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श्री कामधेनु नंदिनी नमोस्तुते, सुरभि नमोस्तुते !!

गौ-गोविन्द की आराधना के पावन पर्व
“गोपाष्टमी” की हार्दिक शुभकामनायें।

गौमाता में सभी देवी-देवताओं का वास होता है। अनादि काल से पूजनीय गौमाता, जीवन और जीविका की आधार एवं सम्पूर्ण सृष्टि की पालक हैं। इस अवसर पर हम सभी गौमाता के संरक्षण और संवर्धन के लिए संकल्प ले। गाय हमारी संस्कृति में गंगा, गायत्री, गीता, गोवर्धन और गोविन्द की तरह पूज्य है।
इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने गाय को चराने के लिए घर से बाहर कदम रखा था…. मतलब अपने जीवन का प्रथम उदेश्य गौरक्षा की आज ही के दिन से शुरूआत की थी। इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने गौमाता -चारण लीला आरम्भ की थी।
कहा जाता है कि जब कन्हैया छः वर्ष के हो गये तब अपनी माँ यशोदा को कहने लगे- माँ अब मैं बड़ा हो गया हूँ तथा गायों को चराने के लिए वन में जाउगा। उनकी हठ के आगे मैया को हार माननी पड़ी तथा नन्दबाबा के साथ कृष्ण जी को वन में गायें चराने के लिए भेज दिया।
वह गोपाष्टमी का दिन ही था, इसके अतिरिक्त अगले बारह महीनों तक गायें चराने के लिए जाने का कोई और मुहूर्त नही था। अतः नन्दबाबा तथा माँ जसोदा को अपने पुत्र कृष्ण जी को इसी दिन वन में गाये चराने के लिए जाने की अनुमति देनी पड़ी। मौर मुकुट हाथों में बांसुरी तथा पैरों में घुंघरू बंधे श्याम बिना खड़ताल या चप्पल पहिने नग्न पैरों से गौ चरण के लिए गोपाष्टमी के दिन घर से रवाना हुए थे। अतः इस दिन को आज भी ब्रज तथा सम्पूर्ण उत्तर भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता हैं।

मान्यता है कि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी उंगली पर गोवर्धन पर्वत धारण किया था। आठवें दिन इंद्र अपना अहंकार और गुस्सा त्यागकर श्रीकृष्ण के पास क्षमा मांगने आए थे। तभी से कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है। गाय को हमारी संस्कृति में पवित्र माना जाता है। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि, जब देवता और असुरों ने समुद्र मंथन किया तो उसमें कामधेनु निकली। पवित्र होने की वजह से इसे ऋषियों ने अपने पास रख लिया। माना जाता है कि कामधेनु से ही अन्य गायों की उत्पत्ति हुई। श्रीमद्भागवत में इस बात का भी वर्णन है कि भगवान श्रीकृष्ण भी गायों की सेवा करते थे।

भारतीय संस्कृति में जो भी त्योहार मनाया जाता है उसके पीछे पूर्णतः विज्ञान छिपा होता है। गौ माता के पूजन के पीछे भी यही कारण है।
गाय से शरीर से जो सात्विक ऊर्जा निकलती है, उस घर या इलाके में गाय होने से बहुत सारी अशुभ चीजें दूर हो जाती हैं l गाय के शरीर में सुर्यकेतु नाड़ी होती है, जो सूर्यकिरणों को पीती है, इसलिए गाये के गोबर व मूत्र में भी सात्विक पॉवर होता है l मरते समय भी गाय के गोबर का लीपन करके व्यक्ति को सुलाया जाता हैl
समस्त प्राणी आदरणीय एवं उपयोगी हैं किन्तु गौ पृथ्वी की महत्वपूर्ण-दिव्य प्राणी है। यह मनुष्यता से भगवत्ता की यात्रा में सर्वाधिक उपयोगी एवं सहायक है। गाय के संरक्षण-संवर्धन एवं सामीप्य से आयुर्विद्या,यश-श्री,आयुष्य और कैवल्य सहज ही प्राप्त हो जाता है।

ईरान में एक फ़िल्म बनी थी 1969 में “गऊ” (“The Cow”)।

दारिउश मेहरजुई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में इजातोल्ला इंतेजामी ने मुख्य भूमिका निभाई है। ईरान के हुक्मरान अयातोल्ला खोमैनी को यह फ़िल्म बहुत पसंद थी। इस फिल्म को देखने के बाद उन्होंने ईरान में गो हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था जो आजतक लागू है।

चिकित्सा विज्ञान में एक शाखा है बोनथ्रोप (Boanthropy) इसमें व्यक्ति खुद को पशु समझने लगता है। पश्चिम में आज भी यह समझ पाना पहेली है कि कोई कैसे अपनी गाय से इतना प्यार कर सकता है कि खुद वह पशु ही बन जाए..?

