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“बिन्दु से विराट तक, ग्रामोदय से राष्ट्रोदय तक : राष्ट्र ऋषि श्रीयुत नानाजी देशमुख”

अक्तूबर 11, सन् 1916 की वह शरद पूर्णिमा की रात। उस रात महाराष्ट्र के परभणी जिले के हिंगोली तालुका के कडोली नामक छोटे-से गांव में अमृतराव देशमुख की धर्मपत्नी राजाबाई की कोख से एक पुत्र ने जन्म लिया। वही बालक नानाजी के नाम से विख्यात हुआ। शिशुकाल में ही नाना माता-पिता की स्नेहछाया से वंचित हो गए। नाना ने अभाव और अशिक्षा के घने अंधेरे से संघर्ष किया।

रिसोड़ में आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई की। वहीं नानाजी का संबंध राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से स्थापित हुआ। मैट्रिक की पढ़ाई के लिए उन्हें वाशिम जाना पड़ा। वाशिम में संघ-कार्य बहुत प्रभावी था। डॉ. हेडगेवार भी बहुधा वहां आते रहते थे। वाशिम में ही 1934 में डॉक्टरजी ने 17 स्वयंसेवकों को संघ की प्रतिज्ञा दी। इन 17 में नानाजी भी थे। वाशिम में नानाजी पूरी तरह संघ-कार्य में रम गए। 1937 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने पर प्रश्न उठा कि आगे की पढ़ाई कैसे हो? 1939 में चार मित्र – नानाजी, आबा पाठक, बाबा सोनटक्के और बाजीराव देशमुख, सभी राजस्थान के पिलानी बिरला कॉलेज में अध्ययन के लिए गए। 1940 में वे संघ की प्रथम वर्ष शिक्षा के लिए नागपुर गए। वहां उन्होंने डॉ. हेडगेवार को असाध्य बीमारी से जूझते देखा। उनके अंतिम भाषण को सुना। वर्ग के बाद डॉक्टरजी की चिता को धधकते देखा। इस सबका उनके संवेदनशील राष्ट्रभक्त अंत:करण पर भारी प्रभाव हुआ। उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का निश्चय कर लिया। डॉक्टरजी के वरिष्ठ सहयोगी बाबासाहेब आप्टे ने उन्हें भाऊ जुगादे के साथ संघ कार्य के लिए आगरा भेज दिया। उस समय उनकी आयु 24 वर्ष थी। आप्टेजी के निर्देशानुसार 3 जुलाई को डॉक्टरजी के श्राद्ध-दिवस पर आगरा में संघ शाखा शुरू हुई। इसी समय, पं. दीनदयाल उपाध्याय, कानपुर से बी.ए. की परीक्षा पास करके अंग्रेजी में एम.ए. की पढ़ाई करने आगरा पहुंच गए। आगरा में ये तीनों कार्यकर्ता एक ही कमरे में रहने लगे। उस अल्प सहवास में नानाजी के मन में दीनदयालजी की संघनिष्ठा, बौद्धिक क्षमता, आदर्शवादी प्रकृति और सहज-सरल स्वभाव के प्रति जो आत्मीयता व श्रद्धाभाव पैदा हुआ, वह जीवन के अंत तक बना रहा। कुछ समय बाद नानाजी को आगरा से भाऊराव देवरस के पास कानुपर भेज दिया गया। भाऊराव ने उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में संघ-कार्य आरंभ करने के लिए भेजा।

अपनी व्यवहार – कुशलता से एक ओर उन्होंने महंत दिग्विजय नाथ, गीता प्रेस के संस्थापक भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, कांग्रेसी नेता बाबा राघवदास जैसे प्रतिष्ठित और बड़े लोगों से संपर्क बनाया और बार एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिहर प्रसाद दुबे को संघचालक बनाया। प्रसिद्ध होम्योपैथ डॉक्टर हृषिकेश बनर्जी को जिला कार्यवाह का दायित्व दिया। युवकों में राष्ट्रप्रेम और वीर भाव का संचार करने के लिए अभिनव ढंग के विशाल कार्यक्रमों की रचना की।

