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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति- 12

(वृहत्तर भारत और उसकी सीमाएं)

प्राचीन भारत का भौगोलिक सीमांकन करना कठिन है ? क्योंकि उन दिनों शासन क्षेत्र का बहुत महत्व ना था। यातायात के साधन कम होने से राजा और प्रजा दोनों को ही बड़े राज्यों में कठिनाई पढ़ती थी ,इसलिए छोटे-छोटे गणतंत्र ही शासन का विस्तार उतना रखते थे, जितने में सुव्यवस्था का उत्तरदायित्व आसानी से निबाहा जा सके। चक्रवर्ती शासन सत्ता असीम होती थी। वह प्रांत-प्रदेशों की सीमा से आगे बढ़कर समस्त विश्व में राज्य की नीति एवं मर्यादाओं का नियंत्रण करती थी। कहीं भी अनीति का प्रवेश और उच्छ्ंखलता का शासन सत्ता में समावेश नहीं होने देती थी। इस प्रकार उन दिनों विश्व राज्य- संघ भी था, जिसे चक्रवर्ती सत्ता कहते थे। छोटे-छोटे गणतंत्र भी थे जो नीति और मर्यादा की दृष्टि से तो पराधीन थे वान्की अर्थ-व्यवस्था एवं शासन संचालन में स्वतंत्र थे।

राज की दृष्टि से देखा जाए तो आज जितना बड़ा भारत है उतने में ही सैकड़ों गणतंत्र थे, जो परस्पर सहयोग के आधार पर सर्वतोमुखी प्रगति के लिए मिलजुल कर बिना किसी विद्वेष ,विग्रह के लोक- व्यवस्था के लिए कार्य करते थे। उन दिनों राज्यतंत्र का नहीं लोकमानस पर धर्मतंत्र का शासन था। इसलिए देश की सीमा निर्धारित करते समय यह देखना पड़ता था कि कितना क्षेत्र किस सांस्कृतिक आलोक से प्रभावित और प्रकाशित हो रहा है। इस दृष्टि से भारत की सीमाएं लगभग विश्व सीमा जितनी थी क्योंकि यहां के तत्वदर्शी विज्ञ मनीषी अपने मस्तिष्क में किसी छोटे क्षेत्र या वर्ग का हित साधन करने की बात ना सोच कर समस्त विश्व की समृद्धि एवं प्रगति को ध्यान में रखकर अपने चिंतन एवं कर्तव्य का निर्धारण करते थे। “वसुधैव कुटुंबकम” की भावना उन्हें किसी क्षेत्र विशेष के हित साधन तक सीमित रहने नहीं दे सकती थी।

लोक शिक्षण एवं सांस्कृतिक विस्तार की दृष्टि से भारत ‘जगतगुरु’ था। शासन नियमन की दृष्टि से चक्रवर्ती दोनों को मिलाकर सोचा जाए तो यों कहना पड़ेगा कि राजतंत्र और धर्मतंत्र का लाभ समस्त विश्व को निरंतर पहुंचाते रहने के कारण भारत की भौगोलिक मर्यादाये समस्त भूमंडल में सुविस्तृत थी।

भारत का ह्रदय उत्तराखंड या आर्यावर्त कहा जा सकता है, पर उसका सुविकसित शरीर तो समस्त संसार ही रहा है। यहां के निवासी उन दिनों के यातायात साधनों के अनुसार जितने क्षेत्र में पहुंच सके और अपनी सेवा साधना से वहां प्रगति एवं समृद्धि के बीजारोपण कर सके उसे बिना संकोच भारत देश कहा जा सकता है। इस सीमा में यों आता तो समस्त संसार है, पर यदि विशिष्ट प्रभाव और विशिष्ट प्रयास को आधार मानकर सीमा निर्धारण किया जाए तो एशिया महाद्वीप का अधिकांश भूखंड भारत की भौगोलिक परंपराओं में आ जाता है।

इन दिनों लंका, नेपाल ,भूटान, सिक्किम, वर्मा, पाकिस्तान ,बांग्लादेश भारत से अलग कट गए हैं। यह सभी इसी बीसवीं शताब्दी तक अपने देश के अविच्छिन्न अंग रहे हैं । एक सौ वर्ष पहले का यदि भूगोल देखा जाए तो यह सभी देश भारत के साथ जुड़े हुए दिखाई देंगे। कुछ हीन दृष्टिकोण से उपरोक्त देशों का बिलगाव हुआ है।

