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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति- 13

(यूरोप का आर्यावर्त- जर्मनी)

जर्मन वासियों की मान्यता है कि वह आर्य रक्त के विशुद्ध उत्तराधिकारी हैं। प्राचीन काल में हिमालय की उपत्यकाओं में आर्य वंश विकसित हुआ। वहां से वे लोग भारत की ओर गए। भू-मंडल के अधिकाधिक क्षेत्र की सेवा-साधना करने की महत्वाकांक्षाओं ने उन्हें भारत से मध्य एशिया के मार्ग से होकर यूरोप महाद्वीप की ओर गतिशील होने की प्रेरणा दी। उन दिनो यूरोप का जितना क्षेत्र यातायात की संभव सीमाओं में आ सका, वन्हा वे गए और बसे।

चूंकि अन्यान्य क्षेत्रों में स्वल्प संख्या में पहुंचे थे। इसलिए वहां के आदिवासियों के साथ उनका रक्त सम्मिश्रण होता चला गया और ऐसी नस्ल बन गई जिसे विशुद्ध आर्य वंशी नहीं कह सकते।

द्वितीय महायुद्ध में पराजित जर्मनी के अधिनायक हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मीन कम्फ’ में इस तत्व को बहुत जोर-शोर से उभारा कि जर्मन लोग ही विशुद्ध आर्य रक्त के हैं। उसी देश में प्रागैतिहासिक काल में आर्य लोग समुचित संख्या में बसें और उन्होंने रक्त शुद्धि का विशेष रूप से ध्यान रखा। वह परंपरा यथावत कायम है और जर्मन लोग नस्ल की दृष्टि से विशुद्ध आर्य वंशी कहलाने के अधिकारी हैं। भारतीयों के बारे में उसने आक्षेप लगाया है कि वे लोग अब विशुद्ध आर्य वंश के नहीं रहे। द्रविड़ आदि अनार्यो के साथ उनके रक्त का सम्मिश्रण हुआ है। अन्यान्य देशों से भी बहुत लोग वहां आते, बसते और वंश वृद्धि करते रहे हैं। इस प्रकार भारतीय रक्त की दृष्टि से वर्णशंकर स्तर के हो गए हैं। उनकी मुखाकृति और दूसरी विशेषताएं वैसी नहीं रही जैसी कि आर्य वंशियों की होनी चाहिए।
यों जर्मनी में इन दिनों ईसाई धर्म ही प्रचलित है, वहां के निवासी हिंदू धर्मानुयायी नहीं है, तो भी उन्हें आर्य संस्कृति (भारतीय) और उसके तत्व दर्शन पर भारी गर्व है। उसके संबंध में अधिकाधिक जानने की, सारगर्भित रहस्यों के उद्घाटन की और सर्वतोमुखी प्रगति के आधारभूत प्रकाश को अपनाने की इतनी तीव्र उत्कंठा है, जितनी कि हम भारतीयों में भी नहीं देखी जाती।

हिटलर ने नाजी पार्टी का प्रतीक चिन्ह ‘स्वास्तिक’ (卐) बनाया था। यही आर्य धर्म का आदि प्रतीक है। स्वास्तिक का ही रूप ओम ‘(ॐ)’ है। ‘ॐ ‘ओम का उपयोग प्रत्येक मंत्र के आरंभ में तथा अन्यत्र उपासना क्रर्मों में होता है। मांगलिक कार्यों एवं स्थानों में स्वास्तिक को चित्रित किया जाता है। भारत में सांप्रदायिक बिखराव आने से और भी प्रकार की सांकेतिक पूजाएं जल पडी हैं किंतु आर्य वंश के आदि प्रतीक स्वास्तिक को आधारभूत पाकर जर्मनी ने उसी को अपने सांस्कृतिक सिम्बल के रूप में अपनाया।

जर्मन विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि ‘जर्मन’ शब्द ‘शर्मन’ शब्द का अपभ्रंश है। भूतकाल में वहां भारतीय ब्राह्मण पहुंचे थे और उस देश का नामकरण करते हुए सांस्कृतिक मान्यताओं का सूत्रपात किया था।