नानाजी का कार्यक्षेत्र बढ़ता जा रहा था। 1942 तक 250 शाखाएं खुल गईं। 1946 तक पूरा क्षेत्र संघ-शाखाओं से पट गया। प्रारंभ से ही नानाजी को शिक्षा-वर्ग की व्यवस्था का भार दे दिया गया। 1945 में काशी के शिक्षा-वर्ग पर ब्रिटिश सरकार की कोप-दृष्टि पड़ी। उसे बीच में ही स्थगित करना पड़ा। उन्हीं दिनों नानाजी के बड़े भाई आबाजी अपनी पत्नी के देहांत से शोक-विह्वल होकर नानाजी को लेने काशी पहुंचे। नानाजी ने वर्ग छोड़कर जाने से मना कर दिया। आबाजी वापस लौट गए। कुछ ही दिनों बाद 29 अप्रैल को उनके इकलौते पुत्र के निधन का तार पहुंचा। भाऊराव जी ने नानाजी को कडोली होते हुए 5 मई को नागपुर में आरंभ होने वाले वर्ग में तृतीय वर्ष का शिक्षण पूरा करने को कहा। उन्होंने ऐसा ही किया।

तृतीय वर्ष शिक्षण पूरा कर वे पुन: गोरखपुर विभाग में संघ-कार्य में जुट गए। 1946 में उनके क्षेत्र में शाखाओं की संख्या 600 पार कर गई थी। कार्य तेजी से बढ़ रहा था कि 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या हो गई।
4 फरवरी को संघ पर प्रतिबंध थोप दिया गया। देशभर में हजारों-हजार स्वयंसेवक अकारण ही गिरफ्तार कर लिए गए। गोरखपुर में नानाजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
छह महीने बाद जेल से बाहर आने पर नानाजी को ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की व्यवस्था संभालने के लिए दीनदयालजी के पास लखनऊ भेज दिया गया। लखनऊ में रहते हुए भी नानाजी का गोरखपुर विभाग के कार्यकर्ताओं से निरंतर संपर्क बना रहा। ऐसे ही एक कार्यकर्ता कृष्णकांत प्रचारक जीवन से गृहस्थ जीवन में उन्हें प्रवेश करना चाहते थे, किंतु जीविकार्जन का उपयुक्त साधन नहीं दिख रहा था। नानाजी ने उनका विवाह कराया और पति-पत्नी दोनों की शिक्षा व संस्कारक्षमता का उपयोग करने के लिए एक शिशु मंदिर की कल्पना की। इस प्रकार पहले सरस्वती शिशु मंदिर का श्रीगणेश 1950 में गोरखपुर में नानाजी के मार्गदर्शन में हुआ।

अब एक बिल्कुल नया क्षेत्र नानाजी की प्रतीक्षा कर रहा था और वह था वोट तथा दल पर आधारित राजनीति का। अंतर-बाह्य दबावों के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक नए राष्ट्रवादी राजनीतिक दल के निर्माण में सहयोग देना पड़ रहा था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ नामक नए दल को अक्तूबर, 1951 में अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त हो गया। संघ के जिन कार्यकर्ताओं को डॉ. मुखर्जी के साथ सहयोग करने के लिए चिह्नित किया गया, उनमें दीनदयाल जी के साथ नानाजी का नाम भी था। मार्च, 1952 में पहला आम चुनाव होना था। उत्तर प्रदेश से उसकी तैयारी के लिए नानाजी पूरे मनोयोग से कई महीने पहले से जनसंघ में सक्रिय हो गए। उनके कुशल नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में जनसंघ के विधायकों की संख्या 1957 में 14 से बढ़कर 1967 में 100 पहुंच गई। नानाजी ने जनसंघ के बाहर अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं से भी संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। कांग्रेस में डॉ. संर्पूणानंद, चौ. चरण सिंह, लाल बहादुर शास्त्री आदि से संबंध स्थापित किए।

समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से परिचय करने के लिए लखनऊ में उनके कॉफी हाऊस अड्डे पर जा पहुंचे। अपना परिचय देकर कहा कि मैं आपसे संबंध बनाना चाहता हूं। डॉ. लोहिया ने उपहास करते हुए कहा, ”तुम जनसंघ के हो, यानी संघ के हो, तब तुम्हारी-हमारी दोस्ती कैसे जमेगी?” नानाजी ने कहा, ”मैं संघ का हूँ और अंत तक रहूंगा, फिर भी आपसे संबंध चाहता हूं।” सचमुच उन्होंने डॉ. लोहिया को अपने निकट खींच लिया।

