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वैज्ञानिक अध्यात्म 1 – डॉ. नितिन सहारिया

वैज्ञानिक अध्यात्म में वैज्ञानिक जीवन दृष्टि एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों का सुखद समन्वय है। वैज्ञानिक जीवन दृष्टि में पूर्वाग्रहों, मूढ़ताओं एवं भ्रामक मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। यहां तो तर्कसंगत, औचित्यनिष्ठ, उद्देश्यपूर्ण व सत्यान्वेषि, जिज्ञासु भाव ही सम्मानित होते हैं। इसमें रूढ़ियाँ नहीं प्रायोगिक प्रक्रियाओं के परिणाम ही प्रमाणिक माने जाते हैं। सूत्र वाक्य में कहें तो वैज्ञानिक जीवन दृष्टि में परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्व मिलता है। वेदों के ऋषिगण इसी का ‘सत्यमेव जयते’ के रूप में उद्द्घोष करते हैं।
वैज्ञानिक जीवन दृष्टि का यह सत्य – आध्यात्मिक जीवन मूल्यों की परिष्कृत संवेदना से मिलकर पूर्ण होता है। परिष्कृत संवेदना ही वह निर्मल स्रोत है, जिससे समस्त सद्गुण जन्मते और उपजते हैं। जहां पर परिष्कृत संवेदना का अभाव है, वहां सद्गुणों का भी सर्वथा अभाव ही होगा। सत्य व संवेदना- विज्ञान और अध्यात्म की भांति परस्पर विरोधी नहीं पूरक हैं। सत्य संवेदना को संकल्पनिस्ट बनाता है और संवेदना सत्य को भावनिष्ट- जीवन निष्ट बनाती है।
वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रयोगों की निरंतरता जीवन को सत्यान्वेषि, संवेदनशील बनाए रखती है। इसके द्वारा मनुष्य में वैज्ञानिक प्रतिभा एवं संत की संवेदना का कुशल समायोजन व संतुलन बन पड़ता है। इसका विस्तार यदि समाज व्यापी होगा तो समाज धर्म विशेष, मत विशेष व पंथ विशेष के प्रति हटी एवं आग्रही नहीं होगा। यहां संपूर्ण विश्व के सभी एवं सभी पंथ की समस्त श्रेष्ठताऐं सहज ही सम्मानित होंगी। वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रयोगों के सभी परिणाम समाज में ‘आध्यात्मिक मानवतावाद’ की प्रतिष्ठा करेंगे।

रमन प्रभाव' की खोज के स्मरण का दिन sachkahoon.com

सन 1946 ई. के सितंबर माह में शांति निकेतन (कोलकाता) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक प्रोफेसर सी. वी. रमन का – ‘विज्ञान को अध्यात्म की आवश्यकता’ शीर्षक पर व्याख्यान हुआ। जिसमें प्रोफेसर रमन कहते हैं- “बीसवीं सदी विज्ञान की सदी बन चुकी है कोई देश इसके चमत्कारों के प्रसार से अछूता नहीं है  जो आज हैं भी वे कल नहीं रहेंगे। परंतु विज्ञान का प्रयोग मानव हित में हो, यह चुनौती न केवल समूचे विज्ञान जगत के सामने, बल्कि समूची मानवता के सामने है।
वैज्ञानिकता, विज्ञान एवं वैज्ञानिकों को हृदयहीन व संवेदनहीन नहीं होना चाहिए। वे हृदयवान हों, संवेदनशील हों इसके लिए उन्हें अध्यात्म का सहचर्य चाहिए। बीसवीं सदी भले ही विज्ञान की सदी हो, पर इक्कीसवीं सदी ‘वैज्ञानिक अध्यात्म’ की सदी होगी।”
वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता, युगऋषि- वेदमूर्ति पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य को हिमालय की ऋषि सताओं एवं सदगुरुदेव स्वामी सर्वेश्वरानंद की अनुभूतियों की श्रंखला के साथ उनके चिदाकाश में- ‘वैज्ञानिक अध्यात्म’ के दो शब्द महामंत्र की तरह प्रकाशित और ध्वनित हुए थे। शांतिनिकेतन में प्रो. सी .वी. रमन से मुलाकात के दौरान आचार्य जी कहते हैं- “क्रियान्वयन तो अध्यात्म क्षेत्र में भी होना है। उसे भी विज्ञान का सहचर्य चाहिए। विज्ञान के प्रयोग ही उसे मूढ़ताओं, भ्रांतियों एवं अन्ध परंपराओं से मुक्त करेंगे।”
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने जनवरी 1947 ई. में ‘वैज्ञानिक अध्यात्म’ पर एक विशेषांक प्रकाशित किया। जिसके प्रथम पृष्ठ की अंतिम पंक्ति में लिखा –
“अखंड ज्योति के पाठको! स्मरण रखो सबसे पहले जिसे पढ़ने और ह्रदयंगम करने की आवश्यकता है, वह ‘वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’ ही है। यही ऋषियों का विज्ञान है।”
वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रेरणा केंद्र, मनीषी डॉ प्रणव पंड्या अपने ग्रंथ – ‘वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रांति दीप’ पृष्ठ 22-25 में भोतिकी के वैज्ञानिक ‘मैक्स प्लांक’ के स्वप्न में हुए आध्यात्मिक अनुभव (परोक्ष संपर्क ने जन्म दिया ऊर्जा के क्वांटम सिद्धांत को) की चर्चा करते हुए कहते हैं कि-
मैक्स प्लैंक पिछले कुछ दिनों से काफी चिंतित एवं निराश थे। इसका कारण अब तक उन्हें शोध कार्य करते हुए लगभग 20 वर्ष होने को आए थे। परंतु कोई सार्थक निष्कर्ष नहीं निकल सका था। वर्षों के अथक परिश्रम के बाद भी वह कोई ‘सिद्धांत संरचना’ नहीं दे पा रहे थे।

