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वामपंथी संघ को बदनाम करने के लिए झूठी कहानियां गढ़ते हैं, भागः1

कम्युनिस्ट विचारधारा जीवन के भारतीय दृष्टिकोण के प्रति बिल्कुल उदासीन है, क्योंकि भारतीय दृष्टिकोण आध्यात्मिकता पर आधारित है, और वामपंथियों के लिए, आध्यात्मिकता एक ‘झूठी चेतना’ के अलावा कुछ नहीं है.

कट्टर वामपंथियों जो स्वघोषित उदारवादी-बुद्धिजीवी और पत्रकार हैं, सत्य की पूरी तरह से अवहेलना करते हैं. यही उनके काम करने का तरीका है. अपने एजेंडा को आगे बढाने के लिए वे पहले निष्कर्ष निकालते हैं और फिर परिकल्पना करते हैं. झूठ के जाल बुनकर उन्होंने धोखे की कला में महारत हासिल कर ली है. हालांकि इस तरह की कल्पनाएं कुछ समय के लिए लोगों को रोमांचित करती हैं, लेकिन यह समय की कसौटी पर हर बार असफल होती रही हैं. इस तरह के कुप्रयासों का सबसे ताजा उदाहरण एक वामपंथी अंग्रेजी भाषा की पत्रिका में देखा जा सकता है. इस पत्रिका ने एक फिक्शन लिखकर संघ द्वारा किये जा रहे सेवा कार्यों के प्रति दुष्प्रचार का प्रयास किया है.

जब भारत में कोरोना वायरस की महामारी ने अपने कदम रखे, जब पूरा देश इस अप्रत्याशित खतरे से डरा हुआ था. उस स्थिति में समाज का एक बड़ा हिस्सा स्वप्रेरणा से इमरजेंसी सेवाओं में सहयोग देने के लिए आगे आया. समाज के लोग अपने प्राणों की चिंता किये बिना, सरकार से कुछ पाने की अपेक्षा किये बिना सरकारी और अर्धसरकारी संस्थाओं की मदद के लिए आगे आये. कोरोना जैसी महामारी में हर कदम पर आपको जान का खतरा होता है, यहाँ किये जाने वाले रहत कार्य बाढ़ या भूकंप जैसे प्राकृतिक आपदाओं में किये जाने वाले रहत कार्य से बिलकुल अलग है.

अरुणाचल प्रदेश से कश्मीर और कन्याकुमारी तक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 480,000 स्वयंसेवक पूरे देश में 85,701 स्थानों पर पहुंचे और 11,055,000 परिवारों तक “सेवा भारती राशन किट” पहुंचाए. जिन लोगों को भोजन की आवश्यकता थी उनके लिए 71,146,000 खाने के पैकेट वितरित किए गए. 5,000,000 से अधिक मास्क वितरित किए गए हैं. बड़ी संख्या में छात्रों सहित शहरों में रहने वाले लगभग 1,300,000 प्रवासियों को विभिन्न तरीकों से मदद मिली. 40,000 यूनिट रक्त दान किया गया. अपने घर वापस आने वाले 2,365,000 प्रवासी श्रमिकों को उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थापित 1,341 केंद्रों के माध्यम से भोजन और दवाएं और अन्य आपातकालीन चिकित्सा सहायता प्रदान की गई थी. खानाबदोश जनजातियों के सदस्यों, किन्नर समाज, देह व्यापार में शामिल लोगों तक सहायता पहुंचाई गयी. इसके साथ हीं मंदिर में आने वाले भक्तों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर निर्भर जानवरों जैसे की गाय और बंदरों के लिए भी भोजन की व्यवस्था की गयी.

स्वयंसेवक कोरोना के हॉटस्पॉट बने क्षेत्रों में भी लोगों की मदद के लिए आगे आये. बिना किसी भेदभाव के, देश के हर राज्य के जरूरतमंदों को निष्पक्ष मदद दी गई. भीड़-प्रबंधन, आने जाने वालों लोगों का प्रबंधन, श्रमिकों का पंजीकरण और ऐसे अनेक कार्यों में स्वयंसेवकों ने स्थानीय प्रशासन के कंधे से कन्धा मिलाकर कार्य किया. पुणे शहर में प्रशासन के आह्वान पर, आरएसएस के स्वयंसेवक, अन्य सामाजिक संगठनों के स्वयंसेवकों ने घनी आबादी और जोखिम भरे रेड जोन इलाकों के अंदर कदम रखा और 100,000 से अधिक लोगों की जांच की और आगे की जांच के लिए संदिग्ध कोरोना संक्रमित लोगों की पहचान की.

असंख्य संघ स्वयंसेवकों के इन निस्वार्थ प्रयासों के बावजूद उपरोक्त पत्रिका ने इन तथ्यों का एक भी बार उल्लेख नहीं किया है. क्योंकि संघ कार्य को एक सकारात्मक तरीके से प्रकाश में लाना उनके “एजेंडा” का हिस्सा नहीं है. वास्तव में, राहत कार्य की रिपोर्ट में संघ के बारे में आरोपों और एक ही पुराने झूठ को बार बार दोहराया जाता है, और उस कल्पित कहानी को पुष्ट करने के प्रयास किये जाते हैं जिसे यह वामपंथियों को पुरातन काल से स्थापित करना चाहते हैं. पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों की अनदेखी करते हुए,  इन पत्रकारों ने संघ पर लगे आरोपों की पुष्टि और चर्चा के लिए आरएसएस के किसी वरिष्ठ पदाधिकारी से संपर्क करना भी उचित नहीं समझा. मैं सोचता हूँ उनकी अंतरात्मा कैसे उन्हें इस तरह की खोखली कहानियों का समर्थन करने और उन्हें बढ़ावा देने की अनुमति दे सकती है? ओह! यह तो मैं भूल ही गया कि वामपंथी विवेक और “धर्म” (नैतिकता) जैसी अवधारणाओं में विश्वास नहीं करते हैं?!

इस पत्रकार द्वारा एक और भ्रामक दावा यह है कि आरएसएस ने सरकारी फंड का इस्तेमाल इन सेवा गतिविधियों में मदद करने के लिए किया. चलिए थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि यह अनुमान सही है.  सरकार पंजीकृत गैर-लाभकारी संगठनों के माध्यम से समाज के लिए धन का उपयोग करती है. तो इसमें क्या गलत है?  वास्तव में, शुरुआत से ही  संघ के स्वयंसेवक समाज से एकत्र धन के माध्यम से ही इन विशाल सेवा कार्यों को करते हैं. इन सेवा कार्यों का निष्पादन विभिन्न पंजीकृत गैर-लाभकारी संस्थाओं द्वारा किया जाता है, जिनके खातों का समय-समय पर ऑडिट किया जाता है. केदारनाथ बाढ़ के दौरान, आम जनता से एकत्रित धन का उपयोग करके बड़े पैमाने पर राहत के प्रयास किए गए थे. उस समय, हमारे पास एम. डी. रामटेके नाम के एक सज्जन का पत्र आया.

इसमें लिखा है: “मैं एक अंबेडकरवादी और आरएसएस का कट्टर विरोधी हूं. यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि डॉ. अम्बेडकर भगवान बुद्ध के आधुनिक-पुनर्जन्म थे. लेकिन संघ के सेवा कार्यों को सामने से देखकर मैं अभिभूत हूँ. मैंने यह देखा कि यदि आपने 100 /  रुपये  आरएसएस कार्यकर्ता को दान देते हैं, तो वे अपनी जेब से 10 रुपये जोड़ेंगे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सेवा कार्य बिना रुके जारी है. इसलिए, आप निश्चिंत हो सकते हैं कि आपका पैसा संघ द्वारा सही उपयोग में लाया जाएगा. ”

संघ के स्वयंसेवक विभिन्न पंजीकृत संगठनों के माध्यम से लगभग 135,000 सेवा परियोजनाओं का संचालन कर रहे हैं. उनमें से  90% किसी भी सरकार से सहायता नहीं लेते हैं, इन परियोजनाओं को सामाजिक समर्थन से संचालित किया जाता है. राष्ट्रीय चेतना का आह्वान करना और राज्य पर आश्रित हुए बिना समाज-केंद्रित व्यवस्था बनाना, संघ की मूल धारणा रही है.

कोरोना राहत कार्य के दौरान भी, अनाज-वितरण और भोजन के पैकेट-वितरण महत्वपूर्ण कार्यों में से एक था. केरल, असम, नागालैंड, त्रिपुरा और मुंबई में सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर कुल 95 टन अनाज (मुख्य रूप से चावल) खरीदा गया था. झारखंड स्थित एक संस्था (सर्वंगिन ग्राम विकास समिति, खुंटी, झारखंड) ने 12,000 खाद्य पैकेटों के वितरण पर 60,000 रुपये (5 रुपये प्रति पैकेट) की सब्सिडी मांगी थी, जो अपने तरह का एकमात्र मामला है. किसी अन्य राज्य में कोई सरकारी सहायता नहीं मांगी गई. लेकिन संघ की छवि को धूमिल करने का एजेंडा इन पत्रकारों को पत्रकारिता के नाम पर नफरत फैलाने के लिए मजबूर करता है.

उस रिपोर्ट में यह आरोप लगाने के प्रयास किये गए हैं कि राहत गतिविधियों की आड़ में संघ देश भर में अपनी गतिविधियाँ फैला रहा है. इस प्रकार की गलत व्याख्या इसके सेमिटिक जड़ों के कारण शायद ही चौंकाने वाली है, वामपंथी सेवा का कार्य करने वाले हर संगठन को मिशनरियों की तरह ही देखते हैं,जिनके सेवा कार्यों में स्वार्थ छुपा होता है. लेकिन जीवन का भारतीय दृष्टिकोण यह बताता है कि वैष्णव जन तो तेने रे कहिये जे पे पराई जेन रे (उन लोगों को वैष्णव कहते हैं जो दूसरे के दर्द को महसूस करते हैं) और हमारा समाज उसी सिद्धांत पर चलता है. हमें इस तथ्य पर विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि कम्युनिस्ट विचारधारा जीवन के प्रति भारतीय दृष्टिकोण के प्रति बिल्कुल असंगत है क्योंकि यह आध्यात्मिकता पर आधारित है, और वामपंथियों के लिए, आध्यात्मिकता एक “झूठी चेतना” के अलावा और कुछ नहीं है.