जनसंघ में 1951 से 1961 तक उत्तर प्रदेश नानाजी का कार्यक्षेत्र रहा। 1962 के आम चुनाव में उन्हें अखिल भारतीय दायित्व मिला। 1967 के चुनाव में भारतीय जनसंघ कांग्रेस के बाद सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभर कर आया। तभी दुर्भाग्य से जनसंघ के दर्शनकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की 11 फरवरी, 1968 को मुगलसराय स्टेशन पर रहस्यमय ढंग से हत्या कर दी। नानाजी के लिए यह भारी व्यक्तिगत आघात था। दीनदयाल जी की स्मृति में उन्होंने ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ की स्थापना की। एक ओर वे जनसंघ के महामंत्री के नाते राजनीति में सक्रिय दिख रहे थे, दूसरी ओर मन ही मन वोट और दल की राजनीति से चरित्र परिवर्तन का उपाय खोजने में लगे थे। उन दिनों उनके ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के स्वामी रामनाथ गोयनका से बहुत घनिष्ठ संबंध थे। गोयनकाजी के माध्यम से सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायणजी से निकटता बनी।

15 अप्रैल, 1973 को पटना में प्रभावतीजी के निधन के बाद जयप्रकाशजी अंदर से टूट गए थे। उनका स्वयं का स्वास्थ्य भी जर्जर था। इस मन:स्थिति में उन्होंने दिल्ली में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के गेस्ट हाऊस में गोयनकाजी का आतिथ्य स्वीकार कर लिया। वहां गोयनकाजी, रामधारी सिंह दिनकर एवं गंगाशरण सिंह आदि मित्र जे.पी. को दिलासा देते और उनके संकल्प बल को दृढ़ करने का प्रयास करते। नानाजी के अतिरिक्त बीच-बीच में चंद्रशेखर भी आते रहते थे और देश की परिस्थिति पर विचार-मंथन करते थे। राजनीति के चारित्रिक पतन और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से जे.पी. बहुत अधिक उद्वेलित थे। लगभग उसी समय गुजरात के कांग्रेसी मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के विरुद्ध नवनिर्माण समिति के तत्वावधान में छात्र आंदोलन प्रारंभ हो गया। नानाजी, गोयनकाजी एवं पूरी मित्रमंडली को लगा कि यदि इस समय जे.पी. गुजरात जाकर उस आंदोलन का विराट रूप देखें तो शायद उनमें नेतृत्व करने का उत्साह जग सकेगा। सबने मिलकर जे.पी. को 14-15 फरवरी, 1974 को अमदाबाद यात्रा के लिए तैयार कर लिया। नानाजी जे.पी. के स्वागत एवं कार्यक्रमों की तैयारी के लिए सात दिन पहले अमदाबाद पहुंच गए। गुजरात आंदोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की प्रमुख भूमिका थी। अत: नानाजी की प्रेरणा और योजना से जे.पी. का भव्य स्वागत हुआ। वहां उमड़े जन-ज्वार को देखकर जे.पी. भाव-विभोर हो गए। वे बार-बार कहते थे कि इस दृश्य को देखकर 1942 की याद आती है। जे.पी. का नैराश्य भाव छंट गया और युवा-शक्ति के बल पर व्यवस्था परिवर्तन का उन्हें विश्वास होने लगा।

4 नवंबर को पटना में एक विशाल जुलूस निकला। प्रशासन ने उन्हें पटना जाने से रोका था। पर वे डाकिए के भेष में आरएमएस के डिब्बे में बैठकर पटना पहुंच गए। जुलूस के आरंभ होने पर उन्हें अपनी बगल में खड़े देखकर जे.पी. विस्मित रह गए। जुलूस में नानाजी जे.पी. के साथ कभी पैदल कभी जीप में छाया की तरह चले। नानाजी ने देखा कि सीआरपीएफ के एक जवान की लाठी जे.पी. के सिर पर पड़ने ही वाली है तो वे कूद कर जे.पी. के सामने आ गए और लाठी का वार अपनी बाईं कलाई पर ले लिया। उन पर कई लाठियां पड़ीं। यदि उस समय नानाजी तनिक भी चूक जाते तो पता नहीं, जे.पी. का क्या होता, केवल उनका पैर ही जख्मी हुआ।

25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विराट जनसभा हुई, जिसे जे.पी., बीजू पटनायक और नानाजी ने संबोधित किया। इस सभा में 29 जून से देशव्यापी आंदोलन आरंभ करने का कार्यक्रम घोषित किया गया। सभा के बाद नानाजी राजमाता सिंधिया को विदा करने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन गए। वे प्लेटफार्म पर टहल रहे थे कि गुप्तचर विभाग के किसी अधिकारी ने उन्हें बताया कि आज रात को आपातकाल की घोषणा के साथ आप सब नेता गिरफ्तार होंगे, अत: आप यहां से खिसक जाइए। नानाजी स्टेशन से ही भूमिगत हो गए। वह चेतावनी सही निकली, देर रात जे.पी. आदि सभी नेताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी शुरू हो गई।

