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विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति – 06

कौन कहता है कोलंबस ने खोजा था अमेरिका को ??

पश्चिमी जगत ने संसार में विशेषकर एशियाई क्षेत्र में अपने साम्राज्यवादी इरादों की पूर्ति हेतु व अपनी जातिय श्रेस्ठता का प्रतिपादन करने के लिए मानव इतिहास के साथ जो निन्द्नीय खिलवाड़ किए हैं, उनमें ‘नई दुनिया’ कहे जाने वाले अमेरिकी महाद्वीपों – उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका की खोज का श्रेय स्पेन निवासी ‘क्रिस्टोफर कोलंबस’ को दिया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं की यह दुष्प्रचार मानव इतिहास के निकटतम झूठों में से एक है। इस विश्लेषण की पुष्टि में अनेक निर्विवाद साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

इसी संदर्भ में इतिहासविद्व डॉ. गौरीनाथ रस्तोगी लिखते हैं कि- “कोलंबस द्वारा ईसवी 1492 में अपने सामुद्रिक अभियान पर कूच करने से लगभग 500 वर्ष पूर्व आइसलैंड का निवासी वायकिंग एरिकसन इस नई दुनिया की भूमि पर पहुंच चुका था। लेकिन अमेरिकी भूभाग में प्रवेश करने वाला एरिकसन भी प्रथम विदेशी व्यक्ति नहीं था। उससे भी लगभग 300 वर्ष पूर्व इसाईयत की सातवीं शताब्दी में आयरलैंड निवासी एमराल्ड आयल नामक स्थान का निवासी ‘ सेंट ब्रेडन ‘अमेरिकी भूमि पर पदार्पण कर चुका था।”

भारतीयों द्वारा अमेरिका की खोज : –

कोलंबस की ही भांति अमेरिकी महाद्वीपों की खोज का श्रेय एरिकसन तथा ब्रेंडन को नहीं दिया जा सकता। इसका कारण बताते हुए वियना के सुविख्यात एंथ्रोपॉलजिस्ट डॉ. रावर्ट हेन गेल्र्डन तथा अमेरिका के न्यूयॉर्क नगर में स्थित प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय (नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम) के निर्देशक डॉ. गोडर्न एफ. एकहाम ने लिखा है कि ईसा मसीह के जन्म से पूर्व ही भारत से अनेक व्यक्ति – समूह नई दुनिया कहे जाने वाले इस अमेरिकी भूखंड पर पहुंच चुके थे। तथा अमेरिका वासियों का भारत सहित दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के जन-समाज के साथ गहरा संपर्क था। उनके इस कथन की पुष्टि मैक्स्को के विदेश मंत्रालय द्वारा प्रकाशित ‘मेक्सिको का इतिहास’ नामक महत्वपूर्ण पुस्तक से भी होती है। इस महत्वपूर्ण रचना के पृष्ठ 3 पर कहा गया है कि- “कालांतर में अमेरिका के नाम से पुकारे जाने वाले महाद्वीप में जो व्यक्ति -समूह वहां सबसे पहले पहुंचे, बे असंदिग्ध रूप से पूर्व दिशा में भारतवर्ष के रहने वाले थे और उन्होंने अत्यंत जोखिम भरी समुद्री यात्राएं पूर्ण करके इस भूमि पर पदार्पण किया था।”

अय्यरवंश का शासन : –

इन तथ्यों से यह सच्चाई स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि अमेरिका की खोज कोलंबस ने नहीं की थी और भारतवर्ष के लोग ही सर्वप्रथम समुद्र मार्ग से हिंदू महासागर ,गंगासागर और प्रशांत महासागर से नौकायन करते हुए सुदूर स्थित अमेरिकी महाद्वीपों तक पहुंचे थे।

रामायण और महाभारत नामक महत्वपूर्ण ग्रंथों में वर्णित विषय सामग्री से इस कथन की पुष्टि सरलता से हो जाती है। उदाहरणार्थ राक्षसराज रावण के पुत्र अहिरावण जिस पाताललोक का निवासी बताया गया है, वह आज के अमेरिकी महाद्वीपों से संबंधित ही विशाल भू राशि वाला क्षेत्र है।