हिटलर ने जर्मन जाति को आर्य रक्त की उत्तराधिकारी के रूप में राजनैतिक रंग देकर बहुत उभारा था, यह ठीक है, पर इससे पूर्व भी उस देश के विद्वान बहुत दिनों से भारतीय संस्कृति की ओर असाधारण रूप से आकर्षित रहे हैं। वे उसके संबंध में अधिकाधिक जानने के लिए घोर परिश्रम भी करते रहे हैं। कहते हैं कि उनका आकर्षण इसलिए भी अधिक था कि – वेद को ज्ञान के अतिरिक्त विज्ञान का भी भंडारा माना जाता रहा और यह समझा जाता रहा है कि यदि वेद भंडार के रहस्यमय वैज्ञानिक तथ्यों को जाना जा सके तो भौतिक प्रगति के अनेकों सारगर्भित सूत्र हाथ में आ सकते हैं। संभव है जर्मन मनीषियों ने ज्ञान के साथ विज्ञान का दुहरा लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से प्राचीन भारत के आर्य साहित्य की खोजबीन करने में अधिक उत्साह दिखाया हो।

जो हो यह निश्चित है कि जिस लगन, परिश्रम और मनोयोग के साथ पिछली शताब्दियों में जर्मन मनीषियों द्वारा आर्य- साहित्य की खोज की गई है वह अनौखी है। संसार भर में अन्यत्र कहीं से भी उतना उत्साह नहीं दिखाया गया । यहां तक कि भारत में भी उतनी अभिरुचि और तत्परता नहीं रही। संस्कृत के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में वेद का अनुवाद होने का श्रेय जर्मनी को ही मिलेगा। भारत में हिंदी भाषा में जो अनुवाद हुए हैं, उनमें से बहुतों में प्रायः जर्मन अनुवाद का सहारा लिया गया है।

‘वेदों की ज्ञान गरिमा’ और महत्ता से विज्ञ समाज को परिचित कराने, विस्तृत करने में जर्मन विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने असाधारण श्रम और मनोयोग नियोजित किया है। संस्कृत भाषा के इस पंडित ने ऋग्वेद का अनुवाद किया। वह सन 1894 में प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त उन्होंने वेद वान्ड्मय के महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रकाश में लाने के लिए अन्य कई गवेषणा भरे ग्रंथ लिखे हैं। “सीक्रेट बुक ऑफ द ईस्ट” पुस्तक माला के अंतर्गत इन का प्रकाशन हुआ है और वह शोध-निबंधों में प्राच्य विद्या के संबंध में बहुत ही प्रमाणित माने जाते हैं। वेद के इतिहास पर उनका ‘गोटेनगन’ ग्रंथ खोजपूर्ण है।

प्रो. मैक्समूलर के ग्रंथों का सार सन 1838 में डॉ. रोसेन ने प्रकाशित कराया। इसके बाद कितने ही जर्मन विद्वानों की रूचि वैदिक साहित्य की ओर बढ़ी और उन्होंने कितने ही महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे। हेंनरिक स्तमरा का सन 1879 में प्रकाशित “प्राचीन भारतीय जीवन और वैदिक युग” में आर्यों की आध्यात्मिक संस्कृति पठनीय है। हैरमंड ओल्डेन का ‘वेद-धर्म’ पुरातन भारत की आध्यात्मिक जीवनचर्या पर प्रकाश डालता है। यह ग्रंथ सन 1894 में छपा। सन 1891 अल्फ्रेड हिलीब्रेड का “भारतीय देवताओं की सामाजिक भूमिका” प्रकाशित हुआ । सन 1927 से लेकर 1929 तक जर्मनी की प्रकाशन संस्थाओं ने वेदों के कई संस्करण छापे।

“वेद और ब्राह्मणत्व” ग्रंथ जर्मन विद्वान के. एल. गोगुनेर ने लिखा। हैफमैन का “दी विजडम ऑफ दी वेंदाज” में जर्मन और भारतीय संस्कृति का तुलनात्मक और समन्वयात्मक विश्लेषण किया गया है। हैरमन लसमेल का “दी ओल्ड आर्यन ऑफ दी काइंड एंड देयर गॉड्स” ग्रंथ 1935 में प्रकाशित हुआ, उसमें वेद कालीन भारतीय गौरव-गरिमा पर प्रकाश डाला गया। हरमैन व्रथट के “दी हाउस ऑफ द अर्थ” ग्रंथ में वेद साहित्य के संबंध में प्रस्तुत होने वाली अनेक शंकाओं और जिज्ञासाओं का सारगर्भित समाधान है।

