भारतवर्ष श्रीराम का देश है ,राम यहां के रोम- रोम ,कण -कण ,जन -जन के ,मन -प्राण- आत्मा, में बसे हुए हैं। यहां तो जागरण व रात्रि शयन भी श्रीराम नाम के स्मरण से ही होता है ।यहां तो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत भी राम का ही स्मरण व गायन होता है ।
भारत में तो अनेक रूपों, नाम ,पद्धतियों, परंपराओं , लोक -रीतियों,काव्य में ,संप्रदायों में,श्री राम का स्मरण व आदर्श समाया हुआ है।राम के बगैर तो यहां कुछ है ही नहीं ।भारतवर्ष से यदि राम को निकाल दिया जाए तो फिर यहां कुछ बचता नहीं। ठीक वैसे ही जैसे शरीर से प्राण के निकल जाने पर शरीर ,शव – अर्थी- मिट्टी ही बसता है अर्थात अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।
राम तो भारतवर्ष के प्राण हैं। आराध्य हैं ,आदर्श हैं ,अस्तित्व है ,मार्गदर्शक हैं, योगियों व भक्तों के ईस्ट हैं ।जीव -जीवन- जगत के आधार व जगत के उत्पत्ति -पालन- संहारकर्ता हैं ।राम के बिना तो सृष्टि-जगत की कल्पना ही नहीं की जा सकती है । श्री रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज इसीलिए तो लिखते हैं कि–
सकलविश्व यह मोर उपाया , सब पर कीन समानी दाया।।
भारत के तो जन-जन में, राम रमे हुए हैं, समाए हुए हैं ,यहां तो संपूर्ण अस्तित्व ही राम से ओत-प्रोत है। या यूं कहें कि राममय ही है। इसीलिए तो यहां लोक गायन में यह पंक्तियां सुनाई देती हैं —
सीता श्रद्धा देश की ,राम अटल विश्वास। रामायण तुलसी सहित ,हम तुलसी के दास।।
यहां तो सीता के राम, दशरथ के राम ,राजाराम, लक्ष्मण के राम ,भरत के राम, केवट के राम, अयोध्या नाथ, अवध बिहारी ,शबरी के राम, वनवासी राम ,अहिल्या तारक, हनुमान जी के प्रभु, रामेश्वर( शिवजी के राम), ऋषि -मुनियों के राम,
जटायु के राम ,भक्तों के राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, कौशल्या के राम ,दुखियों के राम ,दीनों के नाथ, जन-जन के राम, का विविध रूपों में स्मरण ,आराधन, पूजन -वंदन, नित्य ,आठों याम किया जाता है। श्रीराम भारत की *आत्मा ‘चिति’* हैं। यहां तो गीत की पंक्ति मैं भी कुछ ऐसा भाव प्रकट होता है।
चंदन है इस देश की माटी,तपोभूमि हर ग्राम है।
हर नारी देवी की प्रतिमा,बच्चा –बच्चा राम है।।
भारत में तो मनुष्य कष्ट होने पर वह – हे राम ! पुकारता है। एवं आपस में मिलने पर -राम ! राम ! कहता है ,और किसी प्रकार की अनहोनी ,गलत कार्य हो जाने पर 4 बार राम नाम का उच्चारण- राम -राम ! राम- राम ! करता है, एवं विजय घोष में ,सिंहनाद के रूप में -जय जय श्री राम !! जय जय सियाराम !!का उच्चारण किया जाता है।
आपस में वार्तालाप में ग्रामीण क्षेत्र में लोग अपना विश्वास व्यक्त करने में कहते हैं कि -‘राम दुहाई ‘ !! ‘राम की सौ’!! ‘राम कसम ‘!! और शव को शमशान ले जाते समय तो ‘ राम नाम सत्य है ‘ इत्यादि वाक्यांश कहते हुए पाए जाते हैं। इन वाक्यांशों ,साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतवर्ष के जनमानस के चिंतन- चरित्र- व्यवहार,में राम किस तरह घुले हुए हैं ,समाए हुए हैं ,अतः
