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बुरे कर्म व्यक्ति क्यों करते हैं?- डाॅ. किशन कछवाहा

क्या कभी हम अपने वास्तविक सत्-चित् आनन्द स्वरूप रूप को इस जीवन में प्राप्त कर सकते हैं? क्या सत्य, प्रेम, करूणा, सेवा, संवेदना आदि दिव्य भावनाओं को संचरित होते देख सकेंगे? क्या स्वार्थ, अनीति की राह की परित्याग कर सच्चाई और परमार्थ की राह पर चल सकेंगे? इन प्रश्नों का सरल उत्तर है – हाँ।

हमारे हृदय में काम, क्रोध, लोभ, ईष्र्या, द्वेष आदि दुर्गुणों ने अपना स्थान सरलता से बना लिया है, क्योंकि हम इस बावत् अज्ञानी ही हैं कि इन दोषों से हमारे जीवन की किस किस प्रकार के कष्टों- मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। इसका ज्ञान होते ही अध्यात्म और वैराग्य की तरंगे स्वयं अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर देंगेी। एक तो चित्त की एकाग्रता अपनी तरफ खींचनं लगेगी। फिर ध्यान की क्रिया।

ईश्वर ने मनुष्य को सबसे बड़ा उपहार दिया है-‘वाणी’ का। वाणी का सदुपयोग किया जाय तो उसका प्रभाव मन पर पड़े वगैर रह ही नहीं सकता। तात्पर्य यह कि उस स्थिति में इस संसार के रचयिता परमपिता परमात्मा का ध्यान आता है-यही भक्ति मार्ग की ओर जाने को प्रेरित करेगा। इसी क्रम में अन्य द्वार भी खुलते चले जायेंगे। इस स्थिति तक पहुंचते-पहुंचते स्वाभिमान भी जग सकता है और अभिमान भी। यहां पर वैसी ही सतर्कता बरतने की जरूरत होगी जैसी हमने काम, क्रोध आदि के समय समझी थी। स्वाभिमान जहां हमें होश में लाता है, वही अभिमान बेहोश-बेबस बना देता है। इन दोनों में बड़ा अंतर हे, एक प्रकाश की ओर ले जाता है, जबकि दूसरा अंधकार की ओर। यही सजगता और सतर्कता का समय होता है। ऐसे अवसरों पर वाणी का कैसे उपयोग किया जाता है-यह विषय महत्वपूर्ण बन जाता है।

भक्ति मार्ग हमें यह शिक्षा देता है कि वाणी से सदैव प्रभु का नाम लेते रहना चाहिये। शरीर भले ही सांसारिक कर्म करता रहे पर वाणी में संसार न रहे- यह सतर्कता तो रखनी ही पड़ेगी, क्योंकि वाणी का मन पर व्यापक असर पड़ता है। विश्वामित्र जी की एक प्रार्थना है-‘‘अमृत में आसन’’ अर्थात् मेरी वाणी में अमृत हो।

जीवन की श्रेष्ठतम संभावनायें-श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा के माध्यम से प्रस्फुटित होकर आध्यात्मिक जीवन का द्वार खोल देती हैं। व्यक्ति ही नहीं राष्ट्र एवं युग भी इनके अभावों के परिणाम स्वरूप अनास्था के घोर संकट से गुजरने की संभावनाकों के घेरे में आ जाता है।

यदि श्रद्धा अंध श्रद्धा में परिणित हो जाये, निष्ठा हठवाद और दुराग्रह के संकीर्ण दायरे में घसिट जाये, ऐसी स्थिति में प्रज्ञा को साधना पर आगे बढ़ते पता ही नहीं चल पायेगा, कब व्यक्ति विषाक्त वातावरण में अटक गया है। वास्तव में श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा पारस्परिक रूप से एक दूसरे से जुड़े हुये तत्व हैं। श्रद्धा कारण शरीर का तत्व हैं, प्रज्ञा सूक्ष्म शरीर का, तथा निष्ठा स्थूल शरीर का। ये तीनों व्यक्तित्व को समर्थ बनाते हैं। इनके द्वारा ही ज्ञान, कर्म और भक्ति का मार्ग के माध्यम से अध्यात्म की ओर अग्रसर होने में सफलता मिलती है। परमहंस रामकृष्ण, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद से महर्षि अरविन्द आदि महापुरूष सर्वोच्चता को प्राप्त कर सके थे।

