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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -1

“सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा:” वेदों की यह उक्ति बताती है कि हमारी भारतीय संस्कृति- हिंदू संस्कृति ,देव संस्कृति ही सर्वप्रथम विश्व की वह संस्कृति थी जो संपूर्ण विश्व में फैल गई। भारत जिसमें कभी तैंतीष कोटि देवता निवास करते थे, जिसे कभी ‘ स्वर्गादपि गरीयसी ‘ कहा जाता था।

एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देश है। जिस के अनुदानों से ‘विश्व वसुधा’ का चप्पा -चप्पा लाभान्वित हुआ था। भारत ने अनादिकाल से समस्त संसार का मार्गदर्शन किया है। ज्ञान -विज्ञान- दर्शन की समस्त धाराओं का उदय, अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ। पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा, यह सारे विश्व में यहां से फैल गया। ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष जिसकी परिधि कभी सारी विश्व वसुधा थी। पुरातन भारत का ज्ञान-विज्ञान आज के वैज्ञानिक युग की उपलब्धियों को भी चुनौती देने में सक्षम है।

भारत: सोने की चिड़िया - Photos | Facebook

हमारी वैदिक संस्कृति में वह सब है जो आज का अणु विज्ञान हमें बताता है। इस धरोहर को भले ही हमने भुला दिया हो किंतु वह हमें सतत याद दिलाती रहती है,वेदों की अपनी विज्ञान सम्मत सूत्र शैली के माध्यम से।

हमारी हिंदू संस्कृति का विस्तार प्राचीन काल में कहां- कहां तक हुआ था अमेरिका,लातिनी अमेरिका ,मैक्सको ,जर्मनी जिसे ‘यूरोप का आर्यावर्त’ कहा जाता है । मिस्र से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक, कंपूचिया, लाओस, चीन ,जापान आदि देशों में स्थान- स्थान पर ऐसे अवशेष /साक्ष्य विद्यमान हैं। जो बताते हैं कि आदिकाल में वहां भारतीय संस्कृति का ही साम्राज्य था। यह विस्तार मात्र सांस्कृतिक (धार्मिक) ही नहीं था

अपितु, विश्व राष्ट्र की अर्थव्यवस्था, शासन संचालन व्यवस्था, कला ,उद्योग ,शिल्प इत्यादि में भारतीय हिंदू संस्कृति का योगदान रहा है। मारीशस,ऑस्ट्रेलिया, फीजी व अन्य प्रशांत महासागर के छोटे-छोटे दीप, रूस, कोरिया, मंगोलिया ,इंडोनेशिया श्यामदेश आदि के विस्तृत उद्दर्नो से हमें भारतीय संस्कृति के ‘विश्व संस्कृति’ होने की एक झलक मिलती है।

भारतीय सांस्कृतिक धरोहर इतनी समृद्धि थी की उसने एक समय समस्त विश्व को अपने रंग में रंग लिया था। इसका पता विभिन्न देशों की संस्कृतियों, वास्तुकला एवं पुरातन अवशेषों के अध्ययन से सहज ही मिल जाता है। अमेरिका भी भारतीय संस्कृति से अछूता नहीं था। इसकी जानकारी इतिहासकारों की विभिन्न रचनाओं से मिलती है। कुछ पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार दुनिया के किसी भी भाग से अमेरिका जाने के लिए रास्ता ना होने के कारण अमेरिका निवासी एशिया आदि से नहीं गए वरन उन्होंने स्वयं अपना विकास किया है। किंतु वर्तमान में भौगोलिक, भूगर्भीय पुरातत्व और प्राणीशास्त्र संबंधी खोज इन तर्कों का खंडन करती हैं। हम ‘हार्म्सवर्थ हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड’ नामक संकलन में लिखा है कि- उत्तरी अटलांटिक समुद्री हमेशा से जलमग्न नहीं था वहां की भूमि पुरातन विश्व से मिली थी और अमेरिका में मनुष्य ने पुरानी दुनिया से ही प्रवेश किया।

कोलंबिया, इक्वेडर, पेरू ,बोलेविया, चिली आदि में जो प्रमाण बिखरे पड़े हैं, उससे पता चलता है कि किसी समय वहां की स्थिति सुविकसित देशों जैसी थी। किंतु यह सभ्यता कहां से पहुंची इसका उत्तर उनके धार्मिक विश्वासों ,उनके चेहरे की बनावट ,उनके कुशल शिल्प और निर्माणों ,उनके पूर्व कालिक गमनागमनो से ही मिल जाता है।