श्रीराम की महिमा अनंत है, वह मर्यादा पुरुषोत्तम, भक्तवत्सल, प्रजा- पालक, करुणा के सागर, कृपा के धाम, कृपासिंधु ,धर्म- कर्तव्य पालक व सत्य में प्रतिष्ठित हैं। वचन पालन उनका जीवन आदर्श है । *राम संपूर्ण मानवता के आदर्श व प्रेरणा स्रोत हैं* ।
अतः” राम दरबार यह जग सारा ” के रूप में राम कथा के यशस्वी गायक रविंद्र जैन अपने रामायण -सीरियल में गायन करते, सुनाई -दिखाई देते हैं। इस देश के बीहड़ जंगल में रहने वाला कोई भी भारतीय जानता है कि इस देश में राम हुए हैं वस्तुतः राष्ट्रपुरुष राम सदैब से भारतीय जनमानस के प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। *राम का जीवन हिंदू जीवन प्रणाली की अभिव्यक्ति है।
राम या रामायण हमारे सांस्कृतिक जीवन की विरासत है। हमारे व्यक्तिगत , पारिवारिक तथा राष्ट्रगत जीवन -आदर्शों का प्रतिबिंब है* ।अखिल विश्व गायत्री परिवार में श्री राम भक्ति के स्वरूप पर एक गीत मिला इसमें कुछ इस प्रकार के भाव प्रकट किए —
श्री राम भक्ति ऐसी ,श्रद्धा उभारती है ।निष्काम भाव सबरी, ऋषि पथ बुहारती है।
गाये जटायु ने थे, कब भक्ति के तराने ।श्री राम को गिलहरी, पहुंची न जल चढ़ाने।
पर भक्ति भावना से ,जीवन संवारती है ।।श्री राम भक्ति ऐसी, श्रद्धा ऊभारती है ।
हनुमान भक्त ऐसे,माला घुमा ना पाए ।श्रीराम को पूजापा , केवट चढ़ा ना पाए।।
इनका चरित्र पावन ,प्रतिभा निखारती है।
यदि भक्त हम कहाये, तो श्रेष्ठ कार्य करना। श्री राम काज करने, अन्याय से ना डरना।।
युगधर्म को निभाने ,प्रज्ञा पुकारती है , श्री राम भक्ति ऐसी ,श्रद्धा उभारती है।।
*भारत वर्ष ही नहीं संपूर्ण विश्व के अनेक देशों में श्री राम कथा की व्याप्ति अनेक रूपों में दिखाई देती है। कन्याकुमारी से क्षीर भवानी तक, कोटेश्वर से कामाख्या तक, जगन्नाथ से केदारनाथ तक, सोमनाथ से काशीनाथ तक, समवेत शिखर से श्रवणबेलगोला तक, बोधगया से सारनाथ तक, अमृतसर साहब से पटना साहेब तक ,अंडमान से अजमेर तक, लक्ष्यदीप से लेह तक, पूरा भारत राममय हैं।
रामकथा की अनेक रूपों ,भाषाओं ,बोलियों, में व्याप्ति है। यहां तो बाल्मीकि रामायण से रामचरित्र मानस तक, तेलुगु रामायण( रघुनाथ ब रंगनाथ रामायण) राधेश्याम रामायण, गोविंद रामायण ,अध्यात्म रामायण ,तमिल में कंबन रामायण ,उड़िया में रुईपात कातेय पति, कन्नड़ में (कुंदेंदु रामायण ),कश्मीर में रामावतार चरित्र, मलयालम में रामचरितं, बांग्ला में कृतिबास रामायण ,गुरु गोविंद की गोविंद रामायण है।
राम सब जगह हैं ,व राम सबके हैं, राम भारत की अनेकता में एकता के सूत्र हैं ।दुनिया के कितने ही देश राम के नाम का वंदन करते हैं ।वहां के नागरिक खुद को श्रीराम से जुड़ा हुआ मानते हैं।* विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश *इंडोनेशिया (बाली द्वीप) में भी काकादिन रामायण , स्वर्णदीप रामायण ,योगेश्वर रामायण, कंबोडिया में राम केन रामायण ,लाओस में फैलात फैलाद, मलेशिया में -हिकायत श्रीराम, थाईलैंड में रामकियेन है ।
