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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति – 11

(भारतीय तत्वज्ञान के वर्चस्व की गौरव-गाथा)

भारतीय संस्कृति के आराधक, जर्मनी के विद्वान मैक्समूलर ने सन 1858 की एक परिचर्चा में महारानी विक्टोरिया से कहा था- “यदि मुझसे पूछा जाए की किस देश में मानव मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके सही अर्थों में सदुपयोग किया है, जीवन के गंभीरतम प्रश्नों पर गहराई से विचार किया और समाधान ढूंढ निकाले, तो मैं भारत की ओर संकेत करूंगा, जिसकी ओर प्लेटो और कांट जैसे दार्शनिकों के दर्शन का अध्ययन करने वालों का ध्यान भी आकृष्ट होना चाहिए।”

“यदि कोई पूछे कि किस साहित्य का आश्रय लेकर सेमेटिक यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते हुए यूरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे, जो इहलोक से ही संबद्ध ना हो, अपितु शाश्वत एवं दिव्य हो, तो फिर मैं भारतवर्ष की ओर इशारा करूंगा।”

आठवीं शताब्दी में ‘अलहजीज’ नामक मुस्लिम विद्वान भारत परिभ्रमण के लिए आया था। अपने साहित्य संग्रह में उसने लिखा है – “भारत रहस्यमय विधाओं एवं भौतिक विधाओं का आविष्कारक है।

अपनी ज्ञान-पिपासा को परीतृप्त करने और सदियों पूर्व आये प्रसिद्ध विद्वान विलिंगडन ने लिखा है कि- “समस्त भारतीय चाहे वह प्रसादों में रहने वाले राजकुमार हों या झोपड़ी में रहने वाले गरीब-संसार के वे सर्वोत्तम शील संपन्न लोग हैं, मानो यह उनका जातिगत धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम उदाहरण दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।”

सैमुअल जॉनसन लिखते हैं- “हिंदू लोग धार्मिक, प्रसन्नचित, न्यायप्रिय, सत्यभाषी, दयालु , कृतज्ञ ईश्वरभक्त तथा भावना शील होते हैं। ये विशेषताएं उन्हें सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिली हैं।”
पेरिस विश्वविद्यालय के प्रो. लुइ टिनाऊ ने अपनी एक पुस्तक मे उल्लेख किया है- “संसार के देशों में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी वोद्दिक, नैतिक और आध्यात्मिक संपत्ति के कारण रहा है। अपनी उन विशेषताओं को यदि भारतीय पुन: जागृत कर लें, तो आज भी विश्व का मार्गदर्शन कर सकने में सक्षम हो सकता है। जीने की तथा परस्पर मानवी संबंधों की इतनी सुंदर सर्वांग पूर्ण आचार संहिता विश्व के किसी भी धर्म अथवा संस्कृति में नहीं जो कि भारतीय संस्कृति में है।”

भारतीय संस्कृति के प्रति विदेशी मनीषियों, विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं रही है। ज्ञान एवं विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियां आज संसार में दिखाई पड़ रही हैं। उनमें बहुत कुछ योगदान भारत का रहा है। समय-समय पर यह देश विश्व वसुधा को अपनी भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान की धाराओं से अभीसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण आज भी इतिहासकार देते हैं।

उल्लेख मिलता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया ने भारत से ही अपनी संस्कृति ली। ईसा से पांचवी शताब्दी पूर्व भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और पास के अन्य दीपों में जाकर बस गए, वहां के निवासियों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित कर लिए।

चौथी शताब्दी के पूर्व में अपनी विशेषता के कारण संस्कृति उन देशों की राजभाषा बन चुकी थी। राज्यों की सामूहिक शक्ति जावा के बोरोबदर स्तूप और कंबोडिया के शिव मंदिर में सन्निहित थी। राजतंत्र इन धर्म संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपो, मंदिरों के ध्वंस अवशेष अनेकों स्थानों पर बिखरे पड़े हैं।

