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विश्वव्यापी राम /12

!! अरब !!

अरब प्रायद्वीप का संबंध भारत से अति प्राचीन समय से है। अनेक अरबी ग्रन्थों में भारत तथा भारतीयों के प्रति कृतज्ञता एवं सम्मान का भाव दर्शाया गया है। यह जहां पश्चिम के व पूर्व के देशों के लिए एक प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग था। वहीं ऐराम, शिवम तथा मक्का जैसे धार्मिक तथा प्रसिद्ध नगरों का केंद्र भी था। भारत के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. सैफुद्दीन जिलानी ने एक प्रसिद्ध अरबी मूल ग्रंथ की प्रति “ओयून अखबार -अल- हिंद- वासिन्ध” इसका लेखक “इब्न- बार” है। इसका हवाला देते हुए बतलाया कि- अरब प्रायद्वीप साम्राज्य में ‘ऐराम’ था। ‘ऐराम’ का अरबी अर्थ है “राम का निवास” इसकी शरद कालीन राजधानी ‘शिवम’ थी। इसी भांति ‘शिवम’ जो ‘शिवोहम’ का अरबी रूपांतरण है। शिवम के कारण अरब रोम के इतिहासकारों ने इसे भाग्यशाली अरब कहा है। अरब प्रायद्वीप के दक्षिण भाग में रूब- अल- खाली रेगिस्तान में, उबर क्षेत्र में 1000 स्तंभों या मूर्तियां वाले नगर का वर्णन मिलता है। इसी अरब साम्राज्य की राजधानी को ‘हेराम’ या ईराम या आमद भी कहा गया है। यह नगर संभवत: 3000 ईसा पूर्व से पहली शताब्दी तक अस्तित्व में रहा।
(डॉ. सतीश चंद्र मित्तल, “मुस्लिम शासक तथा भारतीय जन समाज”, पृष्ट 1-3)

डॉ. बुचनाम के अनुसार बहुत सारे जैन मक्का से निकल गए थे। उन दिनों ब्रह्मा व ब्राह्मण को मानने वाले बहुत लोग अरब देश में थे। वह यह भी सूचित करते हैं कि देश के अंदरूनी हिस्से में बहुत सारे देवी-देवता पूजक थे, जो हिंदू थे। अरब देश के बहुत सारे स्थानों के प्राचीन नाम या तो संस्कृत में या हिंदी में थे। मक्का स्थान के हिंदू अपना पूजा स्थान होने का दावा करते थे और कहते थे कि साथ भी शताब्दी से पूर्व बहुत शताब्दियों तक उन्हें वहां जाने दिया जाता था तथा पूजा करने दी जाती थी।

विद्वान अब्दुल्ला याकूब खान बताते हैं कि- हिंदुओं की प्राचीन किताब पुराणौ (महाभारत आश्रम पर्व, 25/ 5, 6, 10, 11) के अनुसार हिंदुओं की एक शाखा जो पिंगाक्ष या पीतवर्ण हिंदू कहलाती थी। समूह में देशांतर गमन करते हुए अरब अफ्रीका और नील नदी से जुड़े क्षेत्रों में गई और उनमें से कुछ काफी समय तक यमन के तट पर रही। दूसरा प्रसिद्ध समूह जिसे राधामानथूस जाना जाता था। अरेबिया में राज करता रहा और इन्होंने सारे पश्चिम लाल सागर के किनारो को अपने अंतर्गत कर लिया था।

संभवत: इनमें से बहुत से साहसी हिंदू समूह पूर्वी किनारो जिसमें अदन भी सम्मिलित है वहां बस गए थे। इसका प्रमाण है अदन का “अंबा भवानी मंदिर” जो की प्राचीन स्मारकों में महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। चौका देने वाली बात यह है कि- पिंगाक्ष, राधामानथूस एवं सांचादीप यह तीनों समूह यहां क्रियाशील रहे तथा श्रद्धा में समानता के कारण ‘अदन’ का अंबा भवानी मंदिर पुरातन व महत्वपूर्ण बना रहा था। अरब देश में मूर्ति पूजा भारत से ही गई थी।

