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श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या की ऐतिहासिकता

भारतवर्ष श्रीराम का देश है। यहां का जन और जीवन रामायण से ओत-प्रोत है। श्रीराम भारतवर्ष के राष्ट्रपुरुष- आराध्य हैं। भारतीय संस्कृति रामायण की संस्कृति है। देश के कण-कण में, रग-रग में राम बसे हुए हैं। राम का स्मरण यहां जन्म से लेकर, सुख-दुख व मृत्यु पर्यंत तक हर घड़ी बना रहता है। राम का चिंतन यानी भारतीय संस्कृति का चिंतन है। इसलिए भारतीय जन मानस इसे कुछ इस तरह से गायन करता है –
जन-जन के मन में राम रमे, हर प्राण-प्राण में सीता है।
कंकड़- कंकड़ शंकर इसका, हर स्वास-स्वास में सीता है।
जीवन की धड़कन रामायण, पग-पग पर बनी पुनीता है।
यदि राम नहीं है सांसों में, तो प्राणों का घट रीता है।।
परमपिता (प्रजापति ब्रह्म) की 39 वीं पीढ़ी में श्रीरामचंद्र जी का जन्म हुआ था। भारतवर्ष के प्राचीन ग्रंथो स्कंद पुराण, वृहद्धधर्म पुराण ,अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण, हरिवंश पुराण, मत्स्य पुराण श्रीवाल्मीकि रामायण, श्रीरामचरितमानस में रघुवंश में श्रीराम, श्रीराम जन्मस्थान अयोध्या, रामायण एवं आदि कवि श्रीवाल्मीकि का उल्लेख मिलता है। चैत्र शुक्ल पक्ष के नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त सर्वलोक वन्दित जगदीश्वर श्री राम को जन्म दिया।

इस प्रकार संपूर्ण मानवता के कल्याण एवं धर्म संस्थापना हेतु श्रीहरि विष्णु ने अयोध्या में महाराज दशरथ के यहां महारानी कौशल्या के गर्भ से प्रकट हुए।

आक्रमणकारी सालार मसूद ने 1033 ई .में साकेत अथवा अयोध्या में डेरा डाला व राम जन्मभूमि के मंदिर को ध्वस्त किया था। जब वह मंदिर तोड़कर वापस जा रहा था तभी बहराइच में घनघोर युद्ध में सालार मसूद का वध 14 जून 1033 ई. को वीर पराक्रमी राजा सुहेलदेव ने किया। तब गहढ़वाल बंशीय राजाओं ने पुन: मंदिर का निर्माण कराया।

सन 1526 ई. में बाबर अयोध्या की ओर आया और अपना डेरा सरयू के उस पार डाला। बाबर ने अपने सेनापति मीरबांकी को जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया। सन 1528 ई. में अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर मस्जिद नुमा ढ़ाचा निर्माण करने का प्रयास किया किंतु हिंदू प्रतिरोध के कारण वहां पूर्ण मस्जिद नहीं बन सकी।

बाबर के समय (1528 से 1530 ई.) के मध्य श्रीराम जन्मभूमि के लिए 4 युद्ध हुए इसमें हिंदू पक्ष से भीटी नरेश मेहताब सिंह, इन्सवर के राजगुरु देवीदिन पांडेय व हंसवर के राजा रणविजय ने भीषण युद्ध लड़ा।

हुमायूं के समय (1530 से 1556 ई.) के मध्य राम जन्मभूमि के लिए 10 युद्ध हुए, जिसमें हिंदुओं के पक्ष से साधुओं की सेना लेकर स्वामी महेशानंद जी, स्त्रियों की सेना लेकर रानी जय राजकुमारी, हंसवर की रानी ने भीषण युद्घ लड़ा व बलिदान दिया।

अकबर के समय (1556 से 1600 ई. )के मध्य लगभग 20 युद्ध श्रीराम जन्मभूमि को लेकर हुए, हिंदुओं की ओर से स्वामी बलरामाचार्य जी व संयुक्त हिंदू समाज ने निरंतर संघर्ष किया।

औरंगजेब के समय (1658 से 1707 ई.) में सर्वाधिक 30 युद्ध/संघर्ष हुए। जिसमें हिंदू पक्ष की ओर से बाबा वैष्णवदास, गुरु गोविंद सिंह, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदंबा सिंह, ठाकुर गजराज सिंह ने घनघौर युद्ध किया व बलिदान दिया ।

