Trending Now

रामायण, गीता का पठन-पाठन अनिवार्य हो

रामायण, महाभारत और श्रीमद्भगवत् गीता न केवल हिन्दु सनातन धर्मियों वरन अन्य धर्मों के अनुयायियों के लिये जो नैतिकता जैसे उज्जवल पक्ष को सामने रखकर जीवन जीते हैं, उनके लिये आदर्श ग्रंथ है। पाश्चात्य विद्वानों डाॅ. थामस एच हापकिन्स एवं थामस मर्टन लेट जो फ्रेंकलिन तथा मार्शल काॅलेज के प्राध्यापक रहे हैं, माना है कि विश्व  की सबसे प्राचीन जीवित संस्कृति को, भारत की महान धार्मिक सभ्यता के प्रमुख साहित्यिक प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे अनेक विद्वानों का मत है कि पाश्चात्य जगत में भारतीय साहित्य का कोई भी ग्रंथ इतना उद्घाटित नहीं होता जितना श्री भगवत् गीता, क्योंकि यही सर्वाधिक प्रिय है।

ये विलक्षण ग्रंथ है जिनके सूत्रों, कथाओं के माध्यम से जीवन के यथार्थ को सरलता से समझा जा सकता है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास महाराज ने जीवन के गूढ़ रहस्य को कुछ इस तरह एक पंक्ति में ही गूंथ दिया है। ‘‘मोह सकल व्याधिन कर मूला।’’ श्रीरामचरितमानस के ही एक प्रख्यात व्याख्याकार पं. रामकिंकर जी महाराज ने कहा है कि सत्ता सम्मान तो दिला सकती है सद्भाव नहीं। आज व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण समाज आपाधापी और धन प्राप्ति की लिप्सा में फंसा होकर संकट ग्रस्त अवस्था में मानव मूल्यों की परवाह किये बगैर सांसें ले रहा है। ऐसे अवसर पर विचारकों चिन्तकों का उद्वेलित हो जाना स्वाभाविक ही प्रतीत होता है। ऐसे भी स्वर तो फूट पड़ते हैं-‘‘बढ़ गई है पीर पर्वत सी पिघलानी चाहिये। इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।’’

महाभारत में गीता का वही सर्वोच्च स्थान है जो जीवन के संघर्ष में नैतिकता का है। पंथों की परम्परायें और मजहबों की मान्यतायें भिन्न-भिन्न हो सकती हैं लेकिन गीता के उपदेशों, उनमें निहित मानवीय मूल्यों और सार्वभौमिक धर्म तथा उससे उपजने वाले कर्तव्यों को क्या झुठलाया जा सकता है? रामायण, महाभारत मात्र धार्मिक ग्रंथ नहीं है। इनके सूत्रों में छिपे सांकेतिक अर्थाें को समझने की जरूरत है जिनके माध्यम से एक साधारण से साधारण व्यक्ति धन्य हो सकता है। क्योंकि इनमें निहित भाव और सार समय और स्थान से परे है। इसका प्रभाव शाश्वत है। आज तो इनकी सार्थकता और उपयोगिता ज्यादा सामयिक प्रतीत होती है जबकि मानव मूल्यों का क्षरण तेजी से होता दिखलाई दे रहा है।

पैगम्बर मुहम्मद सा. के जन्म से 1700 वर्ष पूर्व (1000 ई.पू.) लावी विन अरबताव बिन लूफा ने अपनी कविता में ‘‘अया मुबारफेल अरज यू शैये लोहा मिलन हिन्दे।’’ ‘‘हे हिन्द की भूमि! तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिये तुझको चुना।’’ वास्तव में धर्म तो मूलतः व्यक्ति के मनुष्यत्व में, उनकी विवेकशीलता में सन्निहित है। धर्म का वास्तविक अर्थ है- कर्तव्यनिष्ठा, उदात्तचिन्तन, आदर्श, कर्तव्य। धार्मिक सभ्दाव का अर्थ है विभिन्न धर्मों के प्रति आदर एवं प्रेम के भाव का प्रदर्शन करना। ईश्वर के सिवाय अन्य कुछ भी न तो श्रेष्ठ है और न स्थायी।