ईरान व चीन में भी राम के प्रसंग तथा राम कथाओं का विवरण मिलेगा। श्रीलंका में रामायण की कथा ‘जानकी हरण’ के नाम से सुनाई जाती है। नेपाल का तो राम का आत्मीय संबंध माता जानकी से जुड़ा है। ऐसे ही दुनिया के ना जाने कितने देश हैं कितने छोर हैं, जहां की आस्था में या अतीत मे राम किसी ना किसी रूप में रचे-बसे हैं* ।
आज भी भारत के बाहर दर्जनों ऐसे देश हैं ,वहां की भाषा में रामकथा आज भी प्रचलित है। राम सबके हैं ,राम सब में है। भारत में भगवान श्रीराम के चरण जहां-जहां पड़े वहां ‘राम सर्किट ‘का निर्माण किया जा रहा है। हमारे यहां शास्त्रों में कहा गया है -” ना *राम सद्रश:राजा -प्रथिव्यां नीतिवान अधोत* ” यानी की पूरी पृथ्वी पर श्रीराम जैसा नीति वान शासक कभी हुआ ही नहीं।
राम ने कर्तव्य -पालन की सीख दी है। राम राज यानी सर्वोत्तम- सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था का होना । जिसमें किसी को भी दैहिक- दैविक -भौतिक संताप,कष्ट ना हो ।चारों-ओर शांति -समृद्धि, प्रसन्नता का वातावरण व्याप्त होना। सभी को न्याय उपलब्ध होना। भेदभाव रहित होना, यही रामराज्य की संकल्पना है।
प्रभु श्रीराम की मानव लीला व उनकी पावन कथा की बड़ी ही पवित्र पात्र है सबरी। महर्षि मतंग कहते हैं की भक्ति से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं भक्ति के साथ तो भगवान का बल है, राम भक्त किसी तपस्वी से, ज्ञानी से, योगी से, निर्मल प्रतीत होता है,
उसके पास चमत्कारी सिद्धियां -शक्तियां नहीं होती ,उसके जीवन में प्रत्यक्ष रूप से कोई अलौकिकता दिखाई नहीं देती लेकिन उसके साथ सदा- सर्वदा जीवन के प्रत्येक क्षण में समस्त सिद्धियों -शक्तियों एवं सारे आलोकिता के स्रोत भगवान स्वयं रहते हैं ।और जहां भगवान स्वयं हैं ,वहां सभी असंभव स्वयं संभव होते रहते हैं।
भक्तों से मिलने भगवान स्वयं ही आते हैं एवं भक्त जहां रहता है ,वह स्थान तीर्थ बन जाता है। स्वयं भगवान भी भक्त के बस में होते हैं, इसलिए माता अंजनी कहती हैं की -” संत का सानिध्य ,आत्म परिष्कार के लिए किया गया तप व श्रीहरि की भक्ति कभी भी व्यर्थ नहीं होती ।”
माता शबरी ने वनवासी क्षेत्र की शबर कन्या ‘माहुली’ के रूप में जन्म लिया और इस तरह अचानक शबरी( माहुली) के मन में भक्ति रस कैसे आपलावित हो उठा ? यह प्रश्न सभी ऋषियों व माता अंजनी के लिए कौतुक बना हुआ था कि एक दिन सभी ने महर्षि मतंग से इसका उत्तर पाने की जिज्ञासा-प्रार्थना की।
तब महर्षि मतंग ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर सबरी के पूर्व जन्म की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई की-” सबरी अपने इस शरीर को धारण करने से पूर्व गंधर्व कन्या व गन्धर्भ पत्नी थी । गन्धर्व कुल में उसका जन्म हुआ था ।और एक गंधर्व कुमार विभावर्धन के साथ वह ब्याही गई थी । शबरी भी अपने पूर्व जन्म में अनिन्ध सुंदरी व कुशल नृत्यांगना थी।