भारतीय तत्वज्ञान की स्पष्ट छाप पश्चिमी विचारको पर भी दिखाई पड़ती है। गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित था। कितने ही पश्चिमी विद्वानों ने तो भारतीय साहित्य में समाहित विचारों से प्रेरणा लेकर अनेकों कृतियां रची, जो अपने समय में अनुपम कहलायी, ‘गेटे’ ने सर विलियम जॉन्स ‘शकुंतला’ नाटक के अनुवाद से अपने ड्रामा ‘फास्ट’ की भूमिका के लिए आधार प्राप्त किया। दार्शनिक ‘फिकटे’ तथा हैंगल वेदांत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद (मानिज्म) पर रचनाएं प्रस्तुत कर सके। अमेरिकी विचारक ‘थोरो’ तथा ‘एमरसन’ ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार अपनी शैली में किया।

गणित विधा का मूल अविष्कारक भारत ही है। शून्य का अंक शतोतर गणना तथा संख्याओं के लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंको को भिन्न-भिन्न चिन्हों द्वारा प्रदर्शित करने की रीति थी। इससे बड़ी संख्याओं के लिखने में बड़ी कठिनाई होती थी। उदाहरण फिनीशियन रीति से 9 को 9 लंबी लकीरों में लिखने की परंपरा थी।

यजुर्वेद संहिता अध्याय 17 के मंत्र – 2 में 1000000000000 (दस खरव) तक की संख्या का उल्लेख एक पर 11 शुन्य के रूप में किया गया है। जबकि यूनान की बड़ी से बड़ी संख्या का नाम ‘मिरियड’ था तथा रोम की ‘मिल्ली’, यह दोनों ही क्रमश 10 हज़ार तथा एक हज़ार की अधिकतम संख्या को दर्शाते थे। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल, बीजगणित, वर्ग समीकरण तथा घनमूल जैसी गणितीय विधाओं का आविष्कार किया, जो आज विश्व भर में प्रचलित है।

अरब निवासी अंको को हिंद्सा कहते थे, क्योंकि उन्होंने अंकविधा भारत से अपनाई। इनसे पाश्चात्य विद्वानों ने सीख कर ‘अरेबिक नोटेशन’ नाम रखा था। अनुमान है कि भारत की अंक प्रणाली का यूरोप में प्रचार 15 वीं शताब्दी में हुआ तथा 17 वी सदी तक समस्त यूरोप में प्रयोग होने लगा। पाई की कल्पना तथा मान 3.1416 की खोज का श्रेय आर्यभट्ट को है।

गन्वेषक मोहम्मद बिनमूसा ने 925 ई पाई का मान देते हुए लिखा है कि यह मान हिंदू ज्योतिर्विदो का दिया हुआ है। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह कल्पना की कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विधा इस देश की ही देन है। जर्मनी के कितने ही विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियां सुरक्षित रखी हुई हैं तथा उनमें वर्णित कितनी ही गुह्तम विधाओं पर वहां के वैज्ञानिक अन्वेषणरत हैं।

‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना से प्रेरित होकर ‘बहुजन हिताय’ की दृष्टि से यहां के निवासी समय-समय पर देश की सीमाओं को लांघते हुए अपने ज्ञान-विज्ञान की संपत्ति को उन्मुक्त हाथों से बांटने के लिए दूसरे देशों में भी पहुंचते रहे हैं। तब आज जैसे यातायात के सुविकसित साधन भी ना थे।

दुर्गम पहाड़ों, नदियों, रेगिस्तान ,बीहड़ों की कष्ट साध्य यात्राएं उनको पावन मनोरथ से डिगा नहीं पाती थीं। वृहत्तर भारत की नीव उनके इन दुसाहसी प्रयत्नो से ही पड़ी। कुमारजीव, कश्यप, मतंग, बुद्धयश तथा गुणवर्मन आदि बौद्ध भिक्षुओं ने प्राणों को हथेली पर रखकर पैदल चीन की यात्राएं की। उनके भाषणों, उपदेशों से वहां के मनीषी इतने अधिक प्रभावित हुए की उस भूमि की चरणरज मस्तिक पर लगाने चल पड़े। जिसने अमृततुल्य तत्वज्ञान को जन्म दिया।