उक्त तथ्यों का विवरण 1794 में लेफ्टिनेंट फ्रांसिस विल्फ्रेड भी दे चुके हैं। बिलबोर्ड पुन: बताते हैं कि- “पिंगाक्ष नीले रंग के हिंदू ही हैं और राधामानथूस उन्हीं के वंशज हैं। साथ ही वह यह भी बताते हैं कि अमन में ‘पांचेण’ नामक जनजाति भारतीय मानी जाती है।” यमन क्षेत्र के बहुत से प्राचीन भौगोलिक स्थान के नाम संस्कृत में हैं और बहुत से नाम भारत में पाए जाते हैं।

यह उल्लेख करना उचित होगा कि महाराजा मनु के भाई व वैवस्वत के पुत्र यम ने ही अरब व ईरान क्षेत्रों पर राज किया था। जिसे विद्वान लोग ‘राधामानथूस’ तथा ‘मिनोस’ कह रहे हैं,जो मनु के भाई यम का ही अपभ्रंश है।

‘अर्बन’ शब्द का अर्थ है- “घोडो का स्थान” जो कालांतर में अरब हो गया। पंडित ज्ञानेंद्रदेव सूफी जो पूर्व में मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहब कहलाते थे। वह वैदिक धर्म से प्रभावित होकर ‘आर्य’ बन गए थे। उनके द्वारा अरब, इराक, शाम, फलस्तीन, मिस्र, तुर्की, ईरान और मोरक्को आदि देशों की सन 1925 से 1931 तक यात्रा की। उन्हें मार्च सन 1923 में ‘अल- हिलाल’ नाम का एक मासिक पत्र मिला, जो काहिरा से छापा था । इसमें एक प्राचीन कविता छपी थी। कविता पुराने चर्मपत्र पर थी तथा लेखक – “उमर- बिन -ए -हश्शाम” थे, जो सातवीं शताब्दी में थे। “उमर -बिन- ए- हश्शाम” को संपूर्ण अरब जगत में भगवान शिव का उपासक होने के नाते बहुत सम्मान प्राप्त था। उन्हें “अब्दुल हाकम” अर्थात “ज्ञान का पिता ” कहा जाता था। ‘हाकम’ जी की कविता जिसमें भगवान शिव की स्तुति तथा हिंदुस्तान की प्रशंसा की गई है-

“कफा बनक जिकु अम्न अलूमु तबअषिरू।
कुलूबन् अमातत् उल-हवा व तजक्करु।।”

अर्थात- जिसने विषय और आसक्ति में पडकर अपने मन दर्पण को इतना मेला कर लिया है की इसके अंदर कोई भी भावना शेष नहीं रह गई है।

“व अहल नहा उजहू अरीमन महादेवहु।
व मनाजिले इल्मुद्दीन मिन हुम व सियस्तरु।।

अर्थात- यदि अपनी और अपनी संतान के लिए एक बार भी सच्चे मन से महादेव की पूजा करें ,तो वह धर्म के पथ पर (मंजिलों में) सबसे उत्तम स्थान प्राप्त कर सकता है।

सातवीं शताब्दी पूर्व काल में मक्का में एक वार्षिक समारोह होता था, जिसका नाम औकाज था। समारोह में मक्का में सर्व अरब खंडीय काव्य सम्मेलन हुआ करता था । उत्तम कविताएं स्वर्ण थाल पर उत्तीर्ण कर मंदिर के भीतर लटका दी जाती थी। अन्य को ऊंट या बकरी की खाल पर लिखकर बाहर लटकाया जाता था। यह काबा का मंदिर वर्षों तक भारतीय वैदिक परंपरा से प्रेरित उत्तम अरबी काव्यगत विचारों का कोषागार रहा है।
(पी. एन. ओक भारतीय इतिहास की भयंकर भूले, पृस्ट 291)