अत्यंत रूपवती सौंदर्य की साकार प्रतिमा सबरी को अपने उस जन्म में अपने रूप व कला का बड़ा अभिमान था। अपने इस गंधर्व स्वरूप में ‘ *अरुषि’* नाम था उसका। अर्थात ‘ *सूर्य की प्रथम किरण* । ‘अपने अप्रतिम सौंदर्य कलाओं में प्रवीणता के कारण अरुषि की ख्याति देवलोक के साथ अन्य लोकों में भी थी। देवराज सहित सभी देवगन तो इस पर सम्मोहित थे ।
अरुषि की स्वाभाविक चंचलता के विपरीत विभावर्धन सौम्य व शालीन था । गंधर्वलोक य देवलोक के किसी भोग, ऐश्वर्य, विलास या राग- रंग में उसकी कोई रुचि नहीं थी। भगवान नारायण की भक्ति में उसका स्वाभाविक मन लगता था।
अपने कर्तव्यों का सजगता व तत्परता से निर्वहन एवं भगवान नारायण की भक्ति यही दैनिक क्रम था विभावर्धन का। हालांकि उसे अरुचि के नृत्य संगीत या फिर उसके स्वच्छंद, चंचल स्वभाव से कोई आपत्ति न थी ।विभावर्धन ने अरुषि को अपने मनोनुकूल जीवन जीने के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी।
लेकिन इतने पर भी अरुशि को संतोष न था ।उसे तो जैसे विभावर्धन के प्रत्येक कार्य पर आपत्ति थी। अपने कटाक्षों के द्वारा वह हर समय इस चिढ़ को व्यक्त करती रहती थी ।शांत स्वभाव का विभावर्धन यह सब नारायण की कृपा समझकर संतोष कर सहन करता रहता था। सहनशीलता व प्रताड़ना का अजीब सा संयोग था दोनों का जीवन।
लेकिन एक दिन परम सहनशील बिभावर्धन की सहनशीलता भी चुक गई।अपने हर अपमान को प्रसन्नता पूर्वक सहन कर लेने वाला बिभावर्धन अपने आराध्य के अपमान को सहन ना कर सका । उस दिन हरिवासन कहीं जाने वाली एकादशी की पावन रात्रि थी। एकादशी का पवित्र व्रत विभावर्धन का जीवन व्रत था।
उस एकादशी की रात्रि भी वह भगवान नारायण के नाम- कीर्तन में तल्लीन था। उसी समय अरुशि उसे प्रताड़ित करने लगी। पहले उसने व्यंग-वचन सुनाएं परंतु जब विभावर्धन ने उन्हें अनसुना कर दिया, तो उसने पूजा की समस्त सामग्री विखेर दी। इस पर भी विभावर्धन शांत बना रहा तो अरुशि ने भगवान नारायण की मूर्ति पर प्रहार कर दिया। प्रहार इतना कठोर था कि पाषाण मूर्ति टुकड़े-टुकड़े हो गई।
अपने आराध्य की मूर्ति को खंडित होते देख विभावर्धन का धैर्य चुक गया । उसके अंतर्मन को असहनीय पीड़ा हुई ।वह व्यवस्थित हो गया ।अपने आक्रोश के उफान को ना रोक सका ।उसके नेत्रों में अग्नि धधक उठी ।अपने जीवन में पहली बार उसने अरुशि को क्रोध पूर्ण दृष्टि से देखा और बोला -“तुमने आज समस्त सीमाएं लांग दी।
भगवान नारायण का अपमान करने वाली तुम अब दंड की अधिकारी हो ।इसलिए आज मैं तुम्हें शाप देता हूं कि-” तुम संस्कार हीन कूलहीन वनों में रहने वाले सर्वथा निम्न व नीच घर में जन्म लो। तुम्हारा जीवन ज्ञान के प्रकाश से रहित हो। “