दक्षिण अमेरिका में स्थित ‘अर्जेंटीना’ नामक देश का नामकरण महाभारत में बहुचर्चित वीर अर्जुन से संबंध रखता है। इसी भांति महाभारत युद्ध में इन अमेरिकी महाद्वीपों के अनेक नरेशो ने ससैन्य भागीदारी की थी। पौराणिक ग्रंथों में महाराज बलि का जो उल्लेख हमें मिलता है, उससे भी यही स्पष्ट होता है कि वह पाताल लोक अथवा अमेरिका का सम्राट था एवं बोलीविया उसकी राजधानी थी।

अतः इन तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका की खोज करने का श्रेय कोलंबस को किसी भी स्थिति में नहीं दिया जा सकता है। इस विषय में अनेक महत्वपूर्ण और अकाट्य साक्ष्य सुप्रसिद्ध विद्वान भिक्षु चमनलाल ने अपने अपूर्व शोधपूर्ण ग्रंथों ‘ हिंदू अमेरिका’ और ‘ इंडिया: मदर आफ अस ऑल’ में प्रस्तुत किए हैं। अपने इस विश्लेषण में मनीषी चमनलाल ने लिखा है कि – “एक समय में महान भारत वर्ष के हिंदू और बौद्ध पथ प्रदर्शकों ने धर्म और संस्कृति की दिव्य पताका सुदूर दक्षिण अमेरिका ,मेक्सिको, ग्वाटेमाला आदि में फहराई थी। यहां तक कि ईसवी सन 1532 तक एक सौ से अधिक अय्यर ब्राह्मण सम्राटों ने दक्षिण अमेरिका के 2500 मील लंबे विशाल साम्राज्य पर शासन किया था। “

हिंदू जीवन आदर्शों से ओत-प्रोत : – 

संयुक्त राज्य अमेरिका का ‘ माइल्स प्वायनडेक्सटर’ नामक व्यक्ति दक्षिण अमेरिका के पेरु राज्य में सुदीर्घ्र अवधि तक राजदूत के पद पर रहा था। उसने लंबी कालावधि में की गई अपनी ऐतिहासिक खोज का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि- “30 वर्ष के शोध कार्य के आधार पर अब मैं यह बात पुर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूं कि एक समय में अमेरिका पूर्णतया हिंदू जीवन आदर्शों से ओत-प्रोत था। अमेरिका के प्रत्येक भाग में पाए जाने वाले प्रस्तर- खंड इस सच्चाई की पुष्टि कर रहे हैं।”

विदेशी विद्वानों का अभिमत : –

अब इस तथ्य को प्राय: इतिहासकारों ने स्वीकार कर लिया है कि अमेरिकी महाद्वीपों में 15वीं शताब्दी के अंतिम दशक में क्रिस्टोफर कोलंबस के पहुंचने के उपरांत स्पेनी ,पुर्तगाली ,अंग्रेज और फ्रांसीसी आदि यूरोपीय जातियों के पहुंचने से पूर्व इस विशाल भूखंड के विभिन्न भागों में ‘ आस्तिक’ (अजटेक) मय (माया) और ‘इन्का’ सभ्यताएं अपना अस्तित्व बनाए हुई थी। इसमें कोई संदेह नहीं की ‘ आस्तिक’ ,’मय’ और ‘इन्का’ नामक यह तीनों संस्कृतियां पूर्ण रूप से भारतीय थी।