अमेरिका की ‘जॉन होपकिंस’ नामक पत्रिका तथा ‘हार्म्सवर्थ हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड’ एवं उन पर समीक्षा लिखने वाले भारतीय विद्वान श्री उमेशचंद्र ने अनेक प्रमाण यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किए हैं कि- प्राचीन भारत और प्राचीन अमेरिका में घनिष्ठ संबंध था। व्यापारी और धर्म उपदेशक लंबी जल यात्राएं करके आते-जाते थे।

इंद्र ,गणेश, अग्नि, शिव, सूर्य एवं अन्य देवी -देवता भारत की तरह वहां भी पूजे जाते थे। उक्त इतिहासकार बताते हैं कि उस समय अमेरिका एक प्रकार से भारतवर्ष का सांस्कृतिक उपनिवेश था। मेकिस्को में अब भी ‘ राम सितवा’ त्यौहार भारी उत्साह के साथ मनाया जाता है, जिसमें रामलीला की झांकियां निकाली जाती हैं।

भारत की तरह स्मृति रूप में समाधि ,स्तूप एवं स्मारक वहां भी बनते थे, जिन्हें ‘ टिकल ‘ कहा जाता था। इसके अतिरिक्त उनके यहां वैवस्वत मनु की ‘ जल प्लावन’ Deluge/ Flooding की कथा अब भी प्रख्यात है तथा जनश्रुति का एक अंग है।

मेक्सिको के प्राचीन मंदिर ‘कोपन’ की दीवारों पर हाथी पर सवार महावत के भित्ति चित्र ‘निकल’ में मुंडधारी शिव की प्रतिमा,अनंत वासुकी तकक्षक सर्प, देवताओं की प्रतिमाएं आदि भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला की अमिट छाप हैं।

‘क्यूरिग्वा’ में मिली मिट्टी की प्राचीन प्रतिमाओं में भारतीय शिल्प देखा जा सकता है। टोलो (मेक्सिको) में विशालकाय पाषाण स्तंभों पर भारतीय देवताओं की प्रतिमाएं बड़े कलात्मक ढंग से खुदी हुई हैं। कोयून (होंडुरास मध्य अमेरिका) में दैत्य की मूर्ति भी उसी आकृति में है, जिस प्रकार असुरों का हमारे यहां भारतवर्ष में वर्णन पाया जाता है।

‘कपूरगो’ (ग्वाटेमाला) में उपलब्ध सिला प्रतिमाओं में स्पष्ट: भारतीय शिल्प छ्लकता देखा जा सकता है। जिस प्रकार अनेक स्तंभों वाले मंदिर भारत में जहां-तहां दिखाई पडते हैं, उसी प्रकार ‘यूक्टास’ के ध्वंसावशेषो ‘थाउजेंड कॉलम्स’ (हजार स्तंभों) को देखा जा सकता है। बिना चूने-गारे की सहायता से केवल पत्थरों से बने भवन भारत की विशिष्ट वास्तुकला है ऐसा ही एक तक्षशिला जैसा ध्वस्त खंडहर चाको (दक्षिण अमेरिका) में विद्यमान हैं।

सन 1927 में ‘तिआहुआन’ (पेरू दक्षिण अमेरिका) में पुरातत्व विभाग ने जो खुदाई कराई है, उसमें एक ऐसा शिव त्रिशूल मिला है, जिसकी ऊंचाई 850 फीट है, इसी में 20 टन भारी और 24 फीट लंबा एक शिवलिंग भी है, जिस पर ग्रह नक्षत्रों की अंतरिक्ष की स्थितियां अंकित हैं। एक ही पत्थर से तराशा हुआ 10 टन भारी सूर्य मंदिर, तीन कतारों में उपलब्ध 48 प्रतिमाएं भी उस काल की भारतीय कला एवं संस्कृति की साक्षी देती हैं।

भारत के प्राचीनतम साहित्य में अमेरिका का उल्लेख भी है। ऐतरेय ब्राह्मण के इंद्र महाभिशेक में अपाच्यों के राजाओं का वर्णन है। और कहा गया है कि यह पश्चिम दिशा में हैं। भूगोल के अनुसार भी मैक्सको राष्ट्र में अपाचे नामक मूलनिवासी अब तक रहते हैं। महाभारत में लिखा है कि उद्दालक मुनि पाताल में ही निवास करते थे ।