शबरी के पिछले जन्म की कथा प्रसंग ने सभी को भक्ति रस से भिगो दिया अन्त में महर्षि मतंग कहते हैं की -“पुत्री !! अब तो जान गए हो कि अपने पिछले जन्म के गंधर्व पति विभावर्धन के सानिध्य, फिर उसके शाप व मार्गदर्शन तथा बाद में भगवान नारायण की आराधना व उनके वरदान का परिणाम है शबरी का वर्तमान जीवन। “
महर्षि के इस कथन को सुनकर माता शबरी बड़े संकोच के साथ हाथ जोड़कर बोली – “यह तो श्रीहरि और हर की कृपा है। भगवान श्री नारायण और देवों के देव महादेव की कृपा करें ,तो साधारण तिनका पहाड़ से भी कहीं अधिक समर्थ हो जाता है। “
माता शबरी की भक्ति निष्काम है उनका जीवन पवित्र-पावन है वह प्रातः भोर में उठकर ऋषि-मुनियों के मार्ग को स्वच्छ करके झाड़ू इत्यादि लगाकर पानी सींच देती है पुस्प बिखेर देती थी। उनकी सेवा का क्रम लगातार वर्षों अनवरत चलता रहा, तब ऋषियों ने उन्हें वरदान दिया कि ऐक दिन तुम्हें भगवान दर्शन देने तुम्हारी कुटिया में पधारेंगे।
माता शबरी का चरित्र पावन था ।वह बिना पृशंसा -प्रदर्शन के निरंतर साधू -सन्यासियों, ऋषि-मुनियों की सेवा ,परोपकार में निरत रही ।इसी निष्काम सेवा सरलता, पवित्रता ,आतुरता ,भक्ति के वशीभूत भगवान श्री रामचंद्र को उसकी कुटिया में आना ही पड़ा। क्योंकि भक्ति का अर्थ है -“श्रेस्टता से स्नेह, लगाव ,समर्पण।”
जब भगवान शबरी की कुटिया में पधारे तब वह भाव विभोर हो गई ,बार-बार चरणों पर गिरती है ,उसका गला रुंध जाता है,ना कुछ बोल पाती है ,बार-बार चरण कमलों में सिर नवाती है ।फिर जल लेकर दोनों भाइयों के चरण धोए सुंदर आसन पर बिठाया ।
स्वादिष्ट- कंदमूल फल लेकर आई और कोई खट्टा फल (बेर) भगवान के पास ना चला जाए इसलिए चख – चख कर खीलाने लगी और भगवान प्रेम में मगन होकर खाने लगे तत्पश्चात वह प्रभु से कहती है कि- मैं नीच जाति की मंदबुद्धि हूं,अधम हूँ,मै किस प्रकार से आप की स्तुति करूं मुझे नहीं आता है ।तब प्रभु श्री रामचंद्र जी कहते हैं कि-
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता । मानऊ एक भगति का नाता।।
अर्थात हे भामनी !मेरी बात सुन ! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं।
जाती ,पांती कुल ,धर्म ,बढ़ाई, धन ,बल परिजन गुन, चतुराई। ।
भगति हीन नर होहई कैसा ,बिनु जल वारिद देखिऊ जैसा।।
अर्थात जांती- पांती ,कूल, धर्म ,बढ़ाई ,धन ,बल कुटुंब ,गुण और चतुरता इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है। जैसे जल हीन बादल शोभा हीन दिखाई पड़ता है। इसके पश्चात प्रभु श्री रामचंद्र माता शबरी पर कृपा करते हुए एवं संपूर्ण मानव जाति पर उपकार करते हुए अपने भक्ति के स्वरूप *नवधा भक्ति* को प्रदान करते हैं।
अपनी भक्ति के नौ प्रकार, रूपों का सह्ज्ता से वर्णन करते हैं एवं भक्तों को यह संदेश देते हैं कि इन भक्ति के नौ प्रकारों में से जो भी सहज, सरल लगे उसे अपना कर मेरी कृपा प्राप्त कर सकते हो। मुझसे जुड़ सकते हो राम कृपा के अधिकारी बन सकते हो। वास्तव में यह नवधा भक्ति संपूर्ण मानवता के लिए प्रभु श्रीराम का वरदान ,कृपा ही है।