इस संबंध में पेरू के इन्का राजवंश के संबंध में किए गए अपने विस्तृत शोधकार्य के आधार पर अमेरिकी राजदूत माइल्स प्वायनडेक्सटर का कहना है कि- “पेरू में ‘इन्का’ राजवंश को प्रतिस्थापित करने का श्रेय चार प्रमुख एयर ब्राह्मणों को प्राप्त है।” जैसा ऊपर बताया जा चुका है कि एक सौ से अधिक ‘इन्का’ अथवा अय्यर ब्राह्मण शासकों ने ‘पेरू’ के 2500 मील लम्बे अत्यंत विस्तृत और विशाल साम्राज्य पर दक्षिण अमेरिका में ईसवी सन 1532 तक शासन किया था। उसका यह भी कहना है कि कला और आस्था, धार्मिक क्रियाओं एवं अनुष्ठानों, रीति -रिवाज और परंपराओं एवं शारीरिक रचना और भाषा के क्षेत्र में इन ‘इन्का’ अथवा ‘अय्यर ब्राह्मणों’ की अप्रतिम समानता दक्षिण भारत के निवासियों में पाई जाती है। उसने अपनी पुस्तक ‘अय्यर इन्काज’ में यहां तक लिखा है कि- मेक्सिको में नौका को ‘ कटामरन ‘ नाम से जो पुकारा जाता है, वह तमिल भाषा का शब्द है सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ . र्माटन का भी ‘इन्का’ संस्कृति के विषय में यही अभिमत है।

आस्तिक (अजटेक) संस्कृति का मूल : –

जहां तक आस्तिक सभ्यता और संस्कृति का संबंध है वह भी पूर्णरूपेण भारतीय है। इसके प्रमाण स्वरूप ‘ आस्तिक कालदर्शक’ (पंचांग) (Astec calender) का उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार भारत में हमारे ऋषि मनीषियों ने कालचक्र को सतयुग ,त्रेता ,द्वापर और कलयुग नामक चार युगों में विभाजित किया है। उसी प्रकार ‘आस्तिक कालचक्र’/ कालदर्शक (कैलेंडर) में भी किया गया है। दोनों कालचक्रो में समानता ही नहीं, समरूपता विद्यमान है। इस संबंध में बरनाल डियाज नामक विदेशी इतिहासकार का कहना है कि मेक्सिको के आस्तिक सम्राट मान्तेजुमा ने आक्रामक और कोर्टेस को यह तथ्य स्पष्ट शब्दों में बताया था कि उसके पूर्वज भारतवर्ष से आकर वहां बस गए थे। उसके इस विश्लेशण की पुष्टि वाल्मीकि रामायण में वर्णित तत्सबंधी विवरण से भी हो जाती है।

अतः बरनाल डियाज का कहना है कि- “आस्तिक संस्कृति’ को अमेरिकी मूल की संस्कृति बताना पूर्णतया असत्य है।” इसी भांति ‘आस्तिक कालचक्र’ के भारतीय कालगणना से सादृश्य को दृष्टिगत रखकर मैकेंजी नामक विद्वान ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘कोलंबस -पूर्व के अमेरिका के मिथक’ (Myths of pre -columbian America) में लिखा है कि- “संसार के हिंदू युगों का सिद्धांत कोलंबस से पूर्व के अमेरिका में भारत से आया था।

मेक्सिको के अंदर ‘आस्तिक कालचक्र’ का विवरण हिंदुओं की चतुयुगीन व्यवस्था के सदृश है। उसके संबंध में यह विचार करना की पुरानी और नई दुनिया के विभिन्न भागों से ऐसी जटिल कालगणना की पद्धति स्वाभाविक रूप से स्वत: विकसित हुई होगी। कोरी कल्पना के सिवा अन्य कुछ नहीं है। दूसरे शब्दों में उसे मूर्खता ही कहा जाएगा।” इतना ही नहीं मैक्सको में इस कालचक्र में दी गई सूर्य नारायण की प्रतिमा भी इसी तथ्य की पुष्टि करती है कि यह सिद्धांत मैक्सको अर्थात मध्य अमेरिका में भारत से ही आया था।

