Trending Now

जलसंकट की आहट से उजड़ते शहर

बंगलौर सूख रहा है

1961 तक शहर में 262 झीलें थीं, और शहर के पर्यावरणविदों द्वारा की गई अंतिम गणना से पता चलता है कि केवल 81 झीलें बची हैं। झीलों के रूप में पहचानी जाने वाली 81 झीलों में से केवल 33 ही जीवित हैं

बंगलौर जलसंकट के प्रमुख कारण वर्षा की कमी, जलवायु परिवर्तन, भूजल स्रोतों का ह्रास, कुप्रबंधन, जलप्रदूषण आदि है
विश्व की 17% आबादी के वहन के बावजूद भारत के पास विश्व के मीठे जल संसाधनों का केवल 4% मौजूद है, नीति आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है, जिसका लगभग 70% जल संदूषित है।
यह हर शहर में हो सकता है
बंगलौर के साथ भारत के 21 शहर खतरे में है
आवश्यकता है, प्राचीन जल धरोहर के सरंक्षण की।
जीवन का आरंभ जल में हुआ। आज हमे अपने प्राचीन जल। संरक्षण तकनीक पर विचार करना होगा , प्रारंभ में सभ्यताओं का निर्माण नदियों के किनारे हुआ है।
भारत में जल संरक्षण का ट्रैक रिकॉर्ड प्राचीन काल से है, उदाहरण के लिए, लगभग 5,000 साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान, भारत में सबसे परिष्कृत शहरी जल आपूर्ति और सीवेज प्रणालियों में से एक पर काम चल रहा था। इसका एक और उदाहरण गुजरात के कच्छ के रण में खाफिर बेल्ट पर स्थित डोलावीरा का सुनियोजित शहर है, जिसमें सबसे पुरानी जल संचयन प्रणालियों में से एक है। जल संरक्षण के कई नवीनतम और सबसे उन्नत तरीके होने के बावजूद भी भारतीय जल संरक्षण के पुराने तरीकों का पालन कर सकते हैं।

अनुपम मिश्र की पुस्तक आज भी खरे है तालाब में बुंदेलखंड क्षेत्र के सूखे का उपाय तालाब निर्माण में बताया है।
प्राचीन काल में राजा महाराजाओं द्वारा तालाब, कुओं एवं नहरों का निर्माण किया जाता था।
तालाब, पोखरे, झील, कुआं आदि जल संरक्षण के प्राचीन स्रोत थे। उसमें एकत्र हुआ बारिश का पानी न सिर्फ सालभर के लिए पर्याप्त होता था बल्कि भूजल का स्तर भी दुरुस्त रहता था।

आज हर शहर अपने इस वैभव को खोता-खोता दरिद्रता की स्थिति में पहुच रहा है और पूरा समाज इससे बेखबर ही बना रहा
पहले न कोई इंजीनियर, न कोई नाप-जोख, न कोई सरकारी मदद, न ही इस्टीमेट। एक समाज से दूसरे समाज ने सुना-देखा सीखा और करो।
सिंधु क्षेत्र में सार्वजनिक और निजी स्नानघर, सटीक ईंटों से निर्मित भूमिगत नालियों के माध्यम से सीवरेज सिस्टम का एक सुनियोजित नेटवर्क, और कई जलाशयों और कुओं के साथ एक कुशल जल प्रबंधन प्रणाली साक्ष्य से पता चलता है कि सिंधु लोगों ने नागरिक, वास्तुशिल्प और भौतिक विज्ञान के अनुकरणीय मिश्रण के साथ उस प्राचीन काल में सबसे स्मार्ट शहरी केंद्रों में से एक विकसित किया था लेकिन फिर भी सिंधु सभ्यता का विनाश हुआ? क्यों?
प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन एवं पर्यावरण के प्रति सचेत न होना। जब भी आप प्रकृति के साथ सहचर्य न बनकर अनियोजित एवं अत्यधिक दोहन करते है, तब पतन सुनिश्चित हो जाता है।

आज का जलसंकट हमे सिंधु विनाश के उदाहरण की तरह चेतावनी दे रहा है
आज तालाबों की स्थिति खराब है, आवासीय बसाहट, दूषित जल आदि
प्रत्येक शहर में भी बंगलौर की तरह अपने तालाब, बावड़ी, तलैया को खो दिया है
नदियां कब तक सहारा देगी, उसे भी हम छलनी कर रहे है
पानी ही नही रहेगा तो कैसे जीयोगे?
प्राचीन तालाबों,
झीलों आदि का नष्ट होना,
सीमेंटेड सड़के,
पक्के घर आंगन।

विकास के नाम पर जैसे सड़क, रेल, उद्योग आदि पर्यावरण का विनाश इन सबमें सबसे बड़ी बात जनप्रतिनिधियों में इसके लिए संकल्प शक्ति की कमी है, साथ ही जनमानस भी बेखबर है। शहर तो कंक्रीट के खंडहर की तरह बने रहेंगे पर जल के अभाव में नागरिकों का जीवन समाप्त हो जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र के छठे महासचिव बुतरस घाली ने करीब तीन दशक पहले ही ये कह दिया था कि अगर समय रहते इंसानों ने जल की महत्ता को नहीं समझा तो अगला विश्वयुद्ध (World War) जल को लेकर होगा। वहीं साल 1995 में वर्ल्ड बैंक के इस्माइल सेराग्लेडिन ने पानी के वैश्विक संकट पर कहा था कि इस शताब्दी में तेल के लिए युद्ध हुआ लेकिन अगली शताब्दी की लड़ाई पानी के लिए होगी। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक बार अपने भाषण के दौरान लोगों को चेताते हुए कहा था कि ध्यान रहे कि आग पानी में भी लगती है और कहीं ऐसा न हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी के मसले पर हो।

अगर शहरो को जीना है (गुणवत्ता पूर्ण) तो उसे आज से, अभी से बदलाव को आवश्यकता है। सबसे पहले जनभागीदारी से प्राचीन तालाबों को जीवित किया जाए, उनका संरक्षण कर उसे स्थानीय समुदाय (मोहल्ला समिति) को। सौंप दिया जाए, सीमेंटेड सड़को के साथ थोड़ी थोड़ी दूरी पर सोक पिट बने हो, हर कॉलोनी में उद्यान हो, प्रत्येक घर में कच्चा फर्श वाला।एक निश्चित क्षेत्र हो, हर घर वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम हो, जल ही बचत एक आदत बन जाए आदि से हमारे शहर दुनिया के लिए मिसाल बन सकते है।

लेखक- दीपक द्विवेदी 
सिविल सर्विसेज विशेषज्ञ, इतिहासविद