फाहाँन, हैंनसॉन्ग, इत्सिंग आदि चीनी विद्वान भारत आए तथा वर्षों तक अपनी ज्ञान-पिपासा शांत करते रहे। जो मिला उसे अपने देशवासियों में बांटने वापस लौटे। मंगोलिया, साइबेरिया, कोरिया आदि में भी भारतीय विद्वानों के पहुंचने तथा संस्कृति के प्रचार का उल्लेख मिलता है।

कलिंग युद्ध के बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ प्रायश्चित के लिए उसने बौद्ध पंथ में दीक्षित होकर धर्म प्रचार के लिए न केवल स्वयं कार्य करना आरंभ किया, वरन अपने पुत्र-पुत्री को भी वैसे ही अनुकरण के लिए प्रेरित किया। श्रीलंका में उसने अपने पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा को प्रचारार्थ भेजा। गया से बोधि वृक्ष की एक शाखा लेकर उन्होंने लंका में आरोपित की। बौद्ध पंथ के धार्मिक चिन्ह, ग्रंथों एवं प्रसादो के रूप में जो लंका में दिखाई पड़ते हैं, वे महेंद्र संघमित्रा के प्रयासों के ही पुण्य प्रतिफल हैं। बर्मा (म्यांमार) का पुरातन नाम ब्रह्मदेश है। जिस पर भारतीय प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। बौद्ध भिक्षु यहां भी पहुंचे।

कंबोडिया, तीसरी से सातवीं शताब्दी तक हिंदू गणराज्य था। वहां के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ही एक ब्राह्मण ऋषि कोडिंय के नाम पर पड़ा, जिन्ने यहां की एक नाग कन्या से विवाह किया और अपना राज्य स्थापित किया। उनके बाद जयवर्मन, यशोवर्मन, सूर्यवर्मन आदि राजा हुए। यहां के प्रख्यात मंदिर ‘अंगकोरवाट’ की दीवारों के पत्थरों पर रामायण के दृश्य खुदे हुए हैं। लाओस के कुछ मंदिरों में भी राम कथा के दृश्य देखे जा सकते हैं।

इंडोनेशिया यूं तो वर्तमान में मुस्लिम देश है, किंतु भारतीय संस्कृति की अमिट छाप इस पर आज भी है। ‘इंडोनेशिया’ यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘भारतदीप’ जावा, सुमात्रा, बोर्निओ आदि इसके दीप हैं। प्राचीन काल में भी सभी भारत के अंग रहे थे रक्त एवं संस्कृति दोनों की दृष्टि से वहां के निवासी भारतीयों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।

जावा के लोगों में विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा व्यास ऋषि वहां गए थे तथा बस्तियां बसाई थी। शैलेंद्र राजवंश द्वारा बोरोबुदुर जैसे मंदिर वहां बनवाए गए, जिसमें बुद्द की 432 मूर्तियां हैं। उन मूर्तियों पर गुप्त कला की भी स्पष्ट छाप है। मंदिर का बौद्ध स्तूप कलाकृति एवं सौंदर्य की दृष्टि से संसार भर में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। जावा के जोग, जकार्ता की रामलीला एवं नाटक संसार भर में प्रसिद्ध है। वे मूलतः राम-कथानक पर आधारित होते हैं। मंदिर की प्रस्तर भीतियों पर संपूर्ण रामकथा का चित्रण किया गया है।

सुमात्रा में हिंदू राज्य की स्थापना तथा भारतीय संस्कृति का विस्तार चौथी शताब्दी में हुआ। ‘पलेमवंग’ नामक स्थान कभी सुमात्रा की राजधानी था, जहां भारतीय धर्म संस्कृति एवं अध्यात्म विषयों का शिक्षण होता था। पाली एवं संस्कृत भाषा यहां पढ़ाई जाती थी। इंडोनेशिया के बाली द्वीप के विषय में चीनी कहते हैं कि- चौथी शताब्दी में कोडिंन्यवंशी भारतीय राजा ने हिंदू राज्य की स्थापना की थी। जो 10 वीं शताब्दी तक कायम रहा। बाद में वह हालैंड के अधीन आ गया।