चरैवेती , चरैवेती : –

मैक्सको में मय संस्कृति से संबंधित जन- समाज में नौचालन के प्रति विद्यमान गंभीर अभिरुचि अथवा लगाव की चर्चा करते हुए कर्नल चर्चवार्ड ने लिखा है कि – “एक विशेष कालखंड में यहां निवास करने वाले व्यक्ति अत्यंत शक्तिशाली थे। उनके पास अत्यंत विशाल सामुद्रिक जलयान थे, जिन पर बैठकर वे सुदूर पूर्व और पश्चिम की यात्राएं किया करते थे। “इस कथन के साथ ही प्रश्न करते हुए वह कहता है कि क्या इस विवरण की साम्यता बाल्मीकि के उस वर्णन से नहीं है जिसमें आदि कवि ने लिखा है कि मय समाज के लोग अत्यंत साहसी और कुशल नौचालक थे और उनके समुद्री जलपोत पूर्व से पश्चिम महासागरों तथा दक्षिण से उत्तरी महासागरों का परिभ्रमण करते रहते थे।

पेरू में संयुक्त राज्य अमेरिका के राजदूत माइल्स प्वायन डेक्सटर ने मय समाज के इस नौचालन प्रेम को ऐतरेय ब्राह्मण के उस सूत्र से जोड़ने का प्रयास किया है, जिसमें कहा गया है चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति अर्थात सदा-सर्वदा चलते रहो, गतिशील रहो।

अद्भुत समानता : –

मेक्सिको के मय- समाज की भारत से अभिन्नता का एक और महत्वपूर्ण प्रमाण ‘पच्चीसी खेल’ (Game of Pachisi) है । आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व एडवर्ड टेलर नामक विद्वान ने लिखा था कि- “मेक्सिको के अंदर प्राचीन काल में अत्यधिक प्रचलित ‘पटोली’ नामक खेल भारत सहित संपूर्ण दक्षिण एशिया में खेले जाने वाला ‘ पच्चीसी खेल’ के पूरी तरह समान है अतः उसका कहना है कि मेकिस्को मे प्रचलित (पटोली) खेल निसंदेह वहां एशिया से ही आया है।”

तदुपरांत स्टीवर्ट कुलीन नामक विद्वान ने मेक्सिको के इस खेल की ब्रह्मांडीय विशेषता का उल्लेख करते हुए कहा कि इससे संबंध चतुरयुग की कालगणना की व्यवस्था तथा भारत में प्रचलित ‘पच्चीसी खेल’ की विधि में पूर्व सादृस्य विद्यमान है। इसी भांति डॉ. क्रोएवर का कहना है कि -दोनों खेलों में विध्यमान अद्भुत साम्यता को अलग-अलग रूप में विकसित ऐतिहासिक घटनाक्रम नहीं माना जा सकता। दोनों खेलों के नियमों में विद्यमान अदितीय और अद्भुत समानता इस बात का परिचायक है कि दोनों में बड़ा गहरा संबंध रहा है।

कमल की महत्ता : – भारत और मेक्सिको की संस्कृतियों में एक अप्रतिम समानता कमल को लेकर है। कमल को भारत में सर्वाधिक पवित्र प्रतीकों में से एक माना गया है अत्यंत प्राचीन काल से इस राष्ट्र में उसे पवित्रता के चिन्ह के रूप में स्वीकार किया गया है। मेक्सिको के चिचेन इत्जा के एक पवित्र मंदिर में कमल के प्रति इसी प्रकार की श्रद्धा, आस्था और पवित्रता का उल्लेख किया गया है।

अत: सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ . राबर्ट हेन गेल्र्डन और डॉ. गोर्डन एफ. एकहाम का कहना है कि दोनों में इस प्रकार की अद्वितीय समानता आकस्मिक अथवा सान्योगिक (Accidental) नहीं कही जा सकती। यह मय-समाज की कला और सामान्य रूप से वौद्ध- कला के साथ-साथ विशेष रूप से ईसा की दूसरी शताब्दी में अमरावती (भारत) में विद्यमान कला के पारस्परिक संबंध का परिचायक है।

लेख़क – डॉ. नितिन सहारिया (भारद्वाज)
संपर्क सूत्र – 8720857296