अंग्रेजी हुकूमत के दौरान महंत रघुवरदास ने 1885 ई. में वाद संख्या 61/280 के अनुसार फैजाबाद की एक अदालत में राम चबूतरे के ऊपर बने कच्चे झोपड़े को पक्का करने की अनुमति मांगी थी लेकिन फैजाबाद के पंडित हरिकिशन को अनुमति नहीं दी। बाद निरस्त कर दिया गया ।

अवध के नवाब शहादत अली (1773 से 1836 ई.) के समय में हिंदुओं ने श्रीराम जन्मस्थान की प्राप्ति के लिए तीन युद्ध अमेठी नरेश गुरुदत्त सिंह तथा पिपरा के राजकुमार सिंह ने लड़े। परेशान होकर नवाब ने हिंदू और मुसलमान को साथ-साथ पूजन एवं नमाज की अनुमति दी । तत्पश्चात नवाब वाजिद अली शाह (1847- 56 ई.) के काल में संपूर्ण जन्मस्थान को प्राप्त करने के लिए चार बार युद्ध किया। इनका नेतृत्व बाबा उद्धव दास तथा भीटी नरेश ने किया।

1857 ई . में अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया व मुसलमानो को प्रसन्न करने के लिए ढांचे के चारों ओर रेलिंग लगा दी तथा तीन गुंबदों वाले ढांचे और राम चबूतरे के बीच एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी परिणामत: हिंदुओं को पूजा बाहर से करने की लाचारी हो गई; परंतु हजारों प्रयासों के बाद भी हिंदुओं ने वहां पूजा करना नहीं छोड़ा।

अंग्रेजों ने हिंदू-मुस्लिम विवाद को समाप्त कराने वाले निरपराध बाबा रामचरण दास एवं आमिर अली को 18 मार्च 1858 को कुबेर टीला में इमली के पेड़ से लटककर कड़ी सुरक्षा के बीच फांसी दे दी। वर्षों तक हिंदू समाज उस इमली के पेड़ की पूजा और परिक्रमा करता रहा।

अयोध्या में 1934 ई. में एक गाय काट देने के कारण हिंदू समाज में बड़ा जबरदस्त आक्रोश फैल गया। गौ हत्यारो को अपनी जान देनी पड़ी। कुछ हिंदुओं ने भी बलिदान दिया। इतना ही नहीं आक्रोश से उत्तेजित हिंदू समाज ने कथित बाबरी ढांचे पर आक्रमण करके इसके तीन गुंबदों को क्षतिग्रस्त करके संपूर्ण परिसर को अपने अधिकार में ले लिया। 22- 23 दिसंबर 1949 भगवान श्रीराम लला के प्राकट्य के पश्चात तो वहां विधिवत त्रिकाल पूजन, आरती- भोग होने लगा।

बाबर के आक्रमण एवं श्रीराम जन्मभूमि के बारे में मुस्लिम लेखक ‘अबुल फजल’ (1598 ई.) अपने ग्रंथ ‘आईने अकबरी’ में लिखता है कि- “अवध (अयोध्या) को अति प्राचीन कालीन पवित्रम (धार्मिक) स्थलों में से एक होने का गौरव प्राप्त था। राम के जन्म दिवस का संसूचक रामनवमी उत्सव बड़ी धूमधाम से मनता आया है।”

फैजाबाद जिला गजेटियर वॉल्यूमXL।। द्वारा एच. आर. नेवेल (आई सी एस) पृष्ठ 173, 1905, गजेटियर ऑफ द प्रोविंस आफ अवध, वॉल्यूम 1- A To G ( थ्री वॉल्यूम इन वन) पृ. 6, 1877-78 । अंग्रेजी शासन कालीन गैजेटियर्स में इस ऐतिहासिक साक्ष्य की पुष्टि की गई है कि- बाबर 1528 ई. में अयोध्या आया और एक सप्ताह रुका एवं उसके आदेश पर श्रीराम मंदिर को तोड़कर मस्जिद नुमा ढांचा खड़ा किया गया।

श्री राम लला के पृकात्ट्य के बाद श्री गोपाल सिंह बिशारद द्वारा सिविल जज फैजाबाद के यहां बाद संख्या 2/1950 प्रथम बाद दायर किया गया। द्वितीय बाद 25 /1950 परमहंस श्री रामचंद्र दास द्वारा ,तृतिय वाद निर्मोही अखाड़ा वार्ड संख्या 26/1959 चतुर्थ वाद सुन्नी सेंट्रल वर्क बोर्ड द्वारा 12/ 1961, पंचम वाद न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल द्वारा 1 जुलाई 1989 को दायर किया गया आता है अत: न्यायालय ने न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल को अधिकृत कर दिया एवं विरोध करने वालों के खिलाफ स्थाई स्थगन आदेश जारी किया।

