Trending Now

बढ़ता जल प्रदूषण: कब चेतेंगे ? – डाॅ. किशन कछवाहा

‘वाटर एड’ नामक संस्था द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में पानी की कमी से जूझती सबसे अधिक आबादी भारतवर्ष में है, जो वर्ष भर के किसी न किसी समय पर पानी की कमी से जूझती रहती है। मोदी सरकार ने ‘जल शक्ति मंत्रालय’ का गठन कर इस ओर विशेष ध्यान केन्द्रित किया है। यद्यपि जलशक्ति अभियान एक जुलाई सन् 2019 से शुरू कर भी दिया गया है। यह अभिमान भी स्वच्छ भारत अभियान की तरह जन भागीदारी द्वारा संचालित किया जा रहा है।

घटते जल स्तर के संकेत मिलना प्रारम्भ तो हो चुके हैं, लेकिन पर्याप्त जागरूकता का अभाव भी परिलक्षित हो रहा है। सामान्तः गर्मी के मौसम में पानी की किल्लतें बहुतायत से झेलना ही पड़ती हैं,  फिर भी आमजन उस मामले में सबक लेने तैयार नहीं हैं। दूसरी ओर प्रति व्यक्ति पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। पानी की व्यर्थ बर्बादी को रोकने के प्रयास हर स्तर पर होना जरूरी है।

भारत निरन्तर जल संकट की तरफ बढ़ रहा है-इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता। अधिकांश आबादी या तो दूषित जल पर निर्भर है या फिर पानी के अन्य स्त्रोतों तक उसकी पहुंच कठिन है। जल विशेषज्ञों का भी मानना है कि आगामी सन् 2025 तक भारत की स्थिति जल के मामले में और भी गम्भीर हो सकती है। यह भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि भारत भी पानी के संकट वाले देशों की श्रेणी में न आ जाये। पानी के संकट से जूझ रहे वे देश इस श्रेणी में आते हैं, जहां प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1000 मीटर क्यूबिक से कम होती है। आज भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1545 क्यूबिक से भी कम है। पानी का प्रबंधन न सरकारों की निन्दा-आलोचना के जरिये ठीक हो सकता है, न रोने, चीखने-चिल्लाने से।

2020 से सन 2025 तक भारत देश और विश्व का आर्थिक, सामाजिक मेदिनीय भविष्य  Religion World

देश में प्रतिवर्ष औसत 110 सेन्टीमीटर बारिश होती है और इस वर्षा केे जल का संचय आठ प्रतिशत तक ही संचित हो पाता है, शेष 92 प्रतिशत व्यर्थ बहकर चला जाता है। देश के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भू-जल का उपयोग कर मुख्य रूप से पानी की आपूर्ति होती है। इस भूजल का उपयोग बड़ी बेरहमी के साथ किया जाता है, जिसके कारण देश, के कई भागों में हालात अत्यंत खराब हो चुके हैं। कहीं-कहीं तो 500 फुट जमीन खोदने पर भी पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। गंभीरता से ध्यान देने की बात यह है कि पानी की जमीन से निकासी ज्यादा है और संचयन का काम कम या नहीं के बराबर है। इसलिये यह सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिये कि जल स्त्रोतों से जितना पानी लेना है, उन्हें उतना वापिस लौटाने की प्रबंधन नीति को व्यवहारिक व्यरूप प्रदान करने की कोशिशें प्रारम्भ हों। पानी का काम अकेले नहीं वरन् जन सहयोग से ही संभव है। पानी का विषय एक साझा उपक्रम के जरिये हल किया जा सकता है।

इतिहास और पुराणों में भी ऐसे उल्लेख उपलब्ध हैं, जिसमें सभी गरीब-अमीर की सहभागिता रही है। सतही तौर पर आज सरकार की जिम्मेदारी मानकर अपना हाथ खींच लेने की प्रवृत्ति बनी हुयी है। इसी सोच की परिणाम है कि जल प्रबंधन का चक्र अपनी गति खो बैठा है। उद्योग जगत और कृषि जगत जेट और सबमर्सिबल पंप के माध्यम से भूजल का मनमाना दोहन कर रहे हैं।

देश में प्रतिवर्ष पानी के कुल उपयोग का 89 प्रतिशत हिस्सा कृषि कार्यों और सिंचाई के लिये खर्च किया जाता है, नौ प्रतिशत घरेलू कामों में खर्च होता है तथा शेष दो प्रतिशत हिस्सा उद्योगों द्वारा काम में लाया जाता है। देश में हर घर में खर्च होने वाले पानी का 75 प्रतिशत हिस्सा बाथरूम में खर्च होता है। इस हिसाब से देश के ग्रामीण और शहरी इलाकों में पानी के संचय की विशेष आवश्यकता है। कतिपय ग्रामीण एवं वनांचल ऐसे भी हैं, जहां 2-3 किलोमीटर या इससे भी अधिक दूरी कर मुश्किल से एक घड़ा पानी लोगों को उपलब्ध हो पाता है।

जल के बिना जीवन संभव नहीं है। स्वयं हमारे शरीर की संरचना कुछ इस प्रकार की है, कि उसमें दो तिहाई हिस्सा जल का ही है। सामवेद का प्रमुख तत्व जल है। युजुर्वेद में शांति पाठ में पर्यावरण के सभी तत्वों को शांत और संतुलित बनाये रखने का उत्कट भाव निहित है। अदृश्य आकाश, पृथ्वी एवं उसके सभी घटक जल, औषधियाँ, वनस्पतियाँ, सम्पूर्ण साधन एवं ज्ञान शांत रहे। पर्यावरण की दृष्टि से इतना गहन और सूक्ष्म विश्लेषण अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता।

श्रीरामचरित्मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने चारागाह, तालाब, हरितभूमि, वन-उपवन के सभी जीवों का उल्लेख किया है। यह भी कि वे सभी आनन्द पूर्वक रहते थे।

आज पृथ्वी को प्रदूषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव झेलना पड़ रहा है। जीव-जन्तुओं की प्रजातियों के नष्ट होने या विलुप्त हो जाने का क्रम आरंभ हो चुका है। चिड़ियों की मन को आकर्षित कर लेने वाली चहचहाहट हमारे आंगनों की शोभा से दूर हो चुकी है। बसंत की बहार थम चुकी है। पौधों की रंगबिरंगता क्रमशः अपना अस्तित्व खोती चली जा रही है।

ऋग्वेद की एक ऋचा में उल्लेख मिलता है ’भूर्जज्ञ उतान पदो 10/72/14’ अर्थात् पृथ्वी वृक्ष से उत्पन्न हुयी है। श्रुति कहती है कि ब्रम्हा ने जल में बीज बोया और वनस्पति उपजी। इससे यही संकेत मिलता है कि प्राचीन भारत में और आज भी जल और वृक्षों को आदर से देखा जाता है। प्राचीन नगर नदियों के किनारे बसते रहे हैं, ताकि जल की असुविधा न हो। जल को देवत्व प्राप्त था।

देवी पुराणा में वर्षा की दो देवियों-रमणियों मेघश्री और  मेघ यंतिका का उल्लेख मिलता है। जल संचयन के विकास में पुराणों की प्रेरणा थी। रामायण काल में भी अनेक मनोरम पुष्करों का विवरण प्राप्त होता है। वहीं सप्तसरोवरों का भी आकर्षक वर्णन है।

आज धरती पर जितने जल की मात्रा उपलब्ध है, उसमें ढ़ाई प्रतिशत ताजा जल है। शेष पानी खारा है, जिसका उपयोग शुद्धिकरण की प्रक्रिया अपनाये बगैर नहीं किया जा सकता। न पीने के लिये, न ही कृषि व उद्योग के लिये। ताजा जल का सत्तर प्रतिशत बर्फ के रूप में है। तात्पर्य यही है कि मनुष्य के लिये उपयोगी जल की उपलब्धता बहुत कम है।

सन् 2050 तक अनुमानित आबादी 8.9 अरब तक पहुंच जाने की स्थिति में हालात् कैसे हो जायेंगे। इसका सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि जलवायु परिवर्तन के जो संकेत मिल रहे हैं, स्थिति विकट हो जाने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता।

विशेषज्ञों द्वारा दिये जा रहे सुझावों और तर्कों को खारिज भी नहीं किया जा सकता कि आगामी विश्वयुद्ध पानी के लिये ही होगा। विगत अनेक वर्षों से देश की प्रादेशिक सरकारें पानी की कमी का प्रश्न उठाकर पड़ोसी प्रदेश से खींचतान करती रहीं हैं।

सिंचाई के लिये पानी को लेकर किसानों में भारी असंतोष व्याप्त है। सम्पन्न लोग तो चैबीसों घंटे पम्पों के जरिये पानी निकालकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते हैं लेकिन गरीब तथा साधन हीन, अभावग्रस्त लोगों को बादलों पर ही अपनी आशायें टिकाये रखना पड़ती हैं। वैसे भी अक्सर देखने में आता ही है कि व्यवहारिक जीवन में गरीब व्यक्ति की तुलना में अमीर और साधन सम्पन्न व्यक्ति जरूरत से ज्यादा पानी का उपयोग करता है।

जल प्रदूषण के मामले में भारत की गणना विश्व के तीन अत्यधिक प्रदूषित देशों में की जाती है। देश की राजधानी दिल्ली का एक अरब लीटर कचड़ा प्रतिदिन यमुना नदी के जल में घुलता है। ऐसे ही मामले प. बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मैसूर आदि का भी है, जहां के पानी में आर्सेनिक, केडमियम मेंजीन, सीसा आदि अत्यधिक हानिकारक विषैले पदार्थ पाये जाते हैं, जिनके कारण नाना प्रकार की बीमारियाँ, वहाँ रहने वाले निवासियों को सहज ही घेर लेंती है। अनेक ऐसे रोग हैं, जो आनुवंशिक बन चुके हैं। इसके अलावा प्रयोग किये जाने वाले कीटनाशकों ने भी अपना गहरा प्रभाव छोड़ रखा है। रासायनिक आधार पर कभी जल शुद्ध नहीं होता। इसमें घुलनशील एवं निलम्बित अवस्था में हाईड्रोजन- सल्फाईड, कार्बनडायआॅक्साईड, अमोनिया, नाईट्रोजन तथा अन्य घुलनशील खनिज पदार्थ, केल्शियम, मेंगनीशियम और सोडियम के नमक, मिट्टी, रेत, कीचड़ आदि होते हैं।

औद्योगिक इकाईयों से निकलने वाले अत्यंत प्रदूषित, जहरीले पानी और रासायनिक कचरे के निस्तारण में हो रही घोर लापरवाही के परिणाम स्वरूप यही प्रदूषित सामग्री नदी, नालों के माध्यम से सरोवरों में जाता है। यही प्रदूषित सामग्री उसमें विद्यमान जल को ही नही, वरन् धरती की ऊपरी सतह तथा भूगर्भ स्थित जल को जहरीला बना रहा है। इसके दुष्प्रभाव से न केवल मानव-समुदाय वरन् समस्तजीव जन्तु तथा खेतों में उत्पन्न होने वाली खाद्य सामग्री प्रभावित हुये बिना कैसे रह सकती है? इस सारी प्रक्रिया को गंभीरता से संज्ञान में लिया जाना चाहिये।

हमारी कार्यशीलता को भी खुली चुनौती?-

भारत में लुप्त होते जा रहे जलस्त्रोतों की श्रंृखला में बैंगलूर शहर स्थित बैल्लानदुर झील का मामला बड़ा रोचक है। इस झील में अचानक धुँआ निकलने लगा। विशेषज्ञों का कहना था कि झील में लम्बे समय से एकत्रित, मौजूदा कचरे और प्रदूषण की वजह से ऐसा हुआ। इसी तरह शहर की एक अन्य झील वार्थूर में निकलते  झाग ने लोगों को चिन्ता में डाल दिया। विगत वर्षों उलूभर झील में एक ही दिन में हजारों मछलियाँ मरी पायी गयी। इन सबकी मुख्य वजह भयानक प्रदूषण होना पाया गया। सन् 2015 में भी इसी शहर की एक झील येमलूर में भी ऐसा ही गहरा धुँआ निकलते और छुटपुट आग लगने जैसी घटनायें देखीं गयीं थी।

आई.टी.आई. से प्राप्त सूचनाओं के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि उत्तरप्रदेश में गत 60-70 वर्षों के दौरान 45 हजार तालाबों- झीलों पर अवैध कब्जा कर लोगों ने उनके अस्तित्व को मिटाने की कोशिशें की हैं। इसी उत्तरप्रदेश में ही एक लाख ग्यारह हजार नौ सौ अड़सठ तालाबों पर अतिक्रमण कर तरह-तरह के निर्माण कर लिये हैं।

झीलें- भारत में 2700 प्राकृतिक और 65000 मानव निर्मित छोटी-बड़ी झीलें हैं, लेकिन अब इनमें से ज्यादातर शहरीकरण के कारण प्रदूषण और कचरे की मार झेल रहीं हैं। इनका अस्तित्व ही खतरे में आ चुका है। शहरों की बढ़ती आबादी के कारण आवासीय समस्या के लिये, तालाबों और वावड़ियों के लिये अस्तित्व को भी खतरा उत्पन्न होता जा रहा है। लेकिन आने वाले समय में दिनों- दिन गहराता पानी का संकट तो विकट समस्या के रूप में उपस्थित होगा ही।

Most Beautiful Lakes in India: mesmerizing photos of most famous and  beautiful lakes in india | Navbharat Times Photogallery

महाराष्ट्र सहित देश के अन्यान्य हिस्सों में हो रही पानी की कमी का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। गत अनेक वर्षों से भारी मात्रा में जलाशयों की पानी किसानों और आम आदमी को पेयजल और सिंचाई के लिये दिये जाने के बजाय बूचड़खानों और बड़ी-बड़ी व्यवसायिक कोल्ड-ड्रिंक कम्पनियों को भी दिया जा रहा है। ऐसे आयोजनों के लिये भी पानी दिया जाता है, जहां पर उसका भारी मात्रा में दुरूपयोग होता है।

जल संचय और नियंत्रित उपयोग के सुझाव- सामयिक परिस्थितियों और आने वाले समय में उत्पन्न होने वाली विकट परिस्थितियों से जूझने के लिये अभी कुछ उपाय-प्रयास प्रारम्भ किये जा सकते हैं-पानी की कमी की आशंका से निजात पाने के प्रयासों के अंतर्गत जल-मौसम विशेषज्ञों एवं चिन्तकों का मानना है कि उस समस्या से जूझने के लिये आज से ही कतिपय कदम उठाना शुरू कर दिया जाना चाहिये। कुछ सुझाव इस प्रकार हैं:-

(1) अपने घरों में छोटे- छोटे समझे जाने वाले कार्योें पर ध्यान केन्द्रित करते हुये पानी की बचत प्रारम्भ करें-व्यर्थ न बहने दिया जाये। जैसे ब्रश करते समय सीधे नल की टोंटी से पानी लेने की बजाय एक छोटे बर्तन का उपयोग करें, दाड़ी बनाते (सेव करते) समय सीधे नल का इस्तेमाल न करते हुये एक डिब्बे या मग में पानी को लेकर उपयोग करें। स्नान करते समय भी पानी की बचत की ओर ध्यान दे सकते हैं। कपड़े धोते समय, शौचालय का फ्लश का उपयोग करते पानी की बचत करने की बात सोची जा सकती है। इस प्रकार घरेलू कार्यों से भी लगभग तीन सौ लीटर से अधिक पानी को बचाया जा सकता है।

(2) खेतों में खाद्य एवं सब्जी उत्पादन के दौरान पानी के उपयोग को नियंत्रित किया जा सकता है। खेती के कामों में लगभग 85 प्रतिशत भू-जल का उपयोग होता है। ड्रिप एवं स्पिंकलर आदि तकनीक का प्रभावी उपयोग भी पानी को बचा सकता है।

(3) भूजल के अत्यधिक दोहन को भी हतोत्साहित कर, पारस्परिक सहमति से भूजल के तेजी से गिरते स्तर को रोका जा सकता है।

(4) विभिन्न शासकीय- प्रशासकीय स्तर पर पाईप-लाईनों की टूट-फूट, उसमें पानी के रिसाव आदि को अनदेखा न करते हुये संबंधित विभाग का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है।

(5) लोगों में पानी के कारण संभावित परेशानियों से अवगत कराने तथा व्यक्तिगत स्तर पर पानी की बचत के लिये एक जन-जागरूकता आंदोलन भी चलाया जा सकता है।

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा