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भारतीय परिवार अवधारणा के विरुद्ध षड्यंत्र : समलैंगिक विवाह

-सनी राजपूत

विदेशों में चलने वाले उनके स्थानीय मापदंडो को भारत के संदर्भ में जबर्दस्ती लागू करवाने के कुंठित प्रयास लगातार हो रहे हैं। ऐसा ही एक अवैध प्रयास समलैंगिक विवाह के रूप मे सामने आता दिख रहा हैं। इसमे आश्चर्य की बात यह है कि भारत में एक ऐसा वर्ग है जो एसे सभी कुंठित प्रयासो को अमल मे लाने के लिए तैयार बैठा रहता हैं।

भारतीय समाज की अंतिम इकाई परिवार को माना गया है। परिवार विहीन समाज की परिकल्पना भारतीय अवधारणा के विरुद्ध है। भारतीय संस्कृति और मान्यताओं के आधार पर परिवार में पति-पत्नी और उनकी संतानों को स्थान दिया गया है।

यह परिवार की मूल इकाई है। उसके उपरांत परिवार के अन्य सदस्यों को भी परिवार का वृहद स्वरूप कहा गया है। परिवार में पति के रूप में पुरुष एवं पत्नी के रूप में स्त्री को मान्यता प्रदान की गयी है। इसी आधार पर भारतीय संविधान के अनुसार बने विशेष विवाह अधिनियम 1954 में भी पुरुष एवं स्त्री के आपस में विवाह की बात की गयी है।

इसमें भी जैविक रूप से स्त्री – पुरुष को विवाह की सहमति दी गयी है। भारतीय संविधान के अनुसार भी परिवार की कल्पना उसी प्रकार से की गयी है। जिस प्रकार से भारतीय शास्त्रों और संस्कृति-परम्परा में बताया गया है।

किंतु विदेशों में चलने वाले उनके स्थानीय मापदंडो को भारत के संदर्भ में ज़बरदस्ती लागू करवाने के कुंठित प्रयास लगातार हो रहे हैं। ऐसा ही एक अवैध प्रयास समलैंगिक विवाह के रूप मे सामने आता दिख रहा है। इसमें आश्चर्य की बात यह है कि भारत में एक ऐसा वर्ग है जो एसे सभी कुंठित प्रयासो को अमल मे लाने के लिए तैयार बैठा रहता है।

एक ओर जहाँ भारतीय समाज में विवाह के लिए गोत्र परंपरा का भी निर्वहन होता है, जिसमें वर-वधू पक्ष के सात पीढ़ियों के गोत्र तक का मिलान करने के बाद एक पुरुष और स्त्री के विवाह की सहमति बनती है।

जहां भारत में विवाह एक संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया हैं। ऐसे भारतीय समाज में विदेशों के प्रभाव में आकर समलैंगिक विवाह को थोपने का अवैध प्रयास करना एक प्रकार की कुंठा को व्यक्त करने का तरीका लगता है।

भारतीय समाज के भीतर परिवार संस्था ना केवल समाज को एक सूत्र में बांधने का काम करती है, बल्कि भारत की मूल संस्कृति, रीति-रिवाज और परम्पराओँ को भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने का काम करती है।

परिवार संस्था के कारण ही भारत वर्तमान में भी अपने उसी मूल स्वरूप मे विद्यमान है, जैसा कि कई हजारो वर्षों पहले भी था। परिवार संस्था, भारतीय समाज की शक्ति और संगठन का स्त्रोत है।

भारतीय संस्कृति और परंपरा में ऐसे अनेक काम हैं, जिन्हें केवल परिवार में महिलाओँ के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। भारतीय परिवार में महिला केवल चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं होती है।

परिवार में होने वाले वैदिक और धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा पद्धति में महिलाओँ की प्रमुख भूमिका होती है। भारतीय परिवार में सदस्यो के कर्तव्यो का वर्गीकरण बेहतर प्रकार से किया गया है।

जिस प्रकार अन्य मजहबों और रिलिजनों में विवाह एक समझौता है या फिर विवाह केवल भोग का एक साधन है, उसके विपरीत भारत में विवाह के अनेक आयाम हैं।

इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि भारतीय विवाह परंपरा में विवाह के बाद विच्छेद का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। तलाक और डिवोर्स, दोनों ही शब्द गैर भारतीय हैं।

भारतीय समाज पर न्यायालय के माध्यम से पीछे के दरवाजे से समलैंगिक विवाह जैसे विदेशी प्रभाव से ग्रसित चलन को भारत में कानूनी मान्यता का सभी को विरोध करने की आवश्यकता है।

समलैंगिक विवाह के द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त परिवार व्यवस्था को समाप्त करने षड्यंत्र को असफल करना आवश्यक है। जिसके विरुद्ध समाज के सभी वर्गो को आवाज उठाने के लिए आगे आने की जरूरत है।

लेखक अधिवक्ता एवं कर सलाहकार है.