विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति -14
(अफ्रीका महाद्वीप में भारतीय संस्कृति)
भारतीय पूर्वजों महामानव के समक्ष “समस्त धरती अपनी ,समस्त मानव परिवार- अपना परिवार” का उदात्त लक्ष्य था। इसलिए दुर्गमता से जूझते हुए उन्होंने पृथ्वी के सुदूर भूखंडों तक अपने क्रियाकलापों को व्यापक बनाने का संकल्प साकार बनाने के लिए अनवरत रूप से प्रयास किया। “कृन्वंतो विश्वमार्यम्” का लक्ष्य जिनके सामने हो वह सीमित परिधि में अवरुद्ध रह भी नहीं सकते।
एक समय था जब भारतीय धर्म- प्रचारक अफ्रीका महाद्वीप में भी पहुंचते थे और वहां की स्थिति के अनुरूप भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए मार्गदर्शन एवं सहयोग प्रदान किया था ।
प्राचीन काल की अफ्रीकी सभ्यता का विवरण वहां उपलब्ध जिन अवशेषों के आधार पर मिलता है, वे यही प्रमाणित करते हैं कि वहां पर सभ्यता का उद्भव भारतीयता के अनुगमन जैसा हुआ है। वहां की सभ्यताएं, प्रथाएं बहुत कुछ ऐसी हैं जिससे पता चलता है कि वे आरम्भ में भारतीय स्तर में ही रही होंगी और पीछे बदलते- बिगड़ते इस रूप में आ गयी, जिन्हें पिछड़ेपन की निशानी ही कहा जा सकता है।
प्रागैतिहासिक काल में भारत और अफ्रीका एक ही महाद्वीप में थे और आवागमन के लिए थल मार्ग सुगम था। भौगोलिक उथल-पुथल ने बीच में समुद्र खड़ा कर दिया और यातायात के लिए जलयानो की आवश्यकता पड़ने लगी।
पूर्वी अफ्रीका की भाषा ‘स्वाहिली’ में हिंदी, संस्कृत भाषा के शब्दों का आश्चर्यजनक बाहुल्य है। वहां की लोक गाथाओं और पुरातत्व उपलब्धियों से स्पष्ट है कि किसी समय उस क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का ही वर्चस्व (प्राधान्य) था।
पुरातत्ववेत्ता हुगो ओवरमीर ने “अफ्रीका के देवी-देवताओं की आकृति का हिंदू देवताओं से पूर्ण साम्य सिद्ध करने वाले चित्र अपनी पुस्तक में प्रकाशित किए हैं।” लंबे समय तक अफ्रीका का पर्यटन करने वाली यूरोपीय महिला सारा लैटन ने “अफ्रीकी भाषा में संस्कृत शब्दों का भारी संख्या में समावेश बतलाया है और लिखा है कि उस महाद्वीप के आदिवासियों में हिंदुओं की तरह ही हवन का प्रचलन देखा गया है।”
अफ्रीका महाद्वीप प्राय: 40 देशों में बटा हुआ है। उनके पुरातत्व विभागों, संग्रहालय एवं उपलब्धि इतिहासो को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि इन सबके पीछे भारतीय गरिमा झांकती है। अफ्रीकी सभ्यता के विभिन्न स्वरूपों को अनेकानेक कबीलों की मान्यताओं और प्रथा परंपराओं के रूप में देखा जा सकता है। उनके बीच भिन्नता भी बहुत है। पर यदि उन सबके पीछे मूल तथ्यों का निरूपण किया जाए तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि वे यह मान्यताएं किसी उच्चस्तरीय भारतीय मान्यताओं के अनुकरण के पीछे चलती हैं। स्पष्ट है कि यदि उच्च आदर्शों की साज- संभाल ना की जाएगी तो वह भी मनुष्य की पशुप्रवृत्तियों में घुलते-मिलते अंततः विकृतियों के निकृष्ट स्तर पर आ गिरेंगी। रूढ़ियों ,मूढताओं, अंधविश्वासों का इतिहास भी यही है कि लोगों ने आदर्श को भुला दिया, प्रचलन मात्र को अपनाया और पीछे वे प्रचलन