सन 1888 में प्राग के कार्ल विश्वविद्यालय ने ऋग्वेद छ: खंडों में प्रकाशित किया। इसे उच्चारण की दृष्टि से बहुत प्रमाणिक माना जाता है। 1913 में अल्फ्रेड हिलीब्रेड ने भी ऋग्वेद का एक अनुवाद प्रकाशित कराया। कैंब्रिज से सन 1923 में के. एल. गोल्ड़ेनर का ऋग्वेद का अनुवाद दो खंडों में प्रकाशित हुआ। ऋग्वेद के काल और इतिहास के संबंध में एक गवेषनात्म्क ‘माल्टट’ ग्रंथ ‘भ्रूष्ट’ ने प्रकाशित कराया है।

अथर्ववेद का जर्मन भाषा में अनुवाद फेड्ररिक ने किया जो सन 1923 में प्रकाशित हूआ। जूलियस ग्रिल का ‘आयुर्वेद’ का अनुवाद पूरा तो नहीं है पर जितना भी अंश छपा है, माननीय है। ग्रिल ने अथर्ववेद के कुछ अंशों का जर्मन भाषा में पद्दानुवाद किया है जो 1879 में प्रकाशित हुआ है।

संस्कृत विद्वान पाल ड़ेनसन ने “16 उपनिषद” नामक ग्रंथ प्रकाशित किया, पर इतने से ही उन्हें संतोष नहीं हुआ। पीछे उन्होंने ‘उपनिषदों की दार्शनिकता’ पर प्रकाश डालने वाला वृहद् ग्रंथ लिखा और 1915 में प्रकाशित किया। एक अन्य जर्मन हट्रेलर ने “उपनिषदों की ज्ञान गरिमा” नामक ग्रंथ लिखा और सन 1921 में प्रकाशित कराया। उन्हीं दिनों विद्वान हिल व्रोथ “भारतीय ब्राह्मण और उपनिषद” ग्रंथ प्रकाशित कराया। ब्रोथ का शोध कार्य जारी रहा और उन्होंने 1951 में और भी अधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ “दी ब्रेथ ऑफ़ द एटलेल” प्रकाशित कराया। इन ग्रंथों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करने से पता चलता है कि लेखकों को भारतीय धर्म एवं संस्कृति में कितनी गहरी दिलचस्पी थी और उन्होंने तत्तसंबंधी ज्ञान का उद्घाटन करने के लिए कितना अधिक श्रम किया।

ए. हिल्ले ब्रांडट लिखित “वेदिशे माइथोलॉजी” ग्रंथ वेद -साहित्य पर अच्छा प्रभाव डालता है। ओल्डन बर्ग, मैकडॉनेल, रिचर्ड पिंसेल, एल.अल्सफर्ड, हेनरी ल्यूडर्स ने वेद साहित्य में से एक से बढ़कर एक महत्वपूर्ण संदर्भ जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किए। प्रो. शेक्टेलोविम ने वैदिक सूत्रों की ऐसी सुंदर व्याख्या की जिसे पढ़कर पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान इस अद्भुत ज्ञान की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ।

मार्टिन हॉग, एच. ओर्टल, जूलियस एगलिंग ने ब्राह्मण ग्रंथों पर शोध कार्य किया। ‘शतपथ ब्राह्मण’ जैसा विशाल ग्रंथ जर्मन भाषा में “सैक्रेड बुक ऑफ द ईस्ट” सीरीज के अंतर्गत 4 सीरीज में छपा है। हर्मंन ओल्ड़ेन बर्ग ने “दी वेलटाशायुजु देर ब्राह्मण टेक्स्टे” में ब्राह्मण ग्रंथों पर अत्यंत गंभीर और विवेचना पूर्ण प्रकाश डाला है।

स्टैंन कोनो ने भी जर्मन भाषा में ब्राह्मण ग्रंथों पर शोध पूर्ण निबंध लिखे हैं। विल्हेम राड लिखित “स्टाट उस्ट गोसिल्ल शथ इन आल्टेन इंडियेन” ग्रंथ में ब्राह्मण ग्रंथों के दर्शन पर गंभीर प्रकाश डाला गया है। कार्ल होफमन का अधिकांश समय ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसंधान में ही बीता।
अतः इस प्रकार से जर्मनी युरोप का भारत ही है। भारतीय संस्कृति में ही सराबोर है। इन ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति प्राचीन काल में विश्व संस्कृति रही है और भारत ‘विश्वगुरु’ यानी ‘विस्व का मार्गदर्शक’ रहा है।

क्रमशः ….

– डॉ. नितिन सहारिया
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