आज भौतिक साधनों की वृद्धि तो निरन्तर हो रही है लेकिन इन सबका उपयोग करने वाली अंतर चेतना को ऊपर उठाना चाहिये था लेकिन उसका परिणाम जो दिखलाई दे रहा है वह विपरीत है। हमारी बढ़ती हुई समृद्धि उत्थान के लिये प्रयुक्त नहीं हो रही है। इसे देखकर न्यायमूर्ति श्री दवे सम्भवतः अन्य चिन्तकों की तरह विचलित हुये होंगे और उन्होंने अपने न्यायिक उच्च पद पर होते हुये भी साहस के साथ समाजहित में जो आदर्श शब्द व्यक्त किये। इसकी सर्वत्र सराहना होनी चाहिये थी।  वहीं कतिपय छिद्रन्वेषी किसी एक शब्द को लेकर बवेला खड़ा करने के प्रयास में जुटे रहे। जो साहसी हैं वे ही आध्यात्मवादी है। वे समाज में सुधार का बीड़ा उठाने का साहस दिखा सकते हैं। महामानव ही विवेक का आँचल पकड़े है और वर्तमान परिस्थितियों की उपयाुक्तता की बारीकी से निरीक्षण करते हैं। जो उन्हें उपयुक्त लगता है। जो उसे बदलने के लिये अपने शौर्य एवं साहस का उपयोग करते हैं।

सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने भारतवासियों को नैराश्य की भावना से भर दिया है। इसी नैराश्य की भावना को दूर करने में गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामा चरितमानस के माध्यम से अहं भूमिका का निर्वाह किया है। जब तक तुलसी का यह विलक्षण ग्रंथ पढ़ा जाता रहेगा तब तक व्यक्ति और समाज में नैराश्य की भावना प्रवेशउ कर ही नहीं सकती। तुलसी ने मानस में चरित के हिमालय खड़े किये हैं जिन्हें निहारने पर हमारा मस्तिष्क ऊँचा हो उठता है। अपने देश में राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में संशय और अश्रद्धा की फसल ऊगाई गयी है। उसे नष्ट करने के लिये उसी श्रद्धा विश्वास को जगाने की आवश्यकता है जिसे लेकर उन्होंने इस अनुपम ग्रन्थ की रचना की है।

भारत ने एक हजार वर्ष अग्नि परीक्षा में अपनी योग्यता प्रमाणित की है। शक, हुण, यवन सब आये लूटपाट कर और अपनी तलवार तोड़कर प्रस्थान कर गये परन्तु भारतीयता परा अपना प्रभाव छोड़ सकने में असमर्थ रहे-क्यों? यह आत्मबल भारतीयों को परम्परा से चली आ रही आध्यात्मिकता से मिला था जिसमें आत्मा की रक्षा की बात कही गयी है। शरीर की रक्षा की नहीं। अपनी आत्मा की अमरता का विश्वास ही भारतीय संस्कृति का पोषक है। हिन्दु संस्कृति का स्वरूप आशावादी है। इसी चिन्तन सत्य का गीता और रामायण में उल्लेख है। हिन्दु होने  के नाते हमें इस अतिप्राचीन संस्कृति  पर गर्व होना चाहिये, साथ ही इसका प्रयास भी करते रहना चाहिये कि यह इसी भाँति सदा अजर अमर रहे।

विश्वविख्यात ग्रंथकार गोस्वामी तुलसीदास द्वारा श्रीरामचरितमानस में धर्म का निरूपण आदि से अंत तक विविध प्रसंगों में अनेक प्रकार से दिया गया है। गोस्वामी जी ने परोपकार को परमधर्म कहकर प्रतिष्ठित किया है। जो परोपकार का आश्रय लेते हैं उन्हें धर्मात्माओं में श्रेष्ठ माना गया है। गोस्वामी जी ने रावण की धर्मपरायण पत्नी मन्दोदरी के मुख से धर्म की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह इस प्रकार है-जब मुनष्य को काल मारना चाहता है तो सर्वप्रथम उसे धर्मभ्रष्ट करता है फिर उसके बल, बुद्धि और विचार का हरण कर लेता है। रावण में इन चारों का अभाव हो गया है। उसने रावण को सावधान भी किया।

इसी तथ्य का निरूपण श्रीमद्भगवत गीता में भी हुआ है। जिस देश या समाज में धर्म-चरित्र सम्पन्न नियमों का पालन करने वाले कर्तव्य परायण  सभ्य व्यक्ति निवास करते हैं, वहाँ सौभाग्य लक्ष्मी का निवास बना रहता है। वहाँ समता, सुख समृद्धि की वृद्धि होती है। वह देश निरन्तर उन्नति के शिखर पर जा पहुंचता है। पर जहां लोग इसके विपरीत आचरण ग्रस्त हो जाते हैं अर्थात् विलासी, आलसी भोगपरायण तथा स्वार्थी हो जाते हैं वहां सुख शान्ति की कल्पना कैसे की जा सकती है? गीता में भी इन्हीं को नरक का द्वार कहा गया है।