‘होम्सवर्थ हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड’ में लिखा है कि पाताल अमेरिका को ही कहा जाता था। ‘बली’ नामक राजा भी पाताल देश में ही निवास करता था। पाताल देश में राजा बलि की राजधानी दक्षिण अमेरिका में अभी भी ‘बोलीविया’ नाम से प्रसिद्ध है। अर्जुन की ‘उलूपी’ नामक एक पत्नी भी इसी मूल की थी। और वेदव्यास भी वहां कई बार गए थे इसका उल्लेख स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में भी किया है।

भारतीय पौराणिक और लेखों और मेक्सिको में प्रचलित ‘किजिक्स’ गाथाओं में आश्चर्यजनक साम्य है। विष्णु पुराण में पाताल लोक का और भी अधिक विस्तार पूर्वक वर्णन है। वह अमेरिका की प्राचीन स्थिति पर वैसा ही प्रकाश डालता है जैसा कि पुरातत्ववेत्ता बताते हैं।

विद्वान लेखक ‘चेसली बैट्री’ ‘अमेरिका बिफोर कोलंबस ‘ में लिखते हैं कि- ‘मैक्सको’ नाम ‘माया + कसको’ से पड़ा है। जिसका अर्थ वहां के प्राचीन आदिवासियों की भाषा में ‘मय’ का अनुयायी है। लैली मिचेल’ द्वारा लिखित ‘कान्केस्ट आफ दी माया’ ग्रंथ में मेक्सिको में उपलब्ध ऐसे अनेक प्रमाणों का वर्णन है, जिनसे पुरातन भारत और मैक्सिको की सांस्कृतिक घनिष्ठता सहज ही सिद्ध होती है। वाल्मीकि रामायण में भी माया सभ्यता के अनुयाई भारतीयों की चर्चा लगभग उन्ही शब्दों में की गई है।

भारतीयता के प्रभाव की साक्षी देने वाला दक्षिण अमेरिकी राष्ट्र है ‘पेरू’। ‘पेरू’ का शब्दार्थ संस्कृत में ‘सूर्य का देश’ या ‘सूर्य पुत्रों का देश’ है। वस्तुतः पेरु नाम रखा ही गया इस कारण की जब भारत में सूर्य अस्त हो जाता था तब वहां दिन का समय होता था । पूर्व में भारत व पश्चिम में पेरू एक दूसरे से इतनी दूर होने के बावजूद सांस्कृतिक रूप से एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े थे । रामायण में ‘मंदोदरी’ रावण की पत्नी भी अमेरिका ‘मय’ दानव की पुत्री थी। एवं श्रीलंका तब भारत का ही अंग था। श्रीरामचरितमानस में वर्णन आता है कि –
“मय तनया सुंदर कर तारी”
और भी अन्य प्रमाण भारत अमेरिका की सांस्कृतिक निकटता के मौजूद हैं । जो यह सिद्ध करते हैं कि प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति विश्व के कोने-कोने, हर क्षेत्र में विद्यमान थी एवं संपूर्ण विश्व इससे ओत-प्रोत था।

“सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा:” यह उक्ति हमें बताती है कि हमारी भारतीय हिंदू सनातन संस्कृति, देव संस्कृति ही सर्वप्रथम वह संस्कृति थी जो संपूर्ण विश्व में फैल गई । अपनी संस्कृति पर गौरव जिन्हे होना चाहिए वहीं भारतीय यदि इस तथ्य से विमुख होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर उन्मुख होने लगे तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा । जरा विचार कीजिए जिस देश का अतीत इतना गौरवमय रहा हो, जिसकी इतनी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पुण्य परंपराएं रही हो, उसे अपने पूर्वजों को ना भुला कर अपना चिंतन और कर्तव्य वैसा ही बनाकर देबोपम स्तर का जीवन जीना चाहिए।

वस्तुतः सांस्कृतिक मूल्य ही किसी राष्ट्र की प्रगति व अवगति का आधार बनते हैं। जब इसकी अवमानना, उपेक्षा होती है। तो राष्ट्र पतन की ओर जाता है। अतः प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि अपनी प्राचीन पुण्य परंपराओं, सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर जीवन जीते हुए व गर्व करते हुए एक अच्छे व सच्चे भारतवासी ‘भूसुर’ बनें। भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाने में अपना योगदान दें। यही आज का युगधर्म/ कर्तव्य भी है ।

क्रमशः…

लेख़क – डॉ. नितिन सहारिया
संपर्क सूत्र – 8720857296