जीवन में काम, क्रोध, मद -मोह, दम्भ, ईष्र्या, द्वेष की लपटों  का सामना तो करना पड़ता ही है। चित्त की एकाग्रता बढ़ाते रहने की स्थिति ध्यान पर टिक आती है। तब आत्मज्ञान की ज्योति जगमगाने लगेगी। फिर करूणा, संवेदना, प्रेम की अनंत लहरों का स्वयं अनुभव होने लगेगा। जिनका अंतकरण शुद्ध हो गया है, पाप उनमें शेष न रह गया हो, वह सब कुछ जानने लग जाता है। वास्तव में हमारा निष्पाप हो जाना ही हमारा मूलस्वभाव है और जिसका जीवन पुरूषोत्तम को समर्पित हो गया, उसके लिये सब कुछ जानना व्यर्थ हो जाता है। भगवान के रूप को जान लेना ही तो गुह्य ज्ञान है।

जो साधक या भक्त मान और मोह की इच्छा से रहित हैं, आसक्ति रूपी दूषित भावना से मुक्ति  प्राप्त कर चुके हैं, और केवल ईश्वर को मनन-चिन्तन ही जिनका मुख्य लक्ष्य बन गया है, वे सुख-दुःख जैसे समस्त द्वन्दों से मुक्त हो चुके हैं, वे तो उस परम पद को प्राप्त कर लेने की क्षमता प्राप्त कर चुके है, ऐसा माना जाता है।

महर्षि अरविन्द कहते हैं कि भगवान प्रकृति के वश में रहकर नहीं, उसकी मार्गदर्शक आत्मा के रूप मे, भीतर से ही उसका निर्माण व मार्गदर्शन करने वाली आत्मा (जो परमात्मा का ही एक अंश है) के रूप में करते हैं। हमें भी अज्ञान की माया से मुक्त हो अपने आप को पहचानना होगा और प्रभु का उपकरण बनना होगा। हम प्रकृति के वशीभूत होकर (स्वभाव) वासनाओं में फँसकर न जियें, बल्कि अपनी उच्चतर स्थिति में पहुँचने का प्रयास करें, सतत् उस परमात्म सत्ता की अपने अंदर अनुभूति करते हुये। यह तब ही सम्भव है जब हमारे कर्म अच्छे और श्रेष्ठ होंगे सर्वजन हितार्थ होंगे।

गीता के आठवे अध्याय के 8/14 श्लोक में कहा है- हे अर्जुन। जो पुरूष मुझमें अनुरक्त- अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरूषोत्तम को स्मरण करता है उस निरन्तर मुझमें युक्त योगी के लिये मैं सहज सुलभ हूँ, (उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।)

इस तथ्य से लगभग सभी अवगत है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है, और बुरे कर्मों का परिणाम बुरा, फिर भी बुरे कर्म व्यक्ति क्यों करते हैं? महाभारत में भी उल्लेख आता है कि दुर्योधन ने कहा था कि ‘‘जानामि धर्मं न च में प्रवृत्तिः’’, जानामि अधर्मं न च में निवृत्तिः।’’ आखिरकार वह कौन सी प्रवृत्ति है, जो व्यक्ति को बलात् पापकर्र्मां की ओर प्रवृत्त करती है? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (3, 37-43) श्लोक के माध्यम से स्पष्ट किया है कि रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह भोगों से कभी तृप्त न होने वाला और बड़ा पापी है।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि सभी व्यक्ति को दुःखी बनाते हैं। चित्त में हमारा समूचा संसार बीज रूप में सिमटा है। हमारे जीवन में जो कुछ घटित हो चुका है, जो घटित हो रहा है और जो भविष्य में घटित होगा, इन सभी के कारण हमारे अपने चित्त में उपस्थित हैं। हमारी रूचियों चाहतें, लालसाओं व प्रेरणाओं में रंग इन्हीं के द्वारा भरे जाते हैं।