इससे आगे के क्षेत्र में कुछ शताब्दियों से पहले की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होता होगा कि भारत का विस्तार पूरे एशिया महाद्वीप में था। वृहत्तर भारत की भौगोलिक सीमाएं इस विशाल भूखंड के समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों तक सुविकसित होती चली गई थी। पूर्व एशिया में इंडोनेशिया ,इंडोचाइना ,मलेशिया के अंदर आने वाले समस्त देश और द्वीप भारत के अंग थे।

मध्य एशिया में चीन ,तुर्किस्तान, रूस ,जापान, कोरिया ,मंगोलिया आदि पर पूरी तरह भारत का वर्चस्व था । पश्चिम एशिया में ईरान ,इराक ,अरब ,अफगानिस्तान जैसे वे देश जो इन दिनों इस्लाम धर्म के केंद्र हैं ,उन दिनों भारत की सांस्कृतिक सीमा के अंतर्गत ही आते थे, उन दिनों की भौगोलिक सीमाओं का निर्धारण किया जाए तो पूर्व एशिया, मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के तीनों क्षेत्रों को मिलाकर प्रायः पूरा ‘एशिया महाद्वीप ‘ वृहत्तर भारत की परिधि में आता था। निरंतर का सघन संपर्क और प्रखर आदान-प्रदान संबंध सूत्रों को पूरी तरह सुदृढ़ बनाए हुए था।

महाभारत युद्ध में एकत्रित राजाओं और उनकी सेनाओं का वर्णन पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि प्रायः समस्त एशिया के गणतंत्र उस विश्वयुद्ध में सम्मिलित थे। इसका तात्पर्य ही निकलता है कि वे सभी गणतंत्र विशाल भारत की, महाभारत की सीमा में आते थे, जो इस महायुद्ध में सम्मिलित हुए थे अन्यथा किसी को दूसरे की आग में कूदने की क्या आवश्यकता पड़ती ?

महाभारत वस्तुतः एक गृहयुद्ध ही था, जिसमें वृहत्तर भारत के सभी क्षेत्र प्रदेशों को सम्मिलित होना पड़ा था । यों यह प्रभाव क्षेत्र यूरोप,अफ्रीका आदि समीपवर्ती महाद्वीपों को भी छूता था और उसकी कुछ किरण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया खंडों तक पहुंचती थी किंतु सघन संबंधों की कसौटी को ही प्रधानता दी जाए तो भी समस्त “एशिया महाद्वीप’ तो ‘वृहत्तर भारत’ के अंतर्गत आता ही है ।

यह नहीं समझना चाहिए कि विश्व निर्माण अभियान पर निकले हुए भारतीय केवल धर्म प्रचार ही करते थे। यों यह भी एक महत्वपूर्ण कार्य था,पर लक्ष्य इतने तक ही सीमित ना था। व्यवसाय ,शिक्षा, चिकित्सा, सुशासन आदि अनेक उपलब्धियों से सुदूर देशों को लाभान्वित करना हमारे पूर्वजों का प्रयोजन था। अस्तु न केवल धर्म प्रचारक वरन सभी विशेषताओं के विशेषज्ञ अपनी-अपनी क्षमता का अनुदान विश्व नागरिकों को प्रदान करने के लिए उत्साह और साहस पूर्वक अपनी यात्रा आरंभ करते थे। उन दिनों नौकायन और दुर्गम पैदल थल- यात्रा ही केवल मात्र साधन इन यात्राओं के थे।

घोड़े ,ऊंट, हाथी आदि भी कभी-कभी काम आते थे, तो भी पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले वाहनों के उपयुक्त सड़कें प्रायः नहीं थी। इन परिस्थितियों में अधिक सरल उपाय जलयात्रा का ही रह जाता था। विश्व परिवार के साथ संपर्क बनाने के लिए प्राचीन काल में भारत ने अपने जलयान अधिकाधिक सुविकसित किए थे। जल- मार्गों की जानकारी, नौकायन विज्ञान को सु विकसित करने के लिए घोर प्रयत्न किया था। भारतीय समुद्र तटों पर अच्छे बंदरगाह थे। अन्य देशों में भी उन्हें सुविधाजनक बंदरगाह बनाने पड़े।

