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मुद्दाविहीन विपक्ष : जातीयता और सांप्रदायिकता के सहारे

– वीरेंद्र सिंह परिहार

कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष मलिकार्जुन खरगे ने गत दिनों प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखकर कहा कि जातिगत जनगणना के अभाव में सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों में डाटा अधूरा है. खरगे ने अपनी औपचारिक चिट्ठी में यह भी लिखा, कि 2021 में नियमित 10 वर्षीय जनगणना की जानी थी लेकिन यह नहीं हो पाई है. कि इसे तत्काल किया जाए और व्यापक जाति जनगणना को का अभिन्न अंग बनाया जाए, क्योंकि जातीय जनगणना के अभाव में समाजिक न्याय के कार्यक्रमों के लिए डेटा अधूरा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिन्होंने बिहार में जाति जनगणना शुरू करा दी है तत्काल इस मांग का समर्थन किया. दूसरी तरफइसके पहले कर्नाटक की एक सभा में बोलते हुए राहुल गांधी ने मोदी सरकार से कहा कि वह 2011 में किए गए जनगणना में जातिगत डेटा को सार्वजनिक करें. लोगों को बताएं कि देश में कितने ओबीसी, दलित और आदिवासी हैं. यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो यह ओबीसी का अपमान है. बात सिर्फ इतने पर समाप्त नहीं हुई, राहुल गांधी ने यह भी कहा कि आरक्षण पर से 50% की सीमा हटा देनी चाहिए.

दूसरी तरफ भाजपा ने इस तरह की मांग पर सधी प्रतिक्रिया व्यक्त की. बीजेपी नेता और एससी-एसटी कमीशन के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष विजय सोनकर शास्त्री ने कहा – अगर सरकार के गजट के हिसाब से देखा जाए, तो देश में करीब 65 सौ जातियां हैं और 50,000 से ज्यादा उपजातियां हैं. हम किस आधार पर किस जाति और उपजाति के लिए स्पेशल पैकेज तैयार करेंगे? यह संभव ही नहीं है. कुल मिलाकर शास्त्री ने इसे कांग्रेश पार्टी और दूसरे विरोधी दलों का 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए इसे मात्र चुनावी मुद्दा बताया.गौर करने की बात यह भी है की वर्ष 2011 की जनगणना जब हुई थी तब यूपीए का राज था. मोदी सरकार तो वर्ष 2014 में आई. ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह कि यूपीए सरकार ने 3 सालों तक जातिगत जनगणना के डेटा को क्यों दबाए रखा? क्या यह सच्चाई नहीं कि देश की आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी सदैव जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज की बात करती रही. पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक कांग्रेस पार्टी सदैव जातिगत जनगणना का विरोध करती रही. वर्ष 1951 में जब जाति जनगणना की बात उठी तो पंडित नेहरू ने इसका सख्त विरोध किया था. य इंदिरा गांधी ने वर्षों तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट को दबाए रखा. यहां तक कि वर्ष 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया था तब तत्कालीन विपक्ष के नेता राजीव गांधी ने इस कदम को विभाजन कारी एवं समाज को बांटने वाला बताया था.

लोगों की याददाश्त में अच्छी तरह होगा कि एक जमाने में बसपा का नारा होता था- “जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी भागीदारी.” आश्चर्यजनक बात यह की बसपा में अब ऐसे नारे बहुत कम सुनाई देते हैं, लेकिन उसका अनुकरण कांग्रेस पार्टी और नीतीश कुमार जैसे अपने को समाजवादी कहने वाले नेता कर रहे हैं. राहुल गांधी जब कहते हैं कि 50% कि आरक्षण की सीमा रेखा टूटनी चाहिए, तो उनकी जातिगत जनगणना की मांग को समझा जा सकता है . सभी को विदित होगा कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय यह कह चुका है – कि आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, जिससे सामाजिक न्याय और प्रतिभा का समुचित समन्वय हो सके. लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते भाजपा को छोड़कर और दूसरे दल सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को सतत रूप से असफल करने की कोशिश करते रहे हैं. इसी का नतीजा है कि तमिलनाडु जैसे राज्यों में आरक्षण की सीमा 70% से ऊपर तक जा चुकी है. बीच-बीच में दूसरे राज्यों में भी ऐसे प्रयास होते रहते हैं, लेकिन न्यायपालिका के चलते ऐसे राजनीतिक दलों के मंसूबे पूरे नहीं हो रहे हैं.

यह तथ्य भी महत्वपूर्ण हैं, किस देश में जातीयता के साथ सांप्रदायिकता भी सत्ता पाने का एक बड़ा कारक रहा है. इस मामले में चाहे कांग्रेस पार्टी रही हो या अन्य विपक्षी पार्टीआ मुस्लिम वोट बैंक के लिए वह सतत तुष्टीकरण करती रही हैं. इसीलिए मुस्लिमों को राष्ट्र की मुख्यधारा से नहीं जुड़ने दिया गया और उन्हें तंगदिल और कट्टर बनाया गया. हिंदुओं के लिए जहां पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा आदि सामाजिक बुराइयां थी, वही मुसलमानों के लिए पर्दा प्रथा, तीन तलाक, हलाला, बहुविवाह उनके निजी मामले थे. हद तो यह हुई कि इस मामले में अलगाववाद और आतंकवाद तक से समझौता किया गया. तभी तो माफिया अतीक अहमद और उसके भाई की हत्या को संविधान और लोकतंत्र की हत्या बताया जाता है. बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव जैसे लोग अतीक को अतीक जी कहते हैं, ठीक उसी तर्ज पर जब ओसामा बिन लादेन को अमेरिका द्वारा मार दिए जाने पर दिग्विजय सिंह ने ऐसे कुख्यात आतंकी को लादेन जी कहा था. तुष्टीकरण का परिणाम है कि आज भी हिंदुओं के त्योहारों पर आयोजित शोभा यात्राओं पर देश के कई हिस्सों में पत्थरबाजी होती है, आगजनी होती है और बम चलाए जाते हैं, लेकिन इस देश के विपक्षी नेताओं के जुबान से ऐसी घटनाओं पर निंदा के एक शब्द भी नहीं निकलते.

तल्ख़ और बड़ी सच्चाई है कि अकेले नरेंद्र मोदी आज भी देश के विपक्षी नेताओं पर भारी हैं. कई जनमत सर्वे यह बताते हैं कि वर्ष 2024 के आम चुनाव में भी भाजपा और नरेंद्र मोदी एकतरफा जीत दर्ज करेंगे. ईडी और सीबीआई के चलते विपक्ष भले एकजुट हो जाए, लेकिन जैसा कि देश की बड़ी संख्या का मानना है- आएगा तो मोदी ही! ऐसी स्थिति में जब राहुल गांधी, और पूरी कांग्रेस पार्टी और दूसरे विपक्षी दल सभी दांवपेच अजमा कर देख चुके हैं. चाहे राफेल मामला रहा हो चाहे बैंकों को लूट कर विदेश भागने वालों का मामला रहा हो, वर्तमान में अदानी मामले को लेकर विपक्षी जैसा प्रलाप कर रहे है – किसी भी मामले में मोदी की छवि कहीं भी तनिक प्रभावित नहीं हुई. ऐसी स्थिति में कांग्रेस पार्टी समेत मुद्दा विहीन दूसरे विपक्षी दलों को लगता है, की जाति और संप्रदाय के सहारे शायद मोदी को घेरा जा सकता है. हो सकता है इससे देश में एक नई उथल पुथल मच जाए, और सत्ता तक जाने का रास्ता निकल सके. लेकिन बड़ा सच यह है की एक और तो व्यापक स्तर पर हिंदुत्व का जागरण और दूसरे मोदी सरकार की जनकल्याणकारी तथा देश को मजबूत करने वाली नीतियों के चलते देश का मतदाता सच्चाई को बखूबी समझ चुका है. इसलिए सत्ता के सौदागरों का समाज और देश को बांटने वाला अभियान सफल हो सकेगा- संभव दिखता है नहीं !