विवेक शीलता से हटते- हटते पशु प्रवृत्तियों के सहगामी हो गए। इस प्रकार धर्म प्रचलनो की भी यही स्थिति आ गई, जिसे अनुपयुक्त एवं उपहासास्पद कहा जा सके। अफ्रीका के कबिलों की पिछले दिनों और इन दिनों भी चाहे ऐसी ही स्थिति रही हो तो भी उनकी प्राचीन परंपरा एवं दार्शनिकता ऐसी रही है, जिसे भारत की सहगामिनी एवं प्रशंसनीय कहा जा सके। इस तथ्य को अफ्रीका के संबंध में शोध कार्य करने वाले प्राय: सभी विद्वानों ने एक स्वर से स्वीकार किया है ।
भारतीय महासागर में मेडागास्कर (माला ग्यासी) दीपों के निवासी उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों से नहीं मिलते, उनका रक्त भिन्न है। मेडागास्कर यों अफ्रीका महाद्वीप के समीप है,पर उसके निवासियों की नस्ल भारतीय आर्यों की है । सभ्यता भी वहां की भारतीयों जैसी है। नाम भी उनके ऐसे हैं जो भारतीयों से मिल सकें।
जिस प्रकार यूरोप में जर्मनी, अमेरिका में मैकिस्को भारतीय संस्कृति के केंद्र- स्तंभ रहे हैं। उसी प्रकार अफ्रीका महाद्वीप में मिस्र देश को भारतीय संस्कृति का केंद्र माना जा सकता है। उस सुरम्य क्षेत्र को सर्वप्रथम भारतीयों ने ही आबाद किया था। वहां भारतवंशी राजा राज करते थे और उस क्षेत्र की जनता भारतीय धर्म के अनुयाई थी। इस्लाम का प्रवेश उस देश में होने से पूर्व का मिस्र का सारा इतिहास इन्हीं प्रमाणों से भरा पड़ा है कि वन्हा भारती धर्म की ध्वजा फहराती थी और उसका प्रकाश अफ्रीका के सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचता था।
भविष्य पुराण खंड 4, अध्याय 21 के श्लोक 16 में ऋषियों के मिस्र में जाने और वहां भारतीय सभ्यता का विस्तार करने का स्पष्ट वर्णन है –
सरस्वत्यज्ञया कण्वो मिश्र देश मुपाययो।
म्लेच्छान्र् संस्कृत्य्ं चाभाष्य तदा दश सहस्त्रकन।।
अर्थात- “सरस्वती की आज्ञा से कण्व ऋषि मिश्र देश को गए और वहां उन्होंने दस हज़ार म्लेच्छौं को सुसंस्कृत बनाया।”
“हिस्टोरियंस हिस्ट्री ऑफ दि वर्ल्ड” ग्रंथ में इस्लाम के प्रवेश से पूर्व की मिश्र की स्थिति पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इस काल में मिश्री सभ्यता भारत से लगभग पूर्णतया मेल खाती थी। उस देश के नागरिक हैं यह मानते थे कि उनके पूर्वज देव देश से आकर यहां बसे थे। उस देव देश का जो वर्णन किया जाता था उसकी भौगोलिक स्थिति तथा सभ्यता की रूपरेखा भारत की स्थिति से सर्वथा मिलती-जुलती थी। वे ‘मनस्’ को आदि शासक मानते थे और उसका आचार व्यवहार वैसा ही बताते थे जैसा भारत में ‘मनस्’ और ‘मनु’ का शब्द -साम्य भी स्पष्ट है। मिस्र के पुरातन देवता भी थोड़े शब्द -भेद के साथ वही थे, जो भारत में माने और पूजे जाते हैं। वर्ण व्यवस्था ,राजधर्म ,युद्ध -आचार्, व्यवहार- संहिता, धार्मिक सामान्य शिष्टाचार आदि में भारत और मिश्र की सभ्यता इतनी अधिक मिलती थी मानो वे माता और पुत्री अथवा सहोदर बहनें ही हों।
इतिहासकार हीरोडोटस ने भारत और मिस्र की मान्यताओं, परंपराओं का साम्य सिद्द करने वाले अनेकानेक प्रमाण और तथ्य प्रस्तुत किए हैं। दर्शन पक्ष तो दोनों का आश्चर्यजनक रूप से एक ही बिंदु पर केंद्रित रहा है।