उपयोग किया जाता रहा है । अमेरिका सहित यूरोप के ईसाई बहुल देशों में धर्म के प्रचार – प्रसार हेतु लोग अपनी आय का जो भाग चर्चों को दान में देते हैं वह भारत जैसे देशों में मिशनरियों के जरिये धर्म परिवर्तन के लिए उपयोग किया जाता रहा है । इस धर्म का प्रचार करने वाले जानते थे कि गरीबों की बस्तियों और आदिवासी इलाकों में रहने वाले इतने शिक्षित नहीं हैं जो प्रवचन और धर्म ग्रंथों से प्रभावित होकर अपना धर्म छोड़ दें । लेकिन उनकी मौलिक जरूरतों को पूरा करने के बाद उन्हें उसके लिए प्रेरित किया जा सकता है । अतीत में अफ्रीका में इसी तरीके को आजमाकर ईसाई मिशनरियां ये काम सफलतापूर्वक कर चुकी थीं । ब्रिटिश राज के दौरान ही भारत में धर्म परिवर्तन की दूरगामी योजना तैयार की गई थी । उसी के अंतर्गत शहरों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय खोले गए ताकि ब्रिटिश सत्ता के प्रति भक्तिभाव रखने वाले नौकरशाह तैयार हों । गरीब बस्तियों में चर्च बनाकर खाने – पीने का सामान बाँटने के साथ मतान्तरण की बुनियाद रखी गयी । आदिवासी बहुल क्षेत्रों में मिशनरियों ने विशेष ध्यान दिया क्योंकि उनमें रहने वाले अलग तरह की ज़िन्दगी जीते  थे । जल, जंगल और जमीन ही उनकी दुनिया थी । शहरी सभ्यता से दूर सीधे – सादे आदिवासी ईसाई मिशनरियों के निशाने में आसानी से आ गये । देश का पूर्वोत्तर इलाका उनको खुले मैदान के तौर पर मिला । हालाँकि मिशनरियों के प्रसार में सनातन धर्म के धर्माचार्यों का आदिवासियों के प्रति उपेक्षा भाव भी  कम जिम्मेदार नहीं है । जाति के नाम पर खड़ी की गईं दीवारें भी धर्मान्तरण में सहायक साबित हुई । आज आदिवासी और दलित समुदाय को मुख्य धारा के विरुद्ध भड़काने का जो काम चल रहा है उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिशनरियों का हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता । ये शुभ संकेत है कि शासन – प्रशासन के साथ ही सनातनी धर्माचार्य और अब न्यायपालिका भी धर्मांतरण के जरिये भारत के सामाजिक ढांचे में दरार पैदा करने के खेल को समझ चुकी है । कुछ राज्यों में लालच और दबाव में किये जाने वाले धर्मान्तरण को गैर कानूनी बना दिया गया है । अनेक साधु – सन्यासी और धार्मिक संगठन भी ईसाई बन  चुके आदिवासियों को वापस लाने प्रयासरत हैं । एकल विद्यालय जैसे प्रकल्पों के जरिये आदिवासियों के बच्चों को भारतीय संस्कृति में ढालने का कार्य चल रहा है । लेकिन नेताओं का एक तबका है जो ऐसे  प्रयासों में भी राजनीति देखता है । उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा  की गईं टिप्पणियां काफी अर्थपूर्ण हैं । लालच और दबाववश किये जाने वाले धर्म परिवर्तन को राष्ट्रीय सुरक्षा और संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ मानने की बात चूंकि न्याय की सर्वोच्च आसंदी द्वारा कही गयी इसलिए उस पर नाक सिकोड़ने वाले खुलकर सामने नहीं आ रहे । लेकिन इनके कारण  धर्मान्तरण का असली उद्देश्य उजागर हो रहा  है ।  ऐसे अनेक प्रकरण हैं जिनमें व्यक्ति को पता ही नहीं चला और उसका धर्म बदल दिया गया । बड़ी संख्या में ऐसे लोग  भी हैं जिनकी जीवन शैली और संस्कृति में कोई बदलाव नहीं आया लेकिन भौतिक आकर्षणों के कारण वे  ईसाई बन गये जिसके धार्मिक पक्ष से उनका कोई वास्ता नहीं  है । उन लोगों की भी संख्या कम नहीं है जिन्हें मिशनरियों ने पूरी तरह मुख्यधारा से काट दिया है । इस वजह से वे देश विरोधी ताकतों के जाल में फंस गये । नक्सलवादी  और पूर्वोत्तर की  अलगाववादी गतिविधियों से आदिवासी समुदाय के जुड़ाव में धर्मांतरण की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता । ये अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय धर्म परिवर्तन के कारोबार का संज्ञान ले रहा है । लेकिन इसके साथ ही सनातन धर्म के धर्माचार्यों का भी ये दायित्व है कि वे   दलितों और आदिवासी समुदाय को मुख्य धारा में शामिल करने आगे आयें । केवल ईसाई मिशनरियों को दोष देने और धर्मांतरण विरोधी कानून बना देने मात्र से उसे रोक पाना संभव नहीं होगा । शिक्षा, स्वास्थ्य सहित  मूलभूत जरूरतें पूरी करना जरूरी है । इस बारे में केवल सरकार से अपेक्षा करना उचित नहीं है क्योंकि धर्मान्तरण के लिए सामाजिक विषमता और कुरीतियाँ भी उत्तरदायी हैं । सरकार और कानून तो अपना काम करेंगे ही लेकिन समाज को भी इस बात की चिंता करनी चाहिए कि उसका एक हिस्सा अपनी आस्था में परिवर्तन क्यों करता है ?

लेख़क – 
मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस के संपादक है
संपर्क सूत्र – 9425154295