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विश्वव्यापी राम – 5

World wide RAM

कंबोडिया के हिन्दु मंदिर विश्व प्रसिद्ध है “अंकोरवाट का मंदिर ” विश्व का सबसे बड़ा विख्यात हिंदू मंदिर है यह मंदिर लगभग 1 किलोमीटर लंबाई- चौड़ाई में फैला हुआ है, इसके अवशेष 16 किलोमीटर दूर तक फैले हुए हैं। इसके मध्य मीनार की चोटी भूमि से 180 फीट ऊंची है

इस मंदिर के अंदर चित्र उत्कीर्ण हैं। जिसमें रामायण, महाभारत,हरिवंश पुराण के कथानक चित्रों में अंकित हैं, अधिकांश चित्र वैष्णव हैं लेकिन कुछ चित्र शैव भी हैं

सिओडिश ने सन 1911 ईस्वी में अंकोरवाट के 30 चित्रों का पता लगाया था। कुछ चित्रों में वासुकी सर्प, महेंद्र पर्वत, विष्णु देव, असुर ,लक्ष्मी, ब्रह्मा, गणेश, नटराज किरात बेसधारी शिव का अर्जुन से संग्राम आदि के चित्र सुगमता से पहचाना जा सकते हैं आरंभ में यह विष्णु मंदिर था परंतु पीछे से बौद्धों ने विष्णु के स्थान पर बुद्ध की मूर्तियां स्थापित कर दी हैं।
अंकोरवाट के चित्रों में पुरुष धोती पहने दिखाए गए हैं भारत की ही भांति कंबोज में भी स्त्री- पुरुष दोनों ही पुरुष धोती व स्त्रियां साड़ी पहनती थी कंबोज देश में जो अभिलेख मिले हैं वह प्राय: संस्कृत में ही हैं।

कंबोडिया में शासन व्यवस्था वेद- वेदांग, स्मृति और योग में पारंगत उच्च कोटि के ब्राह्मणों की उपलब्धता, उनका राजा और प्रजा दोनों के आधार, दंड व्यवस्था, धार्मिक दीक्षा, शैव धर्म, वैष्णो धर्म अन्य देवी -देवताओं की पूजा भारतीयों के ही समान पाई गई।
फ़ूनान का हिंदू साम्राज्य ,मायसोन में प्राप्त चंपा नरेश प्रकाश धर्म का कलियुगाव्द 3859 ,सन 757 का संस्कृत शिलालेख में उल्लेख है कि – लेख मे शैलराज कोडिंय और नागकन्या सोमा उनके विवाह का तथा राज्य स्थापना का व्रत आता है –

“स्थापितवान्ं शूलं कोडिंन्यस्तद्र्रद्विजषर्भ:।
भविष्यतोथर्स्य निमित्तभावे विधेरचिंत्यं खलु चेष्टितं हि।।”

द्रोणाचार्य के चिरंजीवी पुत्र अश्वत्थामा ने कोडिंन्य को अभिमंत्रित भाला दिया था। कोडिंन्य ने उस भाले को घुमा कर दूर फेंका। वह जहां गिर पड़ा वहीं राज्य की राजधानी बसाई गई। द्विजश्रेष्ठ कोडिंय ने नागकन्या ‘ सोमा’ से विबाह किया । कोडिंय के राजा बनने से वंहा भारतीय संस्कृति अधिक सुद्रढ रुप से स्थापित हुई ।

सम्राट जयवर्मा प्रथम 478 ई. में जयवर्मा की पटरानी थी कुला प्रभावती। यह वैष्णव संप्रदायी थी। कुरुमबनगर में उसने विष्णु की एक मूर्ति प्रतिस्थापित कराई थी। जयवर्मा की राजधानी ‘हरिहरालय’ थी । कंबोडिया से प्राप्त सबसे प्राचीन अभिलेख जयवर्मा का है। क्षीर समुद्र में सयन करने वाले एवं भुजंग के फन को पर्यड़क (पलंग) के रूप में प्रयुक्त करने वाले भगवान विष्णु की स्तुति इस अभिलेख में इन शब्दों में की गई है-
युज्जन्ं योगमत किर्तिड़घ्मण्पि य:
क्षीरोद्शय्यागृहे । रचनापर्यडंकपृष्ठाश्रित:।।

एक दूसरे अभिलेख में गुणवर्मा द्वारा चक्रतीर्थ स्वामी विष्णु के मंदिर को दिए गए दान का उल्लेख है। इस अभिलेख का एक श्लोक विष्णु भक्ति का साक्षात्कार कराता है –
“कुक्षिप्रान्त समाश्रित …स स्वामिनी रक्षतु।।”

त्द्तभक्तोsधिवसेत्त् विशेदपिच वा तुष्टान्तरात्माजनो ।
मुक्तो दुष्टकृतकर्मणष्य परमं गच्छेत्त् पदं वैष्णवम् ।।