प्रथम चरण – 7 अक्टूबर 1984 से 6 दिसंबर 1992 तक का 77 व लोकतांत्रिक चरणबद्ध संघर्ष आरंभ हुआ। 1 अप्रैल 1984 दिल्ली विज्ञान भवन में ‘प्रथम धर्म संसद’ का अधिवेशन, 575 पूज्य धर्माचार्य की उपस्थिति एवं तीनों धर्म स्थलों की मुक्ति की मांग । 7 सितंबर 1984 सीतामढ़ी बिहार से श्रीराम जानकी रथ यात्रा प्रारंभ।

द्वितीय चरण – श्रीराम जन्मभूमि न्यास का गठन, मंदिर प्रारूप चयन। 1989 प्रयागराज महाकुंभ – “तृतीय धर्म संसद” का आयोजन पूज्य देवराहा बाबा की उपस्थिति में, 10000 संत व भक्त उपस्थित। शिला पूजन कार्यक्रम प्रारंभ,  प्रत्येक व्यक्ति सवा रुपया, 2.75 लाख ग्रामों में, 6 करोड़ जन ने पूजन किया।

तृतीय चरण – अगस्त 1990 पत्थर तरासने का कार्य प्रारंभ। 23 -24 जून हरिद्वार में मार्गदर्शक मंडल की बैठक संपन्न ।देवोत्थान एकादशी 30 अक्टूबर 1990 मंदिर निर्माण हेतु कार सेवा घोषणा।

चतुर्थ चरण – श्री चंद्रशेखर सिंह प्रधानमंत्री बने । पीएम द्वारा वार्ता प्रस्ताव एवं 1 दिसंबर 1990 विहिप बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी व सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति में वार्ता प्रारंभ। जून 1992 में ढांचे के सामने समतलीकरण एवं मंदिर की अनेक अवशेष प्राप्त हुए । जुलाई 1992 सर्वदेव अनुष्ठान मंदिर के चबूतरे का निर्माण। 30 अक्टूबर 1992 की पंचम धर्म संसद में, 6 दिसंबर 1992 को पुन: कार सेवा की घोषणा। ईश्वरीय इक्क्षा व हिंदू समाज के शौर्य से ढांचा 5 घंटे में सरयू में प्रवाहित हो गया। लोगों ने कहा- “अब हिंदू कायर नहीं रहा, वह अपमान का परिमार्जन करना जानता है।” कार सेवकों ने आनन-फानन में त्रिपाल का मंदिर बनाकर वहां रामलला विराजमान कर दिए।

8 दिसंबर 1992 ब्रह्म मुहूर्त में सुरक्षा बलों ने संपूर्ण परिसर को अपने अधीन कर लिया एवं सुरक्षा बलों की देखरेख में पुजारी द्वारा पूजा होने लगी। 21 दिसंबर 1992 को अधिवक्ता हरिशंकर जैन द्वारा याचिका पर न्यायमूर्ति श्री हरिहर नाथ तिलहरी वह श्री ए. एन. गुप्ता की खंडपीठ ने 1 जनवरी 1993 को अपने निर्णय में हिंदू समाज को आरती-दर्शन-पूजन व भोग का अधिकार दे दिया।
भारतीय संविधान निर्माताओ ने भी भगवान श्रीराम को राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक मानकर संविधान की मूल प्रति में तीसरे नंबर का चित्र प्रभु श्रीराम, माता जानकी व लक्ष्मण जी का उस समय का है, जब वे लंका विजय के पश्चात पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को वापस आ रहे हैं। संविधान निर्मात्री सभा में सभी मत – मतांतरों के लोग थे, किसी ने आपत्ति नहीं उठाई,आखिर सबकी सहमति से ही वह चित्र छपा होगा। अत: ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण करना राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा एवं हमारा संवैधानिक दायित्वभी है। सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति एक सतत प्रक्रिया है।

इतिहास साक्षी है कि जिस राष्ट्र के लोग यदि प्रखर राष्ट्रभक्त हैं, तो राष्ट्रीय सम्मान को उजागर करने के लिए फिर वह मूर्तियों की पुनर्स्थापना करते हैं ; फिर वह राष्ट्रभक्त आस्तिक या नास्तिक ही क्यू न हों। प्रश्न राष्ट्रीय अपमान को धो डालने का ही उनके सामने रहता है।

 

-डॉ. नितिन सहारिया