अब ‘लोक संघर्ष समिति’ के सचिव के नाते भूमिगत नानाजी पर अधिनायकवाद के विरुद्ध संघर्ष के संचालन का गुरुतर दायित्व आ पड़ा। इसे निभाने के लिए उन्हें अपनी वेशभूषा और शक्ल बदलनी पड़ी। धोती-कुर्ते की जगह शर्ट-पैंट पहनी, सफेद बालों को काला किया, गंजेपन को ढकने के लिए विग लगाई। ऐसा हुलिया बनाया कि निकटतम मित्र और संबंधी भी पहली भेंट में उन्हें नहीं पहचान पाते थे।

भूमिगत स्थिति में दो महीने बाहर रहकर उन्होंने देशव्यापी संघर्ष का तंत्र खड़ा किया। इसके बाद गुप्तचर विभाग पंजाब के कुछ भूमिगत नेताओं का पीछा करते हुए दिल्ली के सफदरजंग एन्क्लेव में नानाजी तक पहुंचने में सफल हो गया। नानाजी तिहाड़ जेल पहुंच गए। वहां चरण सिंह, प्रकाश सिंह बादल आदि अनेक नेता बंद थे, उनमें घोर निराशा छाई हुई थी। नानाजी ने सभी दलों के एक दल में विलीनीकरण का प्रयास आरंभ किया। तब पुन: उनका चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा से सामना हुआ। 17 माह लंबे कारावास में नानाजी को अध्ययन और मनन का अलभ्य अवसर प्राप्त हुआ। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगे कि राजशक्ति से नहीं, लोकशक्ति से देश का पुनर्निर्माण होगा। नानाजी का मन सत्तालोलुप, सिद्धांतहीन, व्यक्तिवादी राजनीति से उचटने लगा था और वे सत्ता राजनीति से वैराग्य लेकर रचनात्मक कार्य में अपने को समर्पित करने के लिए आतुर होने लगे थे।

जेलों से राजनीतिक कैदियों की रिहाई का सिलसिला शुरू हो गया। जे.पी. नानाजी को जल्दी-से-जल्दी बाहर लाना चाहते थे। नानाजी ने चुनाव न लड़ने का मन बना लिया था, पर जे.पी. ने संदेश भेजा कि अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए जेल से बाहर आना जरूरी है और जेल से बाहर आने के लिए आपको लोकसभा चुनाव का नामांकन पत्र भरना चाहिए। जे.पी. के आदेश का पालन करने के लिए नानाजी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोंडा जिले के बलरामपुर क्षेत्र से अपने नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और जेल से बाहर आ गए। नानाजी बलरामपुर की रानी राजलक्ष्मी देवी को भारी अंतर से हराकर लोकसभा में पहुंचे।

मोरारजी भाई ने नानाजी को मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री जैसा महत्त्वपूर्ण दायित्व देने का विचार किया। मंत्रिमंडल की संभावित सूची में उनका नाम भी प्रचार माध्यमों में प्रसारित हो गया, पर प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) के कहने पर संगठन-कार्य में अपना पूरा ध्यान केंद्रित करने के लिए नानाजी ने मंत्रीपद अस्वीकार कर दिया।
अब नानाजी एक साथ तीन मोर्चों पर सक्रिय थे। एक ओर उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान को पी. परमेश्वरन के निर्देशन में एक प्रभावी बौद्धिक केंद्र बनाने की प्रक्रिया आरंभ की। दूसरे, उन्हें जनता पार्टी के भीतर प्रारंभ हुए सत्ता-संघर्ष का शमन कर जनता पार्टी सरकार को जे.पी. के सपनों की पूर्ति का माध्यम बनाना था। तीसरे, उन्हें अपने लिए गैर राजनीतिक रचनात्मक कार्य की भूमिका खोजनी थी।

14 अगस्त, 1979 को उन्होंने चरण सिंह को एक लंबा पत्र लिखा। इस पत्र में नानाजी ने तिथि अनुसार उनकी सत्तालिप्सा, अवसरवादिता, परस्परविरोधी और असत्य कथनी का तथ्यात्मक वर्णन प्रस्तुत किया। उसी पत्र में नानाजी ने लिखा, ”मैं राजनीति में अपने लिए नहीं, राष्ट्रहित के लिए हूं।”

नानाजी का यह विश्वास उत्तरोत्तर दृढ़ होता जा रहा था कि वर्तमान राजनीतिक प्रणाली के भीतर लोकशक्ति का जागरण और सर्वांगीण विकास असंभव है। वे जनसहभाग के द्वारा विकास का रचनात्मक प्रयोग करने को व्याकुल हो उठे। उसके लिए राजनीति से छुटकारा पाना आवश्यक था। इस दिशा में पहले कदम के रूप में उन्होंने 20 अप्रैल, 1978 को एक वक्तव्य में 60 वर्ष से अधिक आयु के अनुभवी राजनीतिकों को सत्ता से अलग होकर रचनात्मक कार्य का उदाहरण प्रस्तुत करने का आग्रह किया। सत्तारूढ़ दल के महामंत्री की ओर से आनेवाला यह वक्तव्य बहुत चर्चित रहा। किसी ने उनकी सलाह को नहीं सुना, पर नानाजी अपना पथ निश्चित कर चुके थे।

8 अक्तूबर, 1978 को उन्होंने पटना में लोकनायक जयप्रकाश की उपस्थिति में एक लंबा ऐतिहासिक वक्तव्य देकर सत्ता-राजनीति से अपने संन्यास की घोषणा कर दी। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अब वे कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे और पूरा समय अराजनीतिक रचनात्मक कार्य को समर्पित करेंगे। तब नानाजी अपनी आयु के 62 वर्ष पूरे कर रहे थे। वे रचनात्मक क्षेत्र में कूद पड़े। इस सार्वजनिक घोषणा के पहले ही वे सर्वांगीण विकास के रचनात्मक प्रयोग की दिशा में कदम उठा चुके थे। गोंडा जिले के जिस चुनाव क्षेत्र का वे लोकसभा में प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उसे ही उन्होंने सर्वांगीण विकास की अपनी पहली प्रयोगशाला बनाने का निश्चय किया।

बलरामपुर की महारानी राजलक्ष्मी, जो लोकसभा चुनाव में उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी थीं, से भेंट होने पर जब उन्होंने अपनी योजना बताई तो उन्होंने जमीन का एक टुकड़ा नानाजी को भेंट किया। इसी टुकड़े को केंद्र बनाकर नानाजी ने 54 एकड़ क्षेत्रफल का एक विशाल परिसर बनाया, जिसे जयप्रकाश और उनकी धर्मपत्नी प्रभावती की संयुक्त स्मृति में ‘जयप्रभा’ ग्राम नाम दिया। नानाजी ने जिले को गरीबी से बाहर निकालने के लिए ‘हर खेत में पानी, हर हाथ को काम’ का नारा दिया और सर्वांगीण विकास के चार सूत्र निर्धारित किए – शिक्षा, स्वावलंबन, स्वास्थ्य एवं समरसता।

उन्होंने देखा कि खेती के विकास के लिए हैंडपंप के द्वारा भूजल को खेतों तक पहुंचाने की व्यवस्था करनी होगी। उन्होंने एक साल के भीतर 20,000 हैंडपंप के गड्ढे (बोरिंग) खोदकर विस्मयकारी रिकॉर्ड स्थापित कर दिया। उन्होंने महंगे स्टील पाइप की जगह बांस के पाइप का आविष्कार किया। बिजली चालित मोटर की जगह बैल चालित रहट का प्रयोग किया। सामाजिक समरसता का दृश्य प्रस्तुत करने की दृष्टि से 25 नवंबर, 1978 का दिन स्वाधीन भारत के इतिहास का एक अविस्मरणीय दिन रहेगा। उस दिन पहली बार तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. नीलम संजीव रेड्डी ने जयप्रभा ग्राम में गरीब किसानों के साथ एक पंक्ति में जमीन पर बैठकर भोजन किया और ग्रामोदय प्रकल्प का विधिवत उद्घाटन किया। यह नानाजी की सर्वमान्यता का ही परिचायक है कि राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बालासाहेब देवरस की बगल में बैठने में कोई परहेज नहीं किया।