एक प्रकार से प्रभु श्री रामचंद्र भक्तों का मार्गदर्शन ही कर रहे हैं। इस प्रकार से क्योंकि वह भक्तवत्सल हैं कृपा निधान, करुणा के सागर ,दीनों के दयाल हैं, राम प्रभु अपनी नवधा भक्ति का वर्णन करते हुए सबरी से कहते हैं कि -तू ध्यान से सुन व मन में धारण कर ।भगवान श्री राम के नवधा भक्ति के भाव को गोस्वामी तुलसीदास महाराज अपनी चौपाइयों में कुछ इस तरह वर्णन करते हुए कहते हैं कि –
प्रथम भगति संतन कर संगा ,दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरु पद पंकज सेवा ,तीसरी भगति अमान।।
चौथी भगति मम गुण गन ,करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा,पंचम भजन सो वेद प्रकाशा ।
सातव सम मोहि मय जग देखा ,मोते संत अधिक करि लेखा ।।
आठव जथा लाभ संतोषा, सपनेहूं नहीं देखइ परदोसा।।
नवम सरल सब सन छ्ल हीना , मम भरोसे हीय हरष ना दीना ।।
नव महूँ एकऊ जिनके होई , नारी पुरुष सचराचर कोई।।
जोगी वृंद दुर्लभ गति जोई , तो कहूं आज सुलभ भइ सोई ।
मम दर्शन फल परम अनूपा , जीव पाव निजि सहज सरुपा।।
अर्थात हे भामिनी ! मेरी पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम,व प्रेम से श्रवण। तीसरी भक्ति है अभिमान होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा। चौथी भक्ति है कपट रहित होकर मेरे गुण समूहों ,लीलाओ का गान करें।
पांचवी भक्ति है मेरे ‘राम ‘मंत्र का जाप और मुझ में दृढ़ विश्वास करें ,जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह , शील ,(अच्छा चरित्र )बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म आचरण में लगे रहना। सातवीं भक्ति है जगत को समभाव से ,मुझ से ओत-प्रोत ,राममय देखना अथवा मेरा ही रूप जानकर ,व्यवहार करना। और संतों को मुझ से भी अधिक करके मानना।
आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना एवं स्वप्न में भी पराए दोषों को ना देखना। नवं विभक्ति है सरलता और सब के साथ कपट रहित बर्ताव करना। हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष -विषाद का ना होना। इन 9 में से जिनके पास एक भी भक्ति होती है वह स्त्री-पुरुष ,जड़ ,चेतन कोई भी हो मुझे अत्यंत प्रिय है।
भगवान श्री रामचंद्र के जीवन में पवित्रता ,भेदभाव रहित ,समरसता यानी सभी का सम्मान ,सह असतित्व एवं सत्य- धर्म के पालन की प्रधानता, आग्रह प्रमुखता से दिखाई देता है। इस बात का सहज में ही अंदाजा हो जाता है कि मांस खाने वाले जटायु को अपनी गोद में बैठाते हैं,कुशल छेम पूछ कर उपचार किया एवं अंत में अंतिम संस्कार व तर्पण भी किया ।
वहीं दूसरी ओर केवट यानी निषादराज को गले लगाया ।अपनी मित्रता प्रदान ही नहीं की बल्कि छोटे अनुज लक्ष्मण जैसा सम्मान दिया। और वनवास से वापस लौटते समय निषाद राज के घर पर श्री राम पधारे ,उसे अपने साथ वापसी में अयोध्या भी ले गए।