कविताओं का संग्रह इराक में खलीफा हारून अल रशीद के दरबारी एवं सुप्रसिद्ध अरबी कवि “अबू अमीर अब्दुल असमई” ने किया । उस संग्रह का नाम “शायर -अल- आकुल” है। यह इस्ताम्बुल ,तुर्की के प्रसिद्ध राजकीय पुस्तकालय “मकतब- ए- सुल्तानिया” में सुरक्षित है। इस महान ग्रंथ का प्रथम अंग्रेजी संस्करण सन 1864 ईस्वी में बर्लिन, जर्मनी से व सन 1932 में बेरुत, फिलिस्तीन से प्रकाशित हुआ है।

पंडित ज्ञानेंद्रदेव सूफी ने स्वयं उक्त पुस्तक में पहले नंबर की कविता पढी तो वे सकते में आ गए। यह कविता “लबी -बिन- अख्तव” की कविता है। जिसे ‘असमई’ ने कसीदे का जन्मदाता कथा उसका समय ईसा से लगभग 1700- 1800 वर्ष पूर्व का बताया है।

या मुबारक अल-अर्जे युशन्न्नीहा मिन-अल-हिन्द।
व अरदिकल्लाह यन्नजिजल जिक्रतुन ।।

अर्थात- अय हिंद की पूर्ण भूमि! तू स्तुति करने योग्य है क्योंकि अल्लाह ने अपने अलहाम अर्थात दैवी ज्ञान का तुझ पर अवतरण किया है।

वहल बहलयुतुन औनक सुबही अरब अत जिक्रू।
हाजिही युन्जिज्ल अर रसूलु मिन- आल-हिन्दतुन।।

अर्थात- वे चार अलहाम अर्थात परमेश्वरी वाणी ‘वेद’ जिनके दैवी ज्ञान उषा के नूर के समान है, हिंदुस्तान में खुदा ने अपने रसूलों पर नाजिल किए हैं। अर्थात उनके हृदय में प्रकाशित किए हैं।

व इस्नैना हुमा रिक् अथर नसिहीना उख्वतुन।
व अस्ताना अला ऊदँव व हुवा मशअरतुन।।

अर्थात- इनमें से बाकी दो ‘ऋक’ और ‘अथर्व’ हैं जो हमें भ्रातत्व अर्थात एकत्व का ज्ञान देते हैं। ये कर्म के प्रकाश स्तंभ हैं जो हमें आदेश देते हैं कि हम उन पर चलें।
( पं. ज्ञानेन्द्रदेव सूफी, अरब का कदीमी मजहब, पृस्ठ-17-18 )

अरब के मूल निवासियों को ‘बददु’ कहते हैं। जो ऊंट, भेड़ व घोड़े रखते हैं। तथा चारागाह की तलाश में खानाबदोश जिंदगी बिताते हैं। (फिलिप के. हिटटी, अरब का संक्षिप्त इतिहास, पृस्ट- 15-16 )

“बददु लोग सिर पर चोटी रखते हैं तथा अपने पूर्वजो को हिंदु बताते हैं।”
( पं. रुचिराम, आर्योपदेशक, अरब के सात साल, पृस्ठ- 53 , 68 )

मक्का में हज करते समय मुस्लिम भारतीय तीर्थ स्थानों/ मंदिरों में जाते समय हिंसा रहित रहते हैं तथा दो बगैर सिले कपड़े पहनते हैं। काबा की परिक्रमा सात बार करते हैं, जैसे हिंदू मंदिर की परिक्रमा करते हैं।

उक्त प्रमाणौ से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन अरब क्षेत्र भारत/आर्यावर्त का ही एक हिस्सा था। वैसे भी संपूर्ण विश्व में एक ही सनातन संस्कृति के अवशेष बिखरे हुए हैं। जो अब साक्ष्य के रूप में हमें प्राप्त हो रहे हैं।

क्रमशः …..
-डॉ. नितिन सहारिया