महिंद्र वर्मा के पश्चात उसका पुत्र ईशान वर्मा कम्बुज के सिंहासन पर आसीन हुआ। उसके उत्कीर्ण लेख में मेकांग नदी के मुहाने के प्रदेश में और थाईलैंड की पूर्वी सीमा के प्रदेश में भी मिले हैं। उसने इशानपुर नई राजधानी का निर्माण कराया था। इस नगरी के अवशेष एवं ईशान वर्मा के अभिलेख प्राप्त हुए हैं । वह वैदिक धर्म का अनुयाई था उसने अनेक यज्ञ किया वह संन्यास धर्म को प्रोत्साहन दिया चंपा (वियतनाम) राज्य से ईशान वर्मा का घनिष्ठ संबंध था। ईशान वर्मा के काल में शिव एवं विष्णु की उपासना कंबोज में प्रचलित थी । शंभूपुरी के निकट आनंदित प्रसाद से हरिहर की मूर्ति प्राप्त हुई है। शिव एवं विष्णु को एक ही मूर्ति में अर्धनारीश्वर की तरह मिलाया गया है। मूर्ति खंडित है प्नोम पेन्ह के संग्रहालय में है।

वेथोन के शिव मंदिर के साथ ही एक विलक्षण विष्णु मंदिर का निर्माण यशोवर्मा ने आरंभ किया था। उसके उत्तराधिकारी हर्षवर्मा राजा के काल में वह पूर्ण हुआ। यह मंदिर नाग कथाओं से संबंधित है। मंदिर सरोवर के मध्य में है। कंबोज का जीवन नाग परंपरा से व्याप्त है। आज भी कंबोज में नाग- नागिन के कथानक प्रचलित हैं।
जयवर्मा के प्रसत अंदोन अभिलेख में शिव, गंगा, विष्णु, उमा, ब्रह्मा और भारती की स्तुति के पश्चात यशोवर्मा ,हर्षवर्मा ,ईशान वर्मा एवं जयवर्मा की प्रशंसा की गई है।

जयवर्मा का शासन काल विद्वता एवं ज्ञान के युग का आरंभ था। कंबोज वैसे भी भारतीय संस्कृति एवं परंपरा का प्रभावी केंद्र था ही। राजभाषा संस्कृत थी। सांस्कृतिक जीवन का केंद्र बिंदु सनातन हिंदू धर्म था। वेद और उपनिषद इसी दृष्टि से समाजरत थे। समाज जीवन का अधिष्ठान रामायण महाभारत एवं पुराण थे। पाणिनि का व्याकरण, पतंजलि का योग दर्शन ,चरक एवं सुश्रुत के चिकित्सा ग्रंथ आदि का अध्ययन होता था। यशोवर्मा के अभिलेख में सेतुबंध का संकेत आता है।

विश्व का प्रथम आश्चर्य ‘अन्कोरवाट’ मंदिर है। जिसका निर्माण सूर्यवर्मा ने किया था। यह कंबोज के विलक्षण प्रतिभाशाली कलाकारों के स्थापत्य एवं शिल्प का एक महाकाव्य है। 4 किलोमीटर परिखा के विशाल सरोवर में बना हुआ जल मंदिर है। जल से भरी परिधि को पार करने के लिए 36 फुट चौड़ा सेतु है। 12 फीट ऊंचे नागों की एक श्रृंखला का तट है, यहां 1560 फीट लंबा सेतु पार करके प्राचीर के पश्चिम महाभियोग प्रवेश द्वार पर आते हैं। अंदर प्रवेश करते ही ढाई हजार फुट लंबी दीर्घा सामने आती है। दीर्घा की दीवारों पर विष्णु एवं यमलोक से संबंधित कथानक उत्क्रीन हैं। पूर्व दीर्घा में अमृत मंथन का 20 फीट ऊंचा भाव शिल्पान्कित चित्र आंखों के सामने खड़ा होता है। महाभारत की घटनाओं का जीवन्त पट आंखों के सामने खुलता जाता है फिर साकार होती है मर्यादा पुरुषोत्तम राम की अमर गाथा। विराध वध, मारीच वध ,बाली सुग्रीव संघर्ष, अशोक वाटिका में हनुमान -सीता संवाद …..राम- रावण युद्ध… हम त्रेता युग के इन घटनाओं के साक्षी बन जाते हैं। एक चित्र में खड्ग धारी हनुमान जी भी दिखाई देते हैं इत्यादि

भगवान प्रलय की पश्चात क्षीरसागर में शयन करते थे । अंकोरवाट के कल्पनाकर ने मानव कृत पर्वत पर सुमेर की कल्पना की। प्रत्येक खंड को जल से गिरकर सागर के बीच उन्हें बनाया। 75 फीट ऊंचाई तक प्रति 25 फीट पर एक-एक सागर है। उस सागर के मध्य में प्रत्येक खंड है।

प्राचीन अंकोरवाट के ध्वंसावशेष 15 मील से अधिक भूमि परिधि को घेरे पड़े हैं। इसे संसार भर में उपलब्ध धवंसव्शेशों में सबसे अधिक विशाल और बहुमूल्य कहा जा सकता है। इसका महा प्रांगण पेरिस के प्रसिद्ध पैलेस “दला कांकोई” से चार गुना बड़ा है। ‘नाम पेंह’ से 80 मील दूर अंकोरवाट है। इसके अवशेष मीलों तक बिखरे पड़े हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की विशालकाय मूर्तियां कला कुशल हाथों से बनाई हुई हैं। जिनके सामने रोम, मिश्र और यूनान के कला प्रतीक भी तुच्छ प्रतीत होते हैं।

कंबोडिया के धर्मावलंबियों के पूजाग्रहों में वहां धनुषधारी राम और हनुमान जी की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। सरकारी मुद्रा पर हनुमान जी छपे हैं । सेना के ध्वज पर भी हनुमान जी विराजे हैं। राजधानी नाम पेन्ह के आधुनिकतम खेल स्टेडियम पर हनुमान जी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। हनुमान जी वहां के मानस देवता हैं।

इतिहासकार कैंटलई और ली. टाओ युआन के कथनानुसार ईसा की तीसरी शताब्दी में कंबोडिया में हिंदू राज स्थापित हो चुका था। वहां उपलब्ध लेखो से विदित होता है की- प्राचीन काल में वहां एक असभ्य जाती रहती थी। जिसकी रानी का नाम ल्यू ए अथवा सोमा था। जिसने भारत से पहुंचे कोडिंय नामक ब्राह्मण से विवाह कर लिया और उनका पुत्र आगे चलकर कंबोडिया का शासक बना। उसने कई छोटे छोटे राज्य स्थापित किया। इंद्र वर्मा, श्रेष्ठ बर्मन ,जय बर्मन, रूद्र बर्मन ,भवर्मन आदि शासक इसी वंश के थे।

अनामी और कंबोजी नागरिकों के चेहरे भारतीयों से मिलते हैं। उनकी नस्ल आर्य है। वे हिंदुओं की संताने हैं।
‘मेकांग’ नदी का नामकरण भी कोंग शब्दों को मिलाकर किया गया है। जिसका अर्थ वहां की भाषा में ‘ गंगा माता ‘ होता है। सचमुच ही वहां उस सरिता को श्रद्धा भाव से भारतीयों की तरह ही पूजा जाता है।
कंबोडिया में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार स्वयंभू , मनु नामक महापुरुष ने उस देश को बसाया। उसकी संताने कंबू कहलाई। भारत में जिस प्रकार मनु की संतान को मानव कहलाना प्रचलित है। इस प्रकार उस देश के निवासी भी अपने को कंबू, स्वयंभू मनु की संतान मानते हैं।

इतिहासकार लेवी, प्रिजुलस्की तथा जूब्लैक के लेखो से सिद्ध होता है कि- कंबोडिया के प्राचीन निवासी भारतीय नस्ल के थे। पुरातत्ववेत्ता क्रोम तो इससे भी एक कदम आगे इस बात की पुष्टि करते हैं।

कंबोडिया में पहले वैष्णो धर्म पहुंचा था। पीछे वौद्ध धर्म गया । वहां दोनों का अच्छा समन्वय दिखाई देता है। भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार है। साहित्य में रामायण, महाभारत आदि भारतीय पुराणौ की कथाओं का बाहुल्य है। पूजा-उपासना, कर्मकांड एवं प्रथा- परंपराएं भारत की तरह ही हैं।

सूर्य बर्मन ने लक्ष्य होम तथा कोटी होम किए थे और पुरोहितों को विपुल दक्षिण दी थी।
फ्रांसीसी इतिहासकार कोड बार्थ तथा बरगन के कंबोज तथा चंपा के संस्कृत लेख के अनुसार जो निष्कर्ष निकलते हैं वह कहते हैं कि – “कंबोडिया प्राचीन काल में एक प्रकार से छोटे भारत की स्थिति में था। वहां भारतीय धर्म और संस्कृति का ही पूरी तरह आधिपत्य था।”

अत: आज का कंबोडिया नाम वस्तुतः मूल ‘कंबुज’ का पाश्चात्य रूप अवश्य है किंतु संस्कृति व परम्परा की दृस्टि से भारत ही है ।
संसार के जितने भी महान कार्य ,विलक्षण,अद्भुत ,अद्वितीय ,अनुपम ,अप्रतिम, अकल्प्नीय चाहे वह भूतकाल या वर्तमान के ही क्यों ना हो ; वह हिंदुओं ने ही किए हैं। हिंदू से बाहर कहीं दुनिया में कुछ और है भी क्या? यही इतिहास और वर्तमान का अद्भुत सनातन सत्य है, जिसे अब दुनिया पहचान रही है।

क्रमशः ….

– डॉ. नितिन सहारिया