केरल, चोल और पांडय नामक दक्षिण भारत के राज्यों का व्यापार ग्रीस, रोम और चीन के साथ होता था। सीरिया के इतिहास से विदित होता है कि उन लोगों ने युद्ध में भारतीय हाथी प्रयुक्त किए थे और अप्रत्याशित सफलताएं पाई थी। मिस्र के पिरामिडों में दिवंगत राजाओं के मृत शरीर उपलब्ध हुए वे भारत के बने कपड़ों में लिपटे पाए गए। चंद्रगुप्त मौर्य की जलसेना बहुत विकसित और विस्तृत थी। इसका विवरण चाणक्य कृत- ‘अर्थशास्त्र’ में दिया गया है। प्रसिद्ध यात्री ‘मेगस्थनीज’ ने भी अपनी यात्रा विवरण में भारत की समुन्नत जल शक्ति का उल्लेख किया है।

सुदूर पूर्व के देश किसी समय भारत के लिए घर आंगन जैसे बन गए थे। बौद्ध ग्रंथ ‘महाजातक’ में भारतीय कीर्ति वर्मा और अनाम यात्राओं के वर्णन हैं। इतिहासकार ‘पैरिप्लस’ के अनुसार, मछलीपट्टनम बंदरगाह से व्यापारी जलयान पूर्वी दीप समूह के लिए बहुधा आया- जाया करते थे। ‘सुसोन्दिजातक’ के अनुसार भड़ौच (गुजरात) से भी जल यात्रियों के पूर्वी द्वीप समूहों के लिए जाने का वर्णन है। जावा के प्रचलित इतिहास में बताया गया है कि सौराष्ट्र और कलिंग के लोग वहां जाकर बसे थे और उस देश को समुन्नत बनाया था।

इतिहासविद ‘पोकरू’ ने अपनी पुस्तक – “इंडिया इन ग्रीस” में लिखा है कि- “ईसा से 400 वर्ष पूर्व भारतीय दार्शनिक उस देश में धर्म शिक्षा देने पहुंचे थे। मगध और सिंधु तट निवासी क्षत्रियों ने यूनान में व्यवस्थित राज सत्ता की स्थापना की थी।”

गार्डन चाइल्ड की “न्यू लाइट ऑन द मोस्ट ऐन्शियेंट ईस्ट” के अनुसार – “यूनानी सभ्यता का मूल स्रोत भारतीय सभ्यता है।’ सर जॉन मार्शल लियोनार्ड वूली’ ने जो खोजें की हैं – “उनसे प्राचीन यूनान में विवाह संस्कार अग्नि की परिक्रमा करते हुए होते थे तथा मुर्दे जलाए जाते थे।”

प्राचीन काल में भारत का विस्तार कितना व्यापक था और उसके प्रभाव क्षेत्र में किस सीमा तक प्रायः ‘समस्त एशिया’ आ चुका था, उसकी अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें निम्न ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए-

01 फणींद्रनाथ- ‘इंडियन टीचर्स ऑफ चाइना’ 02 राहुल सांकृत्यायन – ‘जापान’ 03 स्टेन- ‘एन्शियंट खोतान’ 04 वी. ए. स्मिथ – ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ 05 रामचंद्र वर्मा- ‘अरब और भारत के संबंध’ 06 ऑनेस्टी -‘ हिस्ट्री ऑफ़ जावानीज बुद्धिस्म’ 07 बुद्धिस्ट रिकॉर्ड ऑफ दी वेस्टर्न वर्ल्ड। 08 बाडेल्ल – ‘लामाइज्म ’09 स्टेन-‘इनर र्मोस्ट एशिया’ 10 जनार्दन झा-‘ बौद्धकालीन भारत’ 11 जगमोहन वर्मा – ‘फाहियान’।

कोलकाता की “दी ग्रेटर इंडिया सोसाइटी” ने “प्रोग्रेस आफ ग्रेटर इंडिया रिसर्च” योजना के अंतर्गत 1917 से 1942 की अवधि में अफगानिस्तान, सेंट्रल एशिया, तिब्बत, मंगोलिया, मंचूरिया, वर्मा ,श्याम ,कंबोडिया, चंबा, जावा, बाली ,बोर्निओ ,सेलवेस, सुमात्रा, मलाया ,सीलोन आदि पर श्री यू. एन. घोषाल के द्वारा किए गए शोध कार्य को प्रकाशित किया था।

इस प्रकार का प्रमाणिक ऐतिहासिक साहित्य पढ़ने से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत किसी भौगोलिक सीमा की परिधि में अवरूद्ध नहीं था । वरन उसका कार्यक्षेत्र समस्त विश्व था। वह अपनी ही तरह संसार को सुखी और समुन्नत बनाने के महान मिशन में निरत जीवन व्यतीत करते थे।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया
संपर्क सूत्र:- 8720857296