और उसे कृतार्थ किया ।प्रभु श्री राम ने अहिल्या रूपी नारी को जो पाषणवत यानी संवेदना हीन या संवेदनाएं सुस्क हो गई थी का उद्धार ,त्राण किया । मन में रहने वाले कोल- किरात,वानर भालुओ से मित्रता की, उन्हें धर्मा -धर्म ज्ञान कराया एवं कर्तव्य बोध कराकर के संगठित करके, आसुरता व अधर्म पर चढ़ाई की ।एवं सत्य- धर्म की विजय कराई।
भगवान राम के जीवन में गिलहरी जैसे अत्यंत छोटे जीव का भी सम्मान है। श्रीराम का जीवन पूर्ण है। संपूर्ण विश्व मानवता के लिए वह पथ प्रदर्शक ,अनुकरणीय ही नहीं, कल्याणकारी भी हैं। भगवान का तो अवतार ही धर्म संस्थापना के लिए होता है। जिसमें सज्जनों का कल्याण व दुर्जनों को दंड दिया जाता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास महाराज लिखते हैं कि –
निर्मल मन जन सो मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।
विप्र ,धेनु,सुर ,संत,हित, लीन मनुजअवतार।।
भगवान को पवित्र मन का व्यक्ति, प्राणी, जीव ही प्रिय है ,पसंद है और छल -कपट रखने वाले प्राणी अप्रिय हैं। जिनको भगवान का दर्शन सानिध्य नहीं प्राप्त होता है। अर्थात संसार में विप्र- ब्राह्मणों ऋषियों -मुनियों, गाय, देवताओं ,संतो के कल्याण हेतु ही भगवान का अवतरण होता है, इस धरा धाम पर।
प्रत्येक युग में लक्ष्य एक ही रहता है परिस्थिति भले ही बदलती रहती हैं। राम अतः राम सबके हैं राम सबमें हैं ।और यह सारा संसार ही राममय है एवं राम की ही अभिव्यक्ति है। राम का ही विस्तार है ,राम की ही लीला है। राम की महिमा से प्रभावित होकर ही तो राजगोपालाचारी अपने तमिल रामायण का अंग्रेजी अनुवाद करते हुए लिखते हैं कि –
” राम का जीवन पारिवारिक समरसता ,राष्ट्रीय एकात्मता तथा अंतरराष्ट्रीय मैत्री, एक्य तथा सौहार्द का आधार है। राम का जीवन भारतीय अतीत का गौरव ,वर्तमान के आश्रय तथा भविष्य की उज्जवल आशा है। वह भारत का उच्चतम आदर्श हैं । निसंदेह राम के बिना भारत अकथनीय, अकल्पनीय कथा अधूरा है। “
इसीलिए भारतीय जनमानस इसे कुछ इस रूप में गायन करता है –
जन जन के मन में राम रमे , हर प्राण- प्राण में सीता है।।
कंकर –कंकर ,शंकर इसका , हर श्वास- श्वास में गीता है।
जीवन की धड़कन रामायण , पग –पग पर बनी पुनीता है।।
यदि राम नहीं है सांसों में, तो प्राणों का घट रीता है ।।
अखंड ज्योति पत्रिका -(मासिक )नवंबर 2013 ,पृष्ठ क्रमांक 46 -47 प्रकाशक -अखंड ज्योति संस्थान घीयामंडी ,मथुरा उत्तर प्रदेश ।
अखंड ज्योति पत्रिका -जनवरी 2014, पृ. क्र. 43, प्रकाशक- अखंड ज्योति संस्थान घीया मंडी, मथुरा -उत्तर प्रदेश ।
04 .डॉ सतीश मित्तल -(भूमिका ग्रंथ -श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या की ऐतिहासिकता – लेखक -डॉ नितिन सहारिया )प्र.क्र. 4 , प्रकाशक -अर्चना प्रकाशन ,दीनदयाल परिसर ई 2 महावीर नगर, भोपाल, 2018।
05 .महर्षि वाल्मीकि रामायण -अरण्यकांड, गीता प्रेस ,गोरखपुर उत्तर प्रदेश ।