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राजमाता अहिल्याबाई होल्कर…

भारत देश के पावन माटी संत मनीषियों के साथ-साथ समाज सुधारकों की कर्मभूमि भी रही है। इसी पावन भूमि पर परम शिवभक्त अहिल्या बाई का जन्म 31 मई 1725 में वर्तमान अहमदनगर के एक ग्राम चाँवड़ी में मणको जी शिंदे के घर पर हुआ।आपके पिता एक साधारण व्यक्ति थे किंतु इन्होंने अपने घर पर ही अहिल्याबाई की शिक्षा दीक्षा का प्रबंध किया और अहिल्या बाई के जीवन को बचपन से संस्कार गढ़ना प्रारंभ कर दिया।

एक दिन की बात है जब पेशवा महाराज अपने सूबेदार मल्हारराव होलकर के साथ पूणे जा रहे थे तब उन्होंने चाँवडी गाँव में अपना पड़ाव डाला। उन्होंंने देखा एक शिव मंदिर में मात्र सात- आठ वर्ष की कन्या शिव जी का पूजन करके भूखों और गरीबों को भोजन करा रही है। जिस आयु में बच्चे खेलते कूदते उस आयु में समाज के गरीब और आश्रित लोगों के प्रति करुणा और सेवा भाव को देखकर महाराज पेशवा और मल्हार राव होलकर का प्रभावित होना स्वाभाविक था।

पेशवा महाराज ने मल्हार राव से उनके बेटे खांडेराव होलकर का विवाह अहिल्या से कराने का प्रस्ताव रखा, जिसे मल्हारराव ने स्वीकार कर लिया।एक साधारण परिवार में पली-बढ़ी अहिल्याबाई शिंदे मात्र 8 वर्ष की आयु में 20 मई 1733 को मल्हार राव के पुत्र खंडेराव होल्कर की जीवन संगिनी बनी और राजवंशी परिवार इंदौर की कुलवधू।

अहिल्याबाई की कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण भाव को देखकर उनके ससुर, इंदौर राज्य के संस्थापक, पेशवा महाराज के सूबेदार “मल्हार राव होल्कर” ने अपने पुत्र के साथ-साथ अहिल्याबाई को भी राजकार्य , युद्ध कौशल, और अर्थ प्रबंधन की शिक्षा देकर पारंगत कर दिया। यहाँ तक कि अहिल्याबाई अपने ससुर जी के साथ उनके बहुत से प्रशासनिक दायित्व का दक्षता से निर्वहन भी करने लगी।

1554 में कुंभार के युद्ध में खंडेराव को वीरगति प्राप्त हुई । मात्र 29 वर्ष की आयु में अहिल्याबाई के जीवन में समय का वज्रघात हुआ । उस समय की रूढ़िवादी परंपरा अनुसार अहिल्याबाई सती होने जा रही थी किंतु पिता तुल्य ससुर ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और राष्ट्र कार्य के लिए उन्हें प्रेरित किया।

अहिल्या बाई का जीवन धीरे-धीरे सामान्य हो रहा था कि सन् 1766 में उनके ससुर स्वर्गवासी हो गए अब तो स्थितियाँ और भी विपरीत हो गई थी। एक ओर अकेली अहिल्याबाई तो दूसरी ओर राजनीति और सत्ता सुख के लिए लालायित मानव समाज की पुरुष सत्तात्मक सोच। उन्हें एक स्त्री की अधीनता स्वीकार नहीं थी। संकट की इस घड़ी में अहिल्याबाई ने महाराज पेशवा को पत्र लिखकर इंदौर की शासन व्यवस्था अपने हाथ में लेने की माँग की जो स्वीकार हुई।विपरीत परिस्थितियों में अपने ज्ञान, सूझबूझ और प्रशासनिक दक्षता से अहिल्याबाई में इंदौर जैसे छोटे से राज्य को विकसित कर उसका स्वरूप ही बदल दिया।

अहिल्याबाई रानी से लोकमाता बन गई ।आपने अपने राज्य के साथ साथ पूरे भारतवर्ष में धर्म पताका लहराई ।युद्ध के क्षेत्र में हाथी पर बैठकर जब युद्ध करते तो शत्रुओं को अपना काल भी दिखलाई देता और जब सिंहासन पर बैठकर उदारमना , प्रजावत्सल माँ की तरह अपनी प्रजा की समस्याएँ सुनकर उनका समाधान करती।रानी अहिल्याबाई ने अपने शत्रुओं से बल, बुद्धि और चातुर्य से युद्ध लड़कर अपनी प्रजा के कल्याण के लिए कार्य किये।

आप के शासन में एक ओर कृषक आत्मनिर्भर थे वही उद्योग-धंधे ,व्यापार-व्यापार फल फूल रहे थे।साहित्य, संस्कृति और कला के विकास के लिए उन्होंने राज्य में विशेष अभियान चलाए ।वहीं धर्म की रक्षा और समाज कल्याण के लिए परिक्रमा वासी, राहगीरों और यात्रियों की सुविधा हेतु धर्मशालाएँ (सराय) बनाई ,सदाव्रत खोले गए, जगह-जगह प्याऊ रखें गये,कुँए, बावड़ियों का निर्माण कराया गया।

एक और मुगलों द्वारा हिन्दू आस्था के केंद्र मंदिरों को भग्न किया जाता वहीं दूसरी ओर रानी अहिल्याबाई उनका पुनरुद्धार कराती। कश्मीर के शिव मंदिर , काशी में अन्नपूर्णा मंदिर, अयोध्या में राम मंदिर, हरिद्वार में शिव मंदिर , द्वारिका और बद्रीनाथ में भगवान विष्णु जी का मंदिर, गया में भगवान विष्णु का मंदिर इसके साथ साथ ऐसे भारतके अनगिनत मंदिर हैं जिनका पुनरुद्धार लोकमाता अहिल्या देवी के द्वारा कराया गया।

काशी-कांची से लेकर संपूर्ण भारतवर्ष में हिंदू मंदिरों के उत्थान हेतु आपका योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।अपके इन्हीं कार्यों से आप देवी अहिल्याबाई के रूप में वंदनीय हो गई। आपने देश के विभिन्न राज्यों के राजाओं से श्रेष्ठ डाक व्यवस्था हेतु विचार किया और आपके इस प्रयास को सभी ने स्वीकारा और अपने अपने शासनकाल में एक श्रेष्ठ डाक व्यवस्था प्रारंभ की जिसमें कोई पत्र कम समय में अपने गंतव्य तक पहुँच जाता था, इस कार्य के लिए उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुशल घुड़सवारों को नियुक्त किया था,जिन की सीमाएं निर्धारित थी, इससे कम समय में बिना थके एक पत्र एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जाता था।

आपके द्वारा काशी से कलकत्ता तक सुंदर सड़क मार्ग का निर्माण कराया गया। प्रकृति के संरक्षण हेतु जगह-जगह वृक्ष लगाए गए, यात्रियों की सुविधा हेतु सड़क के दोनों ओर फलदार पेड़ लगाए, प्याऊ रखाए गये।

जल संवर्धन, पर्यावरण संरक्षण, धार्मिक स्थलों के विकास, राज्य की आन्तरिक प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था ,पड़ोसी राज्यों से मैत्रीपूर्ण संबंध ,राज्य की बाह्य सुरक्षा यह सभी कार्य रानी अहिल्याबाई के द्वारा सहजता से पूर्ण किये गये। अहिल्याबाई के कार्यों से न केवल महेश्वर का सर्वोमुखी विकास हुआ अपितु संपूर्ण भारतवर्ष ने भी उनके कार्यों की सराहना की।

आप एक अत्यंत संवेदनशील और दूरदर्शी प्रशासक रही। आपने पेशवा महाराज को पत्र लिखाकर अंग्रेजों की कुटिल व्यापार नीति के प्रति सचेत किया और कहा की अंग्रेजों की कुटिल व्यापार नीति भालू के समान है। इनके चेहरे पर प्रहार करके इन्हें परास्त किया जा सकता है जो कठिन कार्य है। अतः देश में इनसे व्यापार व्यवहार प्रतिबंधित हो।

13 अगस्त 1795 को 70वर्ष की आयु में तपस्वनी अहिल्या बाई अपने आराध्य भगवान शिव के चरणों में सदा के लिए पूर्णरुप से समर्पित हो गई। लोकमाता देवी अहिल्या बाई का संपूर्ण जीवन चरित्र भारत की संस्कृति का प्रमाण है। एक साहसी योद्धा, प्रभावशाली शासक, कुशल एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के साथ-साथ धर्म परायण, समाज सुधारक, उदारमना के रूप में भारत सदैव आपको अपनी स्मृतियों में चिरकाल तक जीवित रखेगा।