गोंडा जिले में विकास का नमूना खड़ा करने के साथ-साथ उनका मस्तिष्क देश के विभिन्न भागों में वहां की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप नए-नए प्रकल्पों की रचना करने लगा। नागपुर शहर में निर्धन और पिछड़ी बस्तियों के बच्चों को विकास-प्रक्रिया का अंग बनाने के लिए उन्होंने ‘बालजगत’ के रूप में एक अद्भुत प्रकल्प खड़ा किया। वनवासियों की दृष्टि से सिंहभूम व सुंदरगढ़ जिलों में वनवासी प्रकल्पों का सूत्रपात किया। अमदाबाद में सेवानिवृत्त प्रौढ़ नागरिकों को समाज में पिछड़े एवं दुर्बल वर्गों की सेवा में प्रवृत्त करने के लिए ‘वानप्रस्थ अभियान’ आरंभ किया। पानी के अभाव से जूझते मराठवाड़ा क्षेत्र के बीड जिले में जल संचय, कृषि विकास एवं गुरुकुल आदि के प्रयोग आरंभ किए।

1990 में नानाजी को पवित्र तीर्थ चित्रकूट ने अपनी गोद में खींच लिया। वहां उन्होंने ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ की अभिनव योजना तैयार की, जिसमें शिशु अवस्था से स्नातकोत्तर कक्षाओं तक की शिक्षा से निकले छात्र शहरों की ओर भागने के बजाय ग्राम्य-जीवन अपनाने के लिए प्रवृत्त हों। चित्रकूट में नानाजी ने आरोग्यधाम, उद्यमिता विद्यापीठ, गोशाला, वनवासी छात्रावास, गुरुकुल, सुरेंद्रपाल ग्रामोदय विद्यालय जैसे प्रकल्पों की बड़ी शृंखला खड़ी की। चित्रकूट जिले में उन्होंने गांवों को मुकदमेबाजी से मुक्त कराने की एक अभिनव योजना आरंभ की। अब तक लगभग 80 गांवों को विवादमुक्त श्रेणी में लाने में सफलता मिली है। नानाजी ने गोंडा, बीड और चित्रकूट में भारत सरकार के चार कृषि विज्ञान केंद्रों के संचालन का बीड़ा उठाया। इन प्रकल्पों को चलाने के लिए ‘समाज शिल्पी दंपति’ की अभिनव योजना प्रस्तुत की। इस योजना के अंतर्गत समाजसेवा की भावना से अनुप्राणित पति-पत्नी अपने भरण-पोषण का न्यूनतम जीवन स्तर अपनाकर अपना पूरा समय सर्वांगीण विकास कार्यों में लगाते हैं। अकेले चित्रकूट क्षेत्र में 35 समाज शिल्पी दंपति कार्यरत हैं। चित्रकूट जिले से नानाजी के रचनात्मक कार्य की सुगंध देश-विदेश में फैली। नानाजी के पुराने सहयोगी और मित्र अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री के नाते वहां गए और वहां के विकास कार्यों को देखा। भारत सरकार ने नानाजी को 23 मार्च, 1999 को पद्म विभूषण सम्मान से अलंकृत किया और फिर समाजसेवी के नाते राष्ट्रपति ने 22 नवंबर, 1999 को उन्हें राज्यसभा के लिए नामांकित किया। नानाजी ने अपनी सांसद निधि की एक-एक पाई को चित्रकूट के विकास में लगाया। उन्होंने सांसदों का वेतन-भत्ता बढ़ाने का विरोध किया। उसमें असफल रहने पर अपने हिस्से की बढ़ी हुई राशि को प्रधानमंत्री सहायता कोष में भेंट कर दिया।

6 अक्तूबर, 2005 को राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने चित्रकूट यात्रा की, जमीन पर ग्रामवासियों के साथ बैठकर पत्तल-दोने में भोजन करके समरसता का उदाहरण प्रस्तुत किया। विश्राम करना तो नानाजी ने सीखा ही नहीं था। वे अपने जर्जर शरीर को अंत तक रगड़ते रहे। कई वर्षों तक वे भीष्म पितामह की तरह शैयासीन रहे। वे अपने पैरों पर न पूरी तरह खड़े हो सकते थे, न आंखों से स्पष्ट देख सकते थे, न कानों से पूरी तरह सुन सकते थे, किंतु उनका दिल और दिमाग हर क्षण समाज की चिंता करते रहे। वे मुंह से बोलकर ‘युवाओं के नाम पाती’ लिखाते रहे और अंत में 1997 में स्वप्रेरणा से उन्होंने अपनी देह को शोध-कार्य के लिए समर्पित करने की वसीयत लिख दी। 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में उनका महाप्रयाण हुआ और उनकी वसीयत के अनुसार उनकी देह दिल्ली के एम्स को समर्पित कर दी गई। 25 जनवरी, 2019 को भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से विभूषित करने की घोषणा की।

लेखक – डॉ. आनंद सिंह राणा