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अतः एक गहरी थकान ने उन्हें घेर लिया था। उस दिन प्लांक पिताजी की बातें, अपनी स्वयं की यादें और सामने की दीवार पर सुनहरे प्रेम में मढा हुआ दादाजी का चित्र इन्हीं को मन में संजोए वह सो गए थे।
स्वप्नकाल में उनकी चेतना अनजाने ही अदृश्य से जुड़ गई थी। स्वप्न में उन्हें ऐसा लगा जैसे कि वह अत्यंत सुरम्य एवं रमणीय स्थान में प्रकाश पूर्ण लहरों वाली नदी के किनारे हैं। यहीं पर उन्होंने स्वयं को और अपने दादाजी को देखा। वह बड़े प्रसन्न व प्रेम पूर्ण लग रहे थे। उनकी देह श्वेत रंग की प्रकाश कणों से बनी व बुनी थी। वही उन्हें समझा रहे थे कि- “वैज्ञानिक होने का अर्थ यह नहीं कि आध्यात्मिक भावों से स्वयं को पृथक कर लो। वैज्ञानिकों का अध्यात्म उनमें अनुसंधान की नई चेतना विकसित करता है।”
“आध्यात्मिक पवित्रता के साथ किए जाने वाले वैज्ञानिक प्रयोग आत्म संतोष एवं लोकहित के दोहरे हित पूरा करते हैं मैक्स। पदार्थ हो या प्रकाश प्रत्येक की वास्तविक प्रकृति ऊर्जा है। जिस तरह पदार्थ सूक्ष्म कणों से बना है। ठीक उसी तरह से प्रकाश भी सूक्ष्म ऊर्जा कणों से बना है। ये ऊर्जा कण निश्चित कांन्टिटी में प्रवाहित होते रहते हैं।”
यह प्लैंक की चेतना में नया सूर्योदय था। इस सूर्योदय ने उन्हें सूर्योदय के पहले ही जगा दिया। वह जा पहुंचे अपनी प्रयोगशाला में और कार्य में जुट गए। काम करने वाली टेबल पर प्रकाश भी प्रदीप्त था। उन्होंने उस ओर ध्यान से देखा और देखते रह गए, सचमुच ही उष्मा व प्रकाश-ऊर्जा कणों के रूप में चहुं ओर विकसित हो रहा है। ये ऊर्जा कण एक निश्चित क्वांटिटी में बह रहे हैं। बिखर रहे हैं। इसके लिए उनकी अंन्तर्र चेतना में ध्वनित हुआ ‘कांटा’ (क्वान्टा)।
उसी क्षण ‘ऊर्जा के क्वांटम सिद्धांत’ (Quantum theory of energy) की रचना हुई। प्लैंक के स्वप्न में हुए आध्यात्मिक अनुभव ने सचमुच ही उन्हें अनुसंधान की नई चेतना दी। इस अद्भुत अनुभव को अपने मित्र ऑटोहान एवं लाइस मेटनर को बताते हुए कहा- “पदार्थ की ही भांति ऊर्जाओं के भी सूक्ष्म लोक हैं। दृश्य की ही भांति अदृश्य का भी अस्तित्व है। तर्कबुद्धि एवं गणितीय समीकरणों से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण अंतर्प्रज्ञा है। यथार्थ बोध यहीं अंकुरित होता है। तर्क से केवल उसकी अभिव्यक्ति होती है।”
सन 1919 में जब मैक्स प्लैंक को अपने शोधकार्य के लिए ‘नोबेल पुरस्कार’ मिला। उन्होंने उस अवसर पर कहा- “वैज्ञानिक प्रयोगों के साथ आध्यात्मिक पवित्रता का जुड़े रहना अनिवार्य है। विज्ञान यदि मानवता के अहित की दिशा में अपने कदम बढ़ाता है तो वह विज्ञान ही नहीं है। विज्ञान हमेशा लोकहितकारी बना रहे, इसके लिए उसे आध्यात्मिक संवेदनो से स्पंदित होना चाहिए। यही तो वैज्ञानिक अध्यात्म है, जिसके ऐतिहासिक परिदृश्य पर विचार किया जाना चाहिए।”
वर्तमान में अध्यात्म के वैज्ञानिक परिदृस्य की बात करें तो इन पंक्तियों/ लेख के लेखक से महाविद्यालय की कक्षा में अध्यापन के दौरान एक छात्र ने प्रश्न किया- सर! भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के रण में जब दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी थी और युद्ध आरंभ ही होने वाला था, तब इतने कम समय में श्रीमद्भागवत गीता का इतना बड़ा उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने कैसे सुनाया था? तब हमने कहा बेटा! तुम सबसे पहले श्रीकृष्ण को जानो, गीता का अध्ययन करो, भगवान श्रीकृष्ण की शक्तियों और स्वरूप को समझने का प्रयास करो तो उत्तर स्वयं ही मिल जाएगा। फिर भी इसे कुछ इस प्रकार से समझो कि- जैसे एक छोटी सी मेमोरी चिप/पेन ड्राइव में 10 हज़ार पन्ने का ग्रंथ 4GB की स्पीड से 1 मिनट में सेव (संरक्षित) हो जाता है। फिर भगवान की सामर्थ्य, शक्ति तो अनंत है। मनुष्य के मस्तिष्क की मेमोरी कैपेसिटी 30 करोड़ जीबी है। फिर वह तो भगवान हैं। उत्तर सुनकर छात्र का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। और बोला सर! यह तो कभी हमने सोचा ही नहीं था।