जबकि भारत में एक देहाती किसान भी मनोविश्लेषकों से ज्यादा अच्छे से यह बात समझ सकता है और मेरे लिए पहेली यह है कि यह फ़िल्म भारत में नहीं ईरान में बनाई गई है। हर भारतीय को यह फ़िल्म देखनी चाहिए।

जब मैंने भी यह फ़िल्म देखी तो उपनिषदों के दो उदाहरण मेरी आँखों में आंसुओं के साथ ही आए। फ़िल्म में मश्त-हसन अपनी गाय से प्रेम करता है, किसी बीमारी से गाय जब मर जाती है तब वह खुद को गाय समझने लगता है। नाद में चारा खाता है, गले में घण्टी बांधता है और अपने गले में रस्सी डालकर उसी खूंटे से खुद को बांध लेता है और वहीं थान में बैठा रहता है।

गाँव वाले सोचते हैं कि यह पागल हो गया है और ईलाज कराने के लिए रस्सियों में बांधकर शहर लेकर जाने लगते हैं। मश्त हसन वहाँ उस टीले पर जाकर अड़ जाता है जहां जाकर उसकी गाय रुक जाती थी। लोग उसे खींचते हैं लेकिन वह अड़ा रहता है। तभी एक आदमी डंडे से उसे पीटने लगता है और चिल्लाने लगता है,पशु कहीं का… पशु कहीं का….

उस समय पीड़ा से न कराहकर मश्त हसन अपनी आंखें मूंद लेता है आनंद से, वह सोचता है कि अहा, अब जाकर मैं अपनी गाय से एकाकार हो पाया हूँ। अब मैं अपनी गाय बन गया हूँ। रंभाकर दौड़ पड़ता है और एक पानी के गड्ढे में गिरकर मर जाता है।

तब मुझे याद आया कि गाय चलती तो श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप चलते थे, वह खाती तो वे खाते थे, वह बैठती तो बैठते, इतने ही एकाकार हो गए थे, गाय ही बन गए थे बिल्कुल ऐसे जैसे मश्त हसन।

सत्यकाम जब वापस आया तो गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने कहा गुरु को, हमने गिनती कर ली है पूरी हजार गऊ हैं। तब गुरु ने कहा था कि हजार नहीं एक हजार एक गऊ हैं। सत्यकाम की आंखों को तो देखो जरा ध्यान से, यह भी गाय ही बन गया है।

पश्चिम में भले ही इसे बोनथ्रोपी में वर्णित कोई बीमारी मानें लेकिन यहां पूर्व में, भारत में चेतना के विकास क्रम में यह बहुत ऊंचा पायदान है। बंधुओ, उपनिषद इसकी गवाही देते हैं, आज भी गाँव देहात में पशुओं से बात करते उनके हाव भाव समझते लाखों लोग मिल जाएंगे।

पहला प्रश्न यह उठता है कि भारतीय सिनेमा क्या कर रहा है?क्या उनसे ऐसी फिल्म बनाने की उम्मीद की जा सकती है भारत में…? विदेशों में गौ माता पर फ़िल्म बन रही है।और हमारे यहां आज भी बूचड़खाने में गाय माता कटने जा रही हैं।

वही एक प्रश्न और उठता है कि ईरानियों ने उपनिषदों की या राजा दिलीप की घटना को लेकर इतनी संवेदनशील फ़िल्म बना डाली। क्या यहां के निर्माता निर्देशकों के द्वारा ऐसा सम्भव है या सिर्फ अश्लीलता और सेट एजेंडे ही चलाने हैं फिल्मों में।

आप सभी पर गौमाता की कृपा बनी रहे।

सुषमा यदुवंशी
लेखिका, शिक्षविद