वर्तमान समय में उच्श्रृंखल वृत्तियों भरे विभ्रमित समाज की दुःखद दशा को देखकर जस्टिस दवे ने एक प्रकार से अपनी वेदना को ही व्यक्त किया है उन्होंने रामायण और गीता की शिक्षा देने की बात कहकर एक प्रकार से समाज और सरकार को चेताया ही है कि अब स्थिति बेकाबू हो रही है। अतः हमें गीता और रामायण का आश्रय लेना चाहिये। आज देश की राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक चिन्ताजनक परिस्थितियों से कौन वाकिफ नहीं है। इन महामारी जैसी फैली समस्याओं से आखिर हम कब तक मुँह फेरते रहेंगे।

गीता में धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान का समन्वित रूप निहित है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस अनुपम ग्रंथ में जो संदेश दिया गया है वह किसी समुदाय विशेष के लिये नहीं वरन् सम्पूर्ण मानव जाति के लिये हैं। एल्डस इक्सले के शब्दों में गीता शाश्वत दर्शन का अब तक प्रस्तुत एक सबसे स्पष्ट और सर्वांगींण  सार है। इसलिये यह न केवल भारतीयों के लिये है अपितु पूरी मानव जाति के लिये इसका स्थायी महत्व है।

इस तथ्य को तो स्वीकारना ही पड़ेगा कि शिक्षा में नैतिक और आध्यात्मिक कमी के कारण सामाजिक मूल्यों में गिरावट को हम अपनी खुली आँखों से स्पष्ट देख रहे हैं जिसके कारण समाज में अपराध बढ़े हैं, असभ्य कहे जाने वाला व्यवहार बढ़ा है, धन की लौलुपता बढ़ी है। इसलिये प्राथमिक शिक्षा से ही आध्यात्मिक और नैतिक पाठ पढ़ाना आज समाज की जरूरत बन गया है। भले ही इसके लिये तरीके कुछ भी खोजे जायें। जस्टिस दवे के तानाशाही शब्द से आगे विशेष रूप से अति बुद्धिवादी और राजनीतिक भड़के हुये दिखलाई दे रहे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन 67 सालों की आजादी में समाज में बढ़ी स्वेच्छाचारिता राजनीतिज्ञों के कुकर्मों का ही परिणाम है।

श्रीरामचरितमानस के नायक मर्यादा पुरूषोत्तम और महाभारत के नायक व गीता के उपदेशक लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण अद्वितीय राष्ट्रपुरूष थे। उनकी जीवन लीला को समझना हर एक के बस की बात नहीं हैं उनसे युग युगान्तर तक मानव जाति ने नेपाल के सीमावर्ती प्रदेश मिथिला से लेकर राक्षसों के अधिपति बलशाली रावण की लंका तक ठीक उत्तर से दक्षिणी सीमा तक भारत को एक राष्ट्र में आबद्ध किया। उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने द्वारिका से लेकर मणिपुर तक पश्चिम से पूर्व तक सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जिसके कारण महाभारत से चार हजार वर्षों तक अनेक विदेशी ताकतें इस एक सूत्रता को तोड़ने का बार बार प्रयास करने के बाद असफल रही। यह इनके राष्ट्र निर्माता स्वरूप का दिग्दर्शन हैं। दूसरी तरफ इनके अवतारी स्वरूपों के वर्णन में अनेकानेक ग्रन्थ भरे पड़े है।

न्यायमूर्ति श्री अनिल दवे के इस सुझाव की सराहना होनी चाहिये कि उन्होंने देश की शिक्षा  में रामायण महाभारत और गीता को प्राथमिक स्तर से अनिवार्य रूप से प्रारम्भ कराने का सामयिक सुझाव दिया है। सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर गिरती नैतिकता की पराकाष्टा का उन्होंने अपने न्यायिक जीवन और कार्य प्रणाली के दौरान गम्भीरता से अनुभव किया  होगा। वे चाहते हैं कि इस स्वतंत्र भारत में नौनिहालों और आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुखद बनें। इसके लिये आवश्यक है कि सामाजिक समता के ताने बाने को दुरूस्त रखा जाये जिसके लिये आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है।

डाॅ. किशन कछवाहा
9424744170