भारतवर्ष आदिकाल से वैज्ञानिक अध्यात्म का ही देश है। इसके कण-कण में आध्यात्मिकता का समावेश है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “भारत ईश्वर की शोध में रत हो गया तो अमर हो जाएगा यदि राजनीति के कीचड़ में लौटता रहा तो बिनाश अटल है।”

भारत के सत्य सनातन/हिंदू धर्म मे अनेकों घटनाओं, तथ्यों, प्रसंगों को इसी प्रकार से वैज्ञानिकता से वर्तमान के विज्ञान से तुलनात्मक/प्रयोगात्मक अध्ययन करते हुए विस्व समाज को ‘भारत का अध्यात्मवाद’ समझाया जा सकता है। जिसकी आज परम आवश्यकता है।
बनारस में स्वामी विशुद्धानंद जी ने – 1938 के लगभग विदेशी विद्वान पाल ब्रिन्ट को अध्यात्मिक जिज्ञासा के उत्तर मे इसी प्रकार प्रत्यक्ष प्रयोग करके- सरकंडे पर मंत्र का अनुसंधान करके अग्निबाण, वरुणास्त्र बनाकर एक वृक्ष को अग्निदग्ध किया व वरुणास्त्र से जल वर्षा करके पुन: हरा-भरा कर दिखाया था। ऐसे ही एक मृत्त चिड़िया (पक्षी) को मंत्र शक्ति/सूर्य विज्ञान Super science से कुछ मिनट के लिए जीवित करके प्रत्यक्ष दिखाया था। ऐसे अनेकों प्रसंग,चमत्कार हमारे शास्त्रों, पुराणों, आर्ष वान्ग्ड़मय में भरे पड़े हैं। बस उन्हें वर्तमान में वैज्ञानिक प्रयोगों से प्रत्यक्ष सिद्ध करने की आवश्यकता मात्र है। तब संपूर्ण विश्व पुन: भारतवर्ष के चरणों में वंदन करेगा।
लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया
संपर्क सूत्र:- 8720857296