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“राममय संत कबीर ने स्व के लिए सिकंदर लोदी को झुकाया था”

– डॉ आनंद सिंह राणा

कभी-कभी होता है, जब कोई असाधारण आत्मा सामान्य स्तर से ऊपर उठकर ईश्वर के विषय में अधिक गहराई से प्रति संवेदन करती है, और देवीय मार्गदर्शन दर्शन के अनुरूप वीरतापूर्वक आचरण करती है, ऐंसी महान आत्मा का आलोक अंधकारमय और अस्त-व्यस्त संसार के लिए प्रखर दीप का कार्य करती है, संत कबीर की आत्मा इसी कोटि की उच्चतर मानक है। संत कबीर की भक्ति का मूलाधार राम हैं इसलिए संत कबीर का राम के प्रति आत्मसमर्पण अद्भुत और अद्वितीय है। कबीर दास राम के कुत्ते के रूप में अपना परिचय देते हुए जरा भी नहीं लजाते हैं, वह कहते हैं कि

“कबिरा कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउँ।।
तो तो कर तौ बाहुडौं, दूरि दूरि करै तो जाउँ।
ज्यूँ हरि राखै त्यूँ रहौं, जो देवे सो खाएँ।।

राम के प्रति संत कबीर की आगाध भक्ति थी, इसलिए सिकंदर लोदी जैंसे क्रूर सुल्तान कबीर का बाल भी बांका ना कर सके।

भारत में अरबों और तुर्कों के आक्रमण मूलतः इस्लाम के प्रचार और प्रसार को लेकर हुए हैं। सन् 1206 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ मुस्लिम आक्रांताओं का शासन प्रारंभ हुआ था। मुस्लिम शासकों का प्रशासन शरीयत पर आधारित था, एवं उलेमाओं का बदस्तूर हस्तक्षेप था। इस तरह दिल्ली सल्तनत अंतर्गत धर्म राज्य स्थापित था और तलवार के बल पर इस्लाम का प्रचार जारी रहा। हिंदुओं के मंदिरों मूर्तियों और बहुमूल्य दस्तावेजों का विनाश किया जा रहा था वहीं दूसरी ओर हिंदू शासकों का मुसलमानों के विरुद्ध प्रबल संघर्ष जारी था। ऐंसी विषम परिस्थितियों में भक्ति आंदोलन रामबाण सिद्ध हुआ, तथा उस अंधकारमय युग में काशी के समीप लहरतारा में कबीर के रूप में एक देदीप्यमान नक्षत्र का जन्म हुआ, जिसके आलोक में न केवल हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य एक सेतु का निर्माण हुआ वरन् निर्गुण – सगुण राम भक्ति शाखा का विकास हुआ।

महान् रामानंद के शिष्य कबीर के विचार बहुआयामी है, परंतु तत्कालीन परिस्थितियों में हिंदू- मुसलमानों के मध्य एकता करने हेतु किए गए प्रयास अद्वितीय एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। कबीर ने जातिगत, वंशगत, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत और शास्त्रगत रूढ़ियों के मायाजाल को बुरी तरह छिन्न-भिन्न किया है। संत कबीर के समय दिल्ली सल्तनत का सुल्तान सिकंदर लोदी था, उन दिनों काशी में संत कबीर की लोकप्रियता और विरोध चरम पर था। पुनर्जागरण काल में कबीर वाणी हिंदुओं के लिए शिरोधार्य थी, परंतु मुल्ला – मौलवियों को स्वीकार नहीं थी।अतः वे संत कबीर से कुपित थे और उन्हें सबक सिखाना चाहते थे, इसलिए जब सिकंदर लोदी काशी आया तब मुल्ला – मौलवियों ने संत कबीर की शिकायतों की फेहरिस्त सौंपी। जिसमें यह बताया गया था कि कबीर सुन्नी, हज काबा अजान, कुर्बानी और ताजियेदारी की खिल्ली उड़ाते हैं। उदाहरण स्वरूप सुन्नत को लेकर कहते हैं कि

“सुन्नति किये तुरक जो होइगा औरत का क्या करियै।
अद्ध सरीरी नारी न छोड़े, ताते हिंदू ही रहियै।

हज्ज काबा के बारे में कहते हैं कि “सेख -सबूरी बाहिरा क्या हज काबे जाई। जाका दिल साबत नहीं, ताको कहां खुदाई।
वहीं अजान के बारे में कहते हैं कि” मुल्ला मुनारे क्या चढ़हि सांइ न बहरा होई। जाँ कारण तू बांग देहि दिल ही भीतर सोइ।।
काँकर पाथर जोरि कर मस्जिद लई चिनाय। ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाई।। वहीं कुर्बानी और हलाल के बारे में कहते हैं कि “गाफिल गरब करैं अधिकाई। स्वारथ अरथि वधै ए गाई।।

“जाको दूध धाइ करि पीजे। ता माता को बध क्यों कीजे।।
“पकरी जीउ आनिआ देह बिनाशी, माटी कहु बिसमिल कीआ।”
जोति सरुप अनाहत लागी, कहु हलाल किउ कीआ।

उक्त उदाहरण देते हुए शिकायत दर्ज कराई गई साथ ही यह भी शिकायत हुई कि कबीरदास मुसलमान होकर भी हिंदू देवी देवताओं की पूजा करता है।
सिकंदर लोदी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और उसने संत कबीर को पकड़कर दरबार में हाजिर करने के लिए आदेश जारी कर दिया। कबीरदास भी तुलसी माला पहनकर, चंदन लगाकर और पगड़ी बांधकर सैनिकों के साथ निकल पड़े, तो रास्ते में हजारों लोग उनके पीछे हो लिए। कबीर दास दरबार में पहुंचे और उन्होंने झुक कर सलाम नहीं किया तब सिकंदर लोधी क्रोधित होकर बोला कि गुस्ताख तेरी इतनी हिम्मत कि तूने सुल्तान को सलाम नहीं किया तब कबीर दास जी बोले मेरे स्वामी भगवान राम हैं , वही सारे जगत के राजा हैं इतने बड़े राजा का सेवक होकर मैं किसी छोटे-मोटे सुल्तान को सलाम नहीं कर सकता। मेरा सिर मेरे प्रभु राम और गुरुदेव के अतिरिक्त किसी के सामने नहीं झुकता है। कुपित सुल्तान ने कबीर दास जी को जंजीरों से बांधकर और साथ में पत्थर बांधकर गंगा जी में डलवा दिया परंतु उस समय भी कबीरदास मुस्कुराते हुए राम नाम का जाप कर रहे थे। कबीर दास जी ने भगवान राम से प्रार्थना की, हे! प्रभु आपका नाम लेने से तो जीव का भाव बंधन छूट जाता है तो मेरी ये साधारण जंजीर वाले बंधन नहीं छूटेंगे क्या? जैंसे ही कबीर दास जी ने भगवान राम से यह प्रार्थना की, उनकी सारी जंजीर स्वयं ही खुल गईं और कबीर दास जी मुक्त हो गए तथा तैरकर गंगा जी के किनारे आ गए। सुल्तान हतप्रभ रह गया और उसने कबीर दास जी को कहा कि यदि तू राम नाम लेना छोड़ कर मुझे सलाम करता है तो तेरी जान बक्श दी जाएगी, वरना नहीं। कबीर जी बोले कि जिसका रक्षक राम है उसे कोई मार नहीं सकता। प्रभु जगन्नाथ का दास जगत से हार नहीं सकता। यह सुनते ही सुल्तान ने लकड़ियों में आग लगवाकर कबीरदास को बैठा दिया परंतु कबीरदास सही सलामत रहे बल्कि उनका चेहरा और चमकने लगा था। इस सबसे सुल्तान और भड़क उठा अब उसने एक मदमस्त हाथी से कबीरदास को कुचलवाने का प्रयास किया परंतु सफल न हो सका। कहते हैं कि नरसिंह अवतार सुल्तान ने देख लिया था। यह सब देखकर सिकंदर लोदी घबरा गया और उसने संत कबीर से क्षमा मांगी नतमस्तक हो गया था।

संत कबीर सिकंदर लोदी के चंगुल से छूटकर आए और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि मृत्यु तो बलिदान है। सांसारिक विषयी व्यक्ति आत्महत्या करते हैं जिन्हें अमरत्व का ज्ञान ही नहीं है। कबीर पुनः कहते हैं कि मुझे जीवनदाता राम प्राप्त हो गए हैं अतः मैं अमर हो गया हूँ, मैं अब कभी नहीं मरूँगा। मैंने मृत्यु को भलीभांति जान लिया है, मृत्यु उनकी है जिन्होंने राम को नहीं जाना है। शाक्त जन ही मरते हैं, जबकि संत जन जीवित रहते हुए रामरस ब्रह्मानंद का भरपूर पान करते हैं। मैं तो ब्रम्हमय हो गया हूँ, “अहं ब्रह्मास्मि”। यदि ब्रह्म मरेंगे तो हम भी मरेंगे परब्रह्म अविनाशी हैं अतः हम भी नहीं मरेंगे। कबीर का मन तो उस मन से मिल गया है, अतः वह अमर हो गया है, और उसे अनंत सुख की प्राप्ति हो गई है।

“हम ना मरैं मरिहैं संसार, हम कूँ मिला जियावन हारा।
अब न मरौं मरने मन माना, तेई मुए जिन राम न जाना।।
साकत मरै संत जन जीवैं भरि-भरि राम रसायन पीवै।
हरि मरिहैं तो हम हूँ मरिहैं, हरि न मरै हम काहे कूँ मरिहैं।।
कह कबीर मन मनहिं मिलावा, अमर भए सुख सागर पावा।।