बोर्नियो द्वीप सबसे बड़ा है। यहां हिंदू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गई थी। शिव, अगस्त्य, गणेश, ब्रह्मा ,स्कंद आदि ऋषियों एवं देवताओं की मूर्तियां यहां प्राप्त हुई तथा कितने ही पुरातन हिंदू मंदिर आज भी मौजूद हैं, जो है बताते हैं कि यह द्वीप भारतीय संस्कृति का गढ़ रहा है।

इतिहासकारों का मत है कि  ‘थाईलैंड’ का पुराना नाम ‘श्याम देश’ था। तीसरी शताब्दी में वह भारत का उपनिवेश बना तथा 12 वीं शताब्दी तक भारत के अधीन रहा। श्याम की सभ्यता भारतीय संस्कृति से पूरी तरह अनुप्राणित है। उसकी लिपि का उद्गम पाली भाषा से हुआ है, जो भारत की देन है। उनकी रीति-रिवाजों में भारतीय जैसा साम्य दिखाई पड़ता है। दशहरा जैसे पर्व धूमधाम से मनाया जाते हैं। ‘थाई’ जीवन में राम एवं रामायण के कथानक की प्रेरणाये गहराई तक जड़ें समाए हुई हैं। अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह वहां भी छुट्टियां रहती हैं। थाई रामायण का नाम ‘रामकियेन’ है। थाईलैंड में ‘अयोध्या’ और ‘लोषपुरी’ जैसी नगरियाँ हैं।

तिब्बती साहित्य पर बौद्ध पंथ का गहरा प्रभाव है। वहां के राजा सांगचन गंपो ने भारतीय लिपि के आधार पर तिब्बत की वर्णमाला का आविष्कार किया, नालंदा के आचार्य शांतरक्षित ने सन 747 में तिब्बत पहुंचकर ‘समये’ नामक पहला वौद्ध विहार बनवाया। तत्पश्चात कश्मीर के भिक्षुक पद्मसंभव के प्रयत्नों से वहां ‘महायान’ की तांत्रिक शाखा का प्रचार हुआ। लामाबाद की उत्पत्ति उसी से हुई।

ऐसे अगणित प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं, जो है बताते हैं कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान सागर से इस विश्व-वसुधा को अभिसिंचित करता रहा। उस स्वर्णिम इतिहास के साथ पतन पराभव के युग की भी एक कहानी है।

अपनी संस्कृति को भूलने/ उपेक्षा करने का ही दुष्परिणाम देशवासियों को हजारों वर्षों की यंत्रणा भरी पराधीनता के रूप में भुगतना पड़ा है। उत्थान पतन के इस चक्र के बावजूद भी भारत अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के बीज सुरक्षित रखे हुए हैं। उसके पास ऋषि प्रणीत पारसतुल्य अध्यात्म विधा की विरासत है, इसके संपर्क में आकर लोहे जैसे नगन्य व्यक्तित्व कुंदन जैसे बहुमूल्य खरे बन सकते हैं।

21 वी सदी के परमाणु युग में मानवीय सभ्यता को स्वयं के आविष्कारों से भस्मीभूत हो जाने का संकट आ खड़ा हुआ है। इस संकट बेला में विश्व की निगाहें आज भारत की ओर लगी हुई हैं। इस देश की समता, सुचिता, सहिष्णुता तथा ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की उदात्त भावना पर आधारित संस्कृति को सही रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रखर व्यक्तित्व उभरकर सामने आ सकें तो आसन्न उस विश्व- विभीषिका से मुक्ति मिल सकती है। तब सचमुच ही वह सपना साकार हो सकता है,

जो स्वामी विवेकानंद ने देखा था और कहा था- “एक दिन भारत अपनी आध्यात्मिक विशेषताओं के साथ उभरकर पुन: विश्व रंगमंच पर सामने आएगा, विश्व का मुकुटमणि बनेगा तथा हर क्षेत्र में संसार का मार्गदर्शन करने में सक्षम होगा।”

आज भारत वर्ष विस्वगुरु/वैस्विक शक्ति के पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है एवं ऐसा विस्वास है कि 2026 से वह शुभ मुहूर्त आने जा रहा है। यही इस्वरीय नियति भी है।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया
संपर्क सूत्र:- 8720857296