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‘‘बिन संगति सद्गति न होई’’- डाॅ. किशन कछवाहा

भगवान कभी भी, किसी समय प्रकट हो सकते हैं, भक्त उन्हें पुकारे तो। क्या भगवान विष्णु प्रिय भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिये, उसके निष्ठापूर्ण भाव के कारण बिना किसी पूर्व योजना के क्षणभर में उनका ‘‘सामयिक अवतार’’ हुआ। यह अवतार कुछ ही क्षण अस्तित्व में रहा।

यों तो वे प्रभु सर्वज्ञ हैं, सर्वान्तरात्मा में विराजमान हैं। क्या भक्त प्रहलाद पर हो रहे अत्याचार उनसे छिपे थे। शायद भगवान यह सोच रहे होंगे कि हिरण्य कश्यप का पितृ स्नेह किसी दिन जाग्रत होकर उसके ‘अहँ’ को नष्ट कर देगा, परन्तु जब ऐसा नहीं हुआ तो अन्त में अत्याचार की चरम सीमा के बाद क्षणभर में ईश्वर को उस स्तम्भ से प्रकट होकर उसका वध करना ही पड़ा।

यह चिन्तन करने का विषय है कि जब कोई ‘असुर’ या आसुरी शक्तियाँ अपनी तपस्या- शक्ति के बदले में ईश्वर को छलना चाहतीं हैं तो श्री भगवान उस प्रकार के छल में भी उससे दो हाथ आगे निकल जाते हैं। श्री समर्थ ने एक स्थान पर कहा भी था कि  यदि आप उस परमात्मा से माया करना चाहें तो वह इस मामले में ‘महाठग’ हो जाता है।

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‘‘भगवान का नरसिंह अवतार चिन्तन का विषय तो है ही, हृदय में बैठा लेने वाला दर्शनीय है। जिस समय नरसिंह के रूप में ‘क्रोधावतार’ हुआतो उस समय उस भयंकर रूप को देखकर सारे देवता भी थर-थर काँपने लगे थे। यहाँ तक कि स्वयं श्री लक्ष्मी जी भी, उनके इस स्वरूप के समक्ष खड़े होने में भयभीत हो रहीं थीं। देवताओं ने अत्यन्त सूझबूझ के साथ, अंत में उनकी क्रोधाग्नि को शांत करने के लिये बालक प्रहलाद को ही ठेलठाल कर आगे खड़ा करने प्रेरित किया। अपने प्रिय भक्त बालक को देखकर प्रभु का वात्सल्य भाव जागृत हुआ। केवल क्रोध ही शान्त नहीं हुआ। उन्होंने विव्हल भाव से बल्कि नयनों में जल भर कर कहा- ‘‘पुत्र! मैं तुमसे क्षमा प्रार्थी हूँ,’’ मेरी देरी के कारण ही तुम्हें इतने कष्ट झेलने पड़े। यह है भक्त तथा भगवान की महत्ता।’’

सर्वशक्तिमान श्री भगवान तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर व्यक्ति को हिन्दू जीवन शैली का स्मरण कर परिवार जनों के आशीर्वाद एवं गुरूजनों के प्रसाद स्वरूप सदाचारों को श्रृद्धा पूर्वक मनोयोग के साथ पालन करते रहना चाहिये।

गुरू समर्थ रामदास जी महाराज का यह कथन स्मरणीय है कि यदि शरीर को परमार्थ कार्यों में लगाया जाये, तब तो सार्थक होता है, नहीं तो अनेक प्रकार के आघातों के कारण व्यर्थ ही मृत्यु पथ पर चला जाता है। जो कल्याण का विचार लेकर चलता है, उसकी कभी दुर्गति नहीं होती। मनुष्य को अपने जीवन में मर्यादाओं का पालन करना चाहिये। मर्यादाओं का पालन करने वाला स्वयं ‘पुरूषोत्तम’ हो जाता है।

साधन हीन तो सम्पन्न बन सकता है, लेकिन लालची मनुष्य तृप्त हो जाये, यह संभव नही है। हम जीवन में जो लक्ष्य बनाते हैं और उसे प्राप्त करने में अपना सारा जीवन लगा देते हैं, उस लक्ष्य पर विवेक पूर्वक चिन्तन कर लेना परम आवश्यक है, क्योंकि साधनों की कमी से बड़ी लालच और अतृप्ति भी है। जो शोषित, दलित, पीड़ित हैं, उनकी सेवा ही सच्चा धर्म और यही ईश्वर की आराधना है। गोस्वामी  तुलसीदास जी महाराज ने भी श्रीरामचरितमानस में लिखा है कि ‘‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।’’

मनुष्य का जीवन कुरूक्षेत्र है, और उसका शरीर (जीव) एक रथ है, इस रथ का संचालन ईश्वर के हाथ हैं। रथ का अर्जुन मनुष्य जीव का प्रतिनिधि है और मनुष्य (जीव) रूप होकर सारथि कृष्ण अंतरात्मा है। जीवन में (ऊर्जा) ज्योति शरीर के भीतर और बाहर रहकर यश, विद्या, ज्ञान, तुष्टि, पुष्टि और सभी प्रकार के बल जैसे शारीरिक बल, आत्मबल, मनोबल प्रदान करने वाली है, जिस ज्योति को हम जलाते हैं, वह हमें सूर्य, चंद्र आदि नक्षत्ऱों से प्राप्त होती रहती है।

प्रत्येक व्यक्ति को विधाता ने दो अत्यन्त बहुमूल्य एवं आकर्षक उपहार भेंट किये हैं, वे हैं- ‘बुद्धि और भावना’’ ये दोनों ऐसी चीजें हैं जिनके सही सही उपयोग करने पर व्यक्ति सांसारिक जीवनमें न केवल आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता हे, वरन् आध्यात्मिक क्षेत्र में भी विशेष प्रगति प्राप्त कर सकता है।

अब्राहिम लिंकन का एक कथन याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था, कि परेशानियाँ और अभावों का सामना तो दुनिया का हर आदमी कर सकता है, पर उसका असली चेहरा (चरित्र) तब पता चलता है, जब वह सत्ता या ताकत आने पर उसका दुरूपयोग न करे।

जीवन का अर्थ है, प्राणों के साथ मनुष्य में स्वाभिमान, स्वास्थ्य, निर्भयता, आत्मसम्मान, उत्साह, अरवेद एवं आत्मग्लानि आदि गुणों का होना। संघ के पाँचवें सरसंघचालक श्री कुप्. सी. सुदर्शन जी ने अपने एक उद्बोधन में कहा था कि ‘‘आसुरी प्रकृति वाले व्यक्ति अपनी वैधानिकता और सार्थकता सिद्ध करने के लिये किसी न किसी विचारधारा का प्रश्रय लेते हैं।

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इस विचारधारा का आधार, आर्थिक, पाँथिक, वांशिक आदि कुछ भी हो सकता है। रूस और चीन में कम्युनिष्टों द्वारा 10 करोड़ से भी अधिक लोगों का संहार, जर्मनी में हिटलर द्वारा वांशिक शुद्धि के नाम पर 60 लाख यहूदियों की हत्या, तिब्बत में चीन द्वारा 60 लाख तिब्बती वंश को समाप्त करना आदि इसके मुख्य उदाहरण है।’’

भारतीय दर्शन के अनुसार ‘न क्रोध करो, न ईष्र्या न छल। दूसरे मूर्खता करते हैं, तो उसका अनुसरण करने की क्या आवश्कता? अपना मुँह उजला और हाथ स्वच्छ रखों। दूसरे किस तरह रहते हैं और क्या करते हैं, यह ढूँढने के लिये दुर्जनों के समुदाय में मत जाओ।’

जीवन नहीं बना है धन से, मैत्री से , कला से पारिवारिक प्रभावों से, शुभअवसरों से, अच्छे स्थानों से, अच्छे स्वास्थ्य से अथवा अच्छे स्वभाव से। यह बना है- विश्वास से सद्गुण शीलता से, ज्ञान से, संयम से धैर्य से भक्ति से मातृत्व प्रेम और सेवा से।

हमने राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्र में अपने जीवन को संशयग्रस्त बना लिया है। हमने श्रद्धा और विश्वास को खो दिया है। इस देश में संशय तथा अश्रद्धा  की जो फसल ऊग आयी हे, उसे नष्ट करें तथा विश्वास और श्रद्धा जागृत करें। परहित जिस किसी के मन में आ जायेगा तो निश्चित ही हमारा देश ऊँचाई की सीमा पर पहुँच जायेगा। पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा से हम मुक्त हों; क्योंकि इससे हमारी आत्मा पतित होकर दुःख पाती है।

‘‘हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों।
साधनधाम बिबुध दुर्लभ तनु,
मोहि कृपा करि दीन्हों।।’’

संसार में न बदलने वाली सत्ता को परमात्मा कहते हैं और शरीर में न बदलने वाली सत्ता को आत्मा कहते हैं। शरीर और संसार एक है। ऐसा विवेक सत्संग से ही प्राप्त होता है।

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डाॅ. किशन कछवाहा