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“भारत भूमि मेरा शरीर है,कन्याकुमारी मेरे पैर हैं और हिमालय मेरा सिर है – स्वामी रामतीर्थ”

(आज जयंती पर सादर समर्पित है)

स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिये उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं – हमें धर्म और दर्शनशास्त्र भौतिकविज्ञान की भाँति पढ़ना चाहिये। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित हैं, उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के आधार में सत् चित् और आनन्द रूप से विद्यमान है। वहीं वास्तविक आत्मा है।उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का खेल है। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से उदर में अन्न पचता है। उनमें कोई अन्तर नहीं। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में है। जो जंगम में है, वही स्थावर में है। सबका आधार है हमारी आत्मा।वे विकासवाद के समर्थक थे। मनुष्य भिन्न-भिन्न श्रेणियों है। कोई अपने परिवार के, कोई जाति के, कोई समाज के और कोई धर्म के घेरे से घिरा हुआ है। उसे घेरे के भीतर की वस्तु अनुकूल और घेरे से बाहर की प्रतिकूल लगती है। यही संकीर्णता अनर्थों की जड़ है। प्रकृति में कोई वस्तु स्थिर नहीं। अपनी सहानुभति के घेरे भी फैलना चाहिये। सच्चा मनुष्य वह है, जो देशमय होने के साथ-साथ विश्वमय हो जाता है।

वे आनन्द को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं पर जन्म से मरण पर्यंन्त हम अपने आनन्द-केन्द्रों को बदलते रहते हैं। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते हैं और कभी किसी व्यक्ति में। आनन्द का स्रोत हमारी आत्मा है। हम उसके लिए प्राणों का भी उत्सर्ग देते हैं।

जब से भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया हम पतनोन्मुख हुए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है, उसे देशकालानुसार बदलना चाहिये। श्रम-विभाजन के आधार पर वर्ण-व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी, पर आज हमने उसके नियमों को अटल बना कर समाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। आज देश के सामने एक ही धर्म है- राष्ट्रधर्म। अब शारीरिक सेवा और श्रम केवल शूद्रों का कर्तव्य नहीं माना जा सकता। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिये। भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी उन्होंने की थी- “चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। उन्हों ने अपने एक पत्र में लाला हरदयाल को लिखा था -” हिन्दी में प्रचार कार्य प्रारम्भ करो। वही स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी।” केवल तीन शब्दों में उनका सन्देश निहित है – त्याग और प्रेम। स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिये उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं – हमें धर्म और दर्शनशास्त्र भौतिकविज्ञान की भाँति पढ़ना चाहिये। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित हैं, उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के आधार में सत् चित् और आनन्द रूप से विद्यमान है। वहीं वास्तविक आत्मा है।

उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का खेल है। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से उदर में अन्न पचता है। उनमें कोई अन्तर नहीं। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में है। जो जंगम में है, वही स्थावर में है। सबका आधार है हमारी आत्मा।

वे विकासवाद के समर्थक थे। मनुष्य भिन्न-भिन्न श्रेणियों है। कोई अपने परिवार के, कोई जाति के, कोई समाज के और कोई धर्म के घेरे से घिरा हुआ है। उसे घेरे के भीतर की वस्तु अनुकूल और घेरे से बाहर की प्रतिकूल लगती है। यही संकीर्णता अनर्थों की जड़ है। प्रकृति में कोई वस्तु स्थिर नहीं। अपनी सहानुभति के घेरे भी फैलना चाहिये। सच्चा मनुष्य वह है, जो देशमय होने के साथ-साथ विश्वमय हो जाता है।

वे आनन्द को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं पर जन्म से मरण पर्यंन्त हम अपने आनन्द-केन्द्रों को बदलते रहते हैं। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते हैं और कभी किसी व्यक्ति में। आनन्द का स्रोत हमारी आत्मा है। हम उसके लिए प्राणों का भी उत्सर्ग देते हैं।जब से भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया हम पतनोन्मुख हुए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है, उसे देशकालानुसार बदलना चाहिये। श्रम-विभाजन के आधार पर वर्ण-व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी, पर आज हमने उसके नियमों को अटल बना कर समाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। आज देश के सामने एक ही धर्म है- राष्ट्रधर्म। अब शारीरिक सेवा और श्रम केवल शूद्रों का कर्तव्य नहीं माना जा सकता। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिये।

भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी उन्होंने की थी- “चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। उन्हों ने अपने एक पत्र में लाला हरदयाल को लिखा था – “हिन्दी में प्रचार कार्य प्रारम्भ करो। वही स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी।” केवल तीन शब्दों में उनका सन्देश निहित है – त्याग और प्रेम

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपनी पुस्तक मन की लहर में युवा सन्यासी शीर्षक से एक बड़ी ही मार्मिक कविता लिखी थी जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:
“वृद्ध पिता-माता की ममता, बिन ब्याही कन्या का भार; शिक्षाहीन सुतोंकी ममता, पतिव्रता पत्नी का प्यार.
सन्मित्रों की प्रीति और, कालेज वालों का निर्मल प्रेम;त्याग सभी अनुराग किया, उसने विराग में योगक्षेम.
प्राणनाथ बालक-सुत-दुहिता, यूँ कहती प्यारी छोड़ी;हाय! वत्स वृद्धा के धन, यूँ रोती महतारी छोड़ी.
चिर-सहचरी रियाजी छोड़ी, रम्यतटी रावी छोड़ी.शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी.”

युवा-सन्यासी (स्वामी रामतीर्थ के सन्यासोपलक्ष्य में रचित)

प्रेषक – डॉ आनंद सिंह राणा